ठिर्रीआमा के काशी राम के हाथ में जंगल की ज़मीन का पट्टा है, जिसे नीचे की तरफ़ से लगभग आधा दीमक चाट गई है. यह पट्टा उन्हें मध्य प्रदेश भूराजस्व संहिता 1959 (Madhya Pradesh Revenue Code 1959) के नियमों के तहत मिला है. उन्हें यह पता है कि यह काग़ज़ ज़मीन पर उनकी मिलकियत साबति करने के लिए ज़रूरी है.
वो पट्टे को बार बार उलट-पलट कर देखते हैं और बड़बड़ाते हैं,”पट्टा कीड़ा खा गया, कैसे खा गया.” लेकिन वो बहुत परेशान नहीं लगते हैं. जब मैं उनसे पूछता हूँ कि क्या हुआ पट्टा सँभाल कर नहीं रखा था? उन्हें हंसी आ जाती है.
ठिर्रीआमा छत्तीसगढ़ के कोरबा ज़िले की पौड़ी उपरोडा तहसील का एक छोटा सा गाँव हैं. यह गाँव लालपुर पंचायत का हिस्सा है और जंगल में बसा है. यहाँ पर सरकार ने पहाड़ी कोरबा आदिवासियों को बसाया था. पहाड़ी कोरवा को विशेष आदिम जनजाति (Particularly Vulnerable Tribes)की श्रेणी में रखा गया है.
एक वक़्त खानाबदोश (Hunter Gatherers) की ज़िंदगी जीने वाले इन आदिवासियों को आधुनिक बस्तियों से दूर जंगल में ही बसाने के पीछे मंशा यह थी कि उनको उनके ही परिवेश में रखते हुए विकास से जोड़ा जाए.
काशीराम इस गाँव के पटेल हैं यानि वो अपने समुदाय के मुखिया हैं. उनसे बातचीत में पता चलता है कि गाँव में लगभग सभी परिवारों को खेती की ज़मीन का पट्टा मिला है. लेकिन ये आदिवासी नाम मात्र के लिए ही खेती करते हैं.
काशीराम कहते हैं पहले की ज़िंदगी अच्छी थी, जंगल में शिकार मिल जाता था, फल-भाजी और कांदे मिल जाते थे. सरकार चाहती है कि हम ज़मीन खोद कर खेती करें, इस ज़मीन पर खेती आसान नहीं है. आदमी कितना हाड़ तोड़ेगा, वो भी तब जब इसकी ज़रूरत ही नहीं थी. जंगल से तो हम जी ही रहे थे.
ठिर्रीआमा के बुध्दुराम की नीले रंग की टी शर्ट पर अंग्रेज़ी में लिखा है, ‘Apna Time Ayega’. मैने उनसे पूछा कि उन्हें पता है कि उनकी टी शर्ट पर क्या लिखा है, वो ना में गर्दन हिला देते हैं. जब मैने उन्हें बताया कि इस पर लिखा है, ‘अपना टाइम आएगा’ तो वो ज़ोर से हंसने लगते हैं और कहते हैं हां अपना टाइम आएगा.
बुध्दुराम के पास भी ढाई एकड़ ज़मीन का पट्टा है. लेकिन वो भी पूरी ज़मीन पर खेती नहीं करते हैं. वो बताते हैं कि बरसात के समय में वो धान बोते हैं.
साल में दो-चार बोरा धान होता है. जब मैंने उनसे पूछा कि क्यों वो पूरी ज़मीन पर खेती नहीं करते हैं. तो चुप हो जाते हैं, लेकिन फिर से पूछने पर कहते हैं कि ना तो उनके पास हल बैल है और ना ही इतना बीज होता है.
जब वो खेती पूरी तरह से नहीं करते हैं तो वो खाते क्या हैं और कैसे जीते हैं. इस सवाल के जवाब में बुध्दुराम कहते हैं कि सरकार से 35 किलो राशन मिलता है. आमतौर पर वो नमक के साथ चावल खाते हैं. कभी कभी लॉकी या कद्दू के साथ भी चावल खाते हैं.
वो कहते हैं कि जंगल से अभी भी वो अलग अलग सीज़न में फल खाते हैं. उनके आस-पास के जंगल में आम, चिरौंजी, महुआ जैसे फल मिलते हैं. इसके अलावा जंगली कांदा भी मिल जाता है जो लगभग हर मौसम में उपलब्ध होता है.
उनका कहना था कि जब पहले चावल उनके खाने में शामिल नहीं था तो कांदा खा कर ही वो जी लेते थे.
ठिर्रीआमा के सभी परिवारों के पास तीर कमान मौजूद है. इन लोगों का निशाना भी कमाल का है. लेकिन अब ये तीर कमान इनके घरों में पुरखों की निशानी के तौर पर ही रखा है.
इस गाँव का एक लड़का राजू जो कांदा खोद कर जंगल से लौटा है, कांदा उबाल कर खाता है और हमें भी खिलाता है. मैंने उससे पूछा कि वो इतने अच्छे तीर चलाते हैं, तो जंगल से शिकार क्यों नहीं करते?
राजू कहते हैं कि उनकी याद में तो जंगल में कोई शिकार के लिए गया नहीं है. सुना है पहले उनके पुरखे जंगल में ही घूमते रहते थे और शिकार भी करते थे. जंगल में तो उनके गाँव के लोग अब भी घूमते हैं लेकिन शिकार ना तो मिलता है और ना ही वो शिकार ढूँढते हैं.
उनका कहना है कि पहले उनके पुरखे जंगल में मौसम और ज़रूरत के हिसाब से जंगल में घूमते रहते थे. अब एक जगह बस गए हैं, उनकी बस्ती के आप-पास के जंगल में अब जानवर नहीं मिलते हैं.
कभी कभी भालू जैसा जानवर बस्ती की तरफ़ आ जाता है या जंगल में मिल जाता है तो तीर कमान उसे डराने के काम ज़रूर आ जाता है. वो बताते हैं कि जंगल में आम या महुआ जैसे फल तो होते हैं, लेकिन इतने नहीं कि उन्हें जमा करके बेच कर पैसा कमाया जा सके.
राजू बताते हैं कि उनकी बस्ती के कुछ लोग जिनमें वो भी शामिल हैं कभी कभी लालपुर ब्लॉक मज़दूरी के लिए जाते हैं. वहाँ वो मनरेगा (MNREGA) में काम करते हैं. लेकिन कभी कभार ही उन्हें काम मिलता है.
अब यह तर्क दिया जा सकता है कि सरकार ने इन आदिवासियों को ज़मीन दी है. अगर वो फिर भी खेती ना करें तो सरकार का क्या दोष. लेकिन सवाल यहाँ किसी को दोष देने का नहीं है. ये आदिवासी बातचीत में सरकार या किसी और को दोष देते भी नहीं हैं.
मसला ये है कि अभी तक इन आदिवासियों को स्थायी खेती करना क्यों ज़रूरी है, यह समझाया ही नहीं जा सका है. इन आदिवासियों को आलसी घोषित करने से पहले यह समझना होगा कि इन आदिवासियों ने सदियों एक ख़ास तरह से खानाबदोश की ज़िंदगी जी है.
उसे यह सीखने में लंबा समय लगेगा कि आधुनिक कहे जाने वाले समाज के उत्पादन के साधन क्या हैं और क्यों ज़रूरी हैं.
मुझे लगता है कि इन आदिवासियों को ज़मीन दे कर ये मान लिया गया कि अब ये खेती करने लगेंगे. लेकिन खेती करने या फिर एक स्वस्थ ज़िंदगी जीने के लिए इनको मोटिवेट करने का जो काम लंबा समय लगा करना चाहिए था, वो नहीं किया गया है.
2011 की जनगणना में इस गाँव की कुल आबादी 149 है और यहाँ सिर्फ़ पहाड़ी कोरवा आदिवासी ही रहते हैं. लेकिन इस संख्या पर भरोसा करना थोड़ा मुश्किल है.
क्योंकि इस गाँव में हमने पूरा दिन बिताया. लेकिन हमें नहीं लगा कि इस गाँव की इतनी आबादी होगी. लेकिन इस बात को मैं पूरे दावे के साथ नहीं कह सकता.
क्योंकि इस गाँव में एक भी आदमी ऐसा नहीं मिला जो अंदाज़े से भी बता सके कि इस गाँव में कुल कितने लोग रहते हैं. यहाँ तक कि इस गाँव में अपनी सही सही उम्र बताने वाला भी कोई नहीं मिला.
मसलन बुद्धुराम ने हमें बताया कि उनके बेटे की मौत हो गई है. मैंने उनसे पूछा कि उनके बेटे की उम्र कितनी रही होगी तो वो अंदाज़े से कहते हैं कि उनके बेटे की उम्र रही होगी 40-50 और अपनी उम्र का अंदाज़ा लगा कर वो 60 बताते हैं.
इस बस्ती के पहाड़ी कोरवाओं से मिल कर हमें अहसास हुआ कि इन आदिवासियों में शायद ही कोई 50-60 की उम्र तक भी जीता है.
ठिर्रीआमा में हमने एक ऐसे समुदाय को देखा जो तेज़ी से अपनी मौत की तरफ़ बढ़ रहा है. इस बात का उनको पता भी है जिन पर इस मौत को टालने की ज़िम्मेदारी है. लेकिन वो इसे टाल नहीं रहे हैं.