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वन अधिकार और पेसा कानून पर जागरूकता के लिए आदिवासी संगठनों की बड़ी पहल

पश्चिम बंगाल में छोटे छोटे संगठनों ने एक साथ आ कर एक बड़ा संगठन बना लिया है. इससे उम्मीद की जा सकती है कि जमीन पर तो उनके काम का प्रभाव बढ़ेगा ही बल्कि नीति निर्माताओं पर भी वो दबाव बना पाएंगे.  

बांकुडा के भूमिज आदिवासी समुदाय के तपन कुमार सरदार ने पिछले सप्ताह अपने इलाके के आदिवासी गांवों में एक रैली का आयोजन किया. यह रैली बेहद खास और आमतौर पर होने वाली रैलियों से बिलकुल अलग थी. इस रैली का मकसद आदिवासियों को उनके अधिकारों के बारे में जागरूक करना था. 

इस रैली के सिलसिले में MBB से बात करते हुए उन्होने कहा, “जैसा देश भर में देखा गया है कि आदिवासियों की ज़मीन विकास के नाम पर लूटी गई है. वैसे ही हमारे बांकुड़ा इलाके में भी आदिवासी की ज़मीन और जंगल पर कब्जा किया जा रहा है. यहां पर ग्राम सभा की अनुमति के बिना ही जंगल की जमीन ले ली जाती है.”

तपन कुमार कहते हैं कि आदिवासी के हकों की रक्षा के लिए बने कानून तो हैं लेकिन उसके बारे सही जानकारी और इस्तेमाल भी ज़रूरी है. इसलिए उन्होंने अपने समुदाय के आदिवासियों को स्थानीय भाषा में इन कानूनों की जानकारी देने की ज़िम्मेदारी ली है. वो पिछले एक दशक से ज़्यादा से इस काम में जुटे हैं. 

वो कहते हैं, “आदिवासियों के जल, जंगल और जमीन पर अधिकार के लिए फॉरेस्ट राइट्स एक्ट 2006 मौजूद है, इसके अलावा पेसा कानून 1996 भी मौजूद है. लेकिन इन कानूने के प्रति आदिवासी समुदाय में पर्याप्त जागरूकता नहीं है.”

हांलाकि तपन कुमार सरदार कहते हैं कि अब आदिवासी समुदायों में पढ़े लिखे लोग बढ़ रहे हैं. इसलिए अपने हकों को भी समझ रहे हैं. 

पश्चिम बंगाल में आदिवासियों में उनके कानूनी और सवैंधानिक अधिकारों के प्रति जागरूकता पैदा करने के लिए एक नए संगटन का गठन किया गया है. इस संगठन का नाम बनाधिकार और प्रकृति बचाओ महासभा रखा गया है.

दरअसल इस काम के लिए कई संगठन एक मंच पर आए हैं और आदिवासियों के सवैंधानिक और कानूनी हकों के बारे में जागरूकता अभियान चलाने का फैसला किया है. 

इस संगठन से जुड़े एक और नेता सुपुन हेम्ब्रम कहते हैं कि विकास के नाम पर हमारी ज़मीन ज़बरदस्ती ली जाती रही है. कभी माइनिंग के लिए तो कभी किसी और प्रोजेक्ट के लिए आदिवासी की ही ज़मीन अधिग्रहित की जाती है.

वो कहते हैं कि 1996 का पेसा कानून और 2006 में आए वन अधिकार कानून ने आदिवासियों को वो शक्ति दी है जिससे वो अपनी ज़मीन को बचा सकता है. उनके अनुसार ये दो कानून आदिवासी के पास ऐसा हथियार है जिससे वो सरकार और कॉरोपोरेट दोनों से लोहा ले सकता है.

MBB से खास बातचीत में उन्होंने कहा, “अब हमें यह समझ में आ गया है कि जब तक हमें कानून की पूरी जानकारी नहीं होगी तब तक हमें बेवकूफ बनाया जाता रहा है. इसलिए अब हम अपने समुदाय में अपने अधिकारों के बारे में तरह तरह के प्रोग्राम कर रहे हैं.”

पुरलिया ज़िले में आदिवासियों के अधिकारों पर लोगों के बीच जागरूकता अभियान का नेतृत्व करने वाले सुपुन हेम्ब्रम कहते हैं कि अब उनका संगठन गांव गांव में पेसा और वन अधिकार कानून 2006 के बारे में जानकारी दे रहे हैं. 

झारग्राम से इस संगठन के सदस्य राजीब बासके कहते हैं, ‘अफ़सोस की बात है कि हमारे चुने हुए प्रतिनीधि ही हमारे हकों की रखवाली नहीं करते हैं. इसलिए ज़रूरी है कि हम खुद जागरूक बने. वो कहते हैं कि हाल ही में पर्यावरण नियम बदल कर आदिवासियों को नुकसान पहुंचाने की कोशिश की गई.”

राजीब बास्के कहते हैं कि उनके संगठन ने 9-15 अगस्त के बीच अपने इलाके में एक पदयात्रा निकाली थी. इस पदयात्रा का मकसद आदिवासियों में वन अधिकार कानून और पेसा के प्रति जागरूकता फैलाना था. 

इसके अलावा उनका संगठन आदिवासी इलाकों में कैम्प लगा कर भी आदिवासी अधिकारों पर बातचीत करते हैं. वो कहते हैं कि आदिवासी की ज़मीन पर हमेशा ख़तरा मंडराता रहता है. 

देश में आदिवासी को ही सबसे अधिक विस्थापित होना पड़ा है. वो कहते हैं कि पहले अनेक छोटे छोटे संगठन इस काम में लगे हुए थे. लेकिन अब ये सभी संगठन एक मंच पर आ गए हैं.

भारत की कुल आबादी का करीब 10 प्रतिशत आबादी आदिवासी है. इसके अलावा देश के कुल विस्थापित लोगों में हर चौथा आदिवासी है.

पश्चिम बंगाल में छोटे छोटे संगठनों ने एक साथ आ कर एक बड़ा संगठन बना लिया है. इससे उम्मीद की जा सकती है कि जमीन पर तो उनके काम का प्रभाव बढ़ेगा ही बल्कि नीति निर्माताओं पर भी वो दबाव बना पाएंगे.  

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