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भाषा वॉलेंटियर्स : आदिवासी बच्चों और आधुनिक शिक्षा के बीच का पुल है

“आदिम जनजाति के बच्चों की अपनी भाषाएँ हैं. मसलन कुई, कोंडा या गडबा भाषा में सोचते और बात करते हैं. जबकि स्कूल में अंग्रेज़ी और तेलगू मीडियम में पढ़ाते हैं. इसलिए यह बहुत ज़रूरी है कि आदिम जनजाति के बच्चों को तेलगू और अंग्रेज़ी भाषा सिखाई जाए. यही काम भाषा वॉलेंटियर करते हैं. भाषा वॉलेंटियर कक्षा 1 से 3 तक के बच्चों को तेलगू और अंग्रेज़ी सीखाते हैं. इससे बच्चों को पढ़ने और सीखने में आसानी होती है.”

सुबह साढ़े 6 बजे बोरीगुड़ा में औरतें खाना बनाने में जुट गई हैं. साफ़ सुथरे आँगन में बने मिट्टी के चूल्हे पर भात चढ़ा दिया गया है. आँगन, चूल्हे और चूल्हे पर चढ़ाए गए बर्तनों की चमक देख कर अंदाज़ा होता है कि ये आदिवासी साफ़ सफ़ाई पर काफ़ी ध्यान देते हैं. यहाँ खाने में भात एक ज़रूरी हिस्सा है. उसके साथ दाल या कोई सब्ज़ी बनाई जाती है. आमतौर पर दाल या सब्ज़ी को सिर्फ़ उबाल कर खाया जाता है. 

तेल का इस्तेमाल यहाँ के आदिवासी ना के बराबर करते हैं. रात के बचे हुए भात को रागी के आटे के साथ उबाल कर भी सुबह के खाना तैयार किया जाता है. अगर आप इस आदिवासी गाँव को देखेंगे तो किसी भी भारतीय गाँव की तरह ही औरतों की सुबह सबसे पहले शुरू होती है.

वो खाना बनाने से पहले घर की साफ़ सफ़ाई करती हैं. जब गाँव के मर्द दातुन मंजन करते या फिर बेवजह इधर उधर टहलते दिखाई देते हैं उस समय ये औरतें काम में जुटी रहती हैं. 

इस गाँव में कुल 94 परिवार हैं. गाँव की यह आम सुबह है लेकिन एक बात थोड़ी सी अलग है कि बच्चे गाँव में ही खेल रहे हैं. आमतौर पर इस समय बच्चों को स्कूल जाने के लिए तैयार होना चाहिए. गाँव के लोगों ने बताया कि फ़िलहाल छुट्टी चल रही हैं. 

गडबा आदिवासियों के इस गाँव में एक प्राइमरी स्कूल है जिसमें एक टीचर और एक भाषा वॉलेंटियर है. साल 2005 में सरकार ने आरकु घाटी के आदिम जनजाति इलाक़ों के स्कूलों में 700 भाषा वॉलेंटियर नियुक्त किए थे.

आंध्र प्रदेश के स्कूलों में पढ़ाई-लिखाई तेलगु या अंग्रेज़ी मीडियम में होती है. आदिम जनजाति के बच्चों को इन दोनों ही भाषाओं में पढ़ने और सीखने में परेशानी होती है. भाषा वॉलेंटियर इस परेशानी को दूर करने के लिए एक ज़रूरी कदम था. 

आदिवासी इलाक़ों में स्कूल ड्रॉप आउट रेट कम करना चुनौती है.

गिरिजन संघम नाम के आदिवासी संगठन के नेता सुरेन्द्र किल्लो इस बारे में कहते हैं, “आदिम जनजाति के बच्चों की अपनी भाषाएँ हैं. मसलन  कुई, कोंडा या गडबा भाषा में सोचते और बात करते हैं. जबकि स्कूल में अंग्रेज़ी और तेलगू मीडियम में पढ़ाते हैं. इसलिए यह बहुत ज़रूरी है कि आदिम जनजाति के बच्चों को तेलगू और अंग्रेज़ी भाषा सिखाई जाए. यही काम भाषा वॉलेंटियर करते हैं. भाषा वॉलेंटियर कक्षा 1 से 3 तक के बच्चों को तेलगू और अंग्रेज़ी सीखाते हैं. इससे बच्चों को पढ़ने और सीखने में आसानी होती है.”

भाषा वॉलेटिंयर्स की मदद से बच्चे जब तेलगू या अंग्रेज़ी सीखते हैं तो उनमें आत्मविश्वास बढ़ता है और उनके लिए सीखना आसान होता है. आदिम जनजातियों के बच्चों को स्कूल तक लाना और उन्हें स्कूल से ड्रॉप आउट ना होने देना एक बड़ी चुनौती रही है. भाषा वॉलेंटियर्स की नियुक्ति इस दिशा में निश्चित ही एक अच्छी शुरूआतें थी. बोरीगुड़ा के स्कूल में भाषा वॉलेंटियर से हमारी मुलाक़ात भी हुई.

इनका नाम किल्लो स्वामी है और उन्होंने बी.एड. भी किया हुआ है. इस लिहाज़ से वो टीचर के पद के लिए पूरी तरह से क्वालीफ़ाई करते हैं. वो कहते हैं, “हम गडबा बच्चों को तेलगू और अंग्रेज़ी सीखाने की कोशिश करते हैं. मसलन हम उन्हें किताब में तस्वीरें दिखाते हैं और फिर उन्हें बताते हैं कि उस तस्वीर में जो चीज़ दिखाई दे रही है उसे तेलगु या अंग्रेज़ी में क्या कहा जाता है. इस काम के लिए कुछ किताबें भी प्रकाशित की गई हैं जो बच्चों को दी जाती है. अब जैसे हम बच्चों को बताते हैं कि पेड़, जंगल या मिट्टी या फिर आम को हम अपनी भाषा में कुछ और कहते हैं लेकिन तेलगू और अंग्रेज़ी में उसे क्या कहा जाता है.”

गड़बा आदिवासियों में साक्षरता दर 25 से 30 प्रतिशत के क़रीब बताई जाती है. हालाँकि ज़मीन पर काम करने वाले कार्यकर्ता तो इन आँकड़ों पर भी सवाल उठाते हैं. पीवीटीजी यानि विशेष रुप से पिछड़े आदिवासी समुदायों के लिए अलग से स्कूल बनाए गए हैं.

लेकिन इन स्कूलों में सबसे बड़ी चुनौती है ऐसे टीचर ढूँढने जो इन समुदायों की मातृभाषा को समझते हों. आंध्र प्रदेश में भाषा वॉलेंटियर्स की नियुक्ति किसी हद तक इस चुनौती का तोड़ ढूँढने की दिशा में एक कोशिश लगती है. लेकिन अफ़सोस सरकार ने अपनी ही एक अच्छी कोशिश से कदम पीछे खींच लिए हैं. 

अब राज्य सरकार ने भाषा वॉलेंटियर्स की नियुक्ति बंद कर दी है. इस इलाक़े के आदिवासी संगठन सरकार से माँग कर रहे हैं कि भाषा वॉलेंटियर्स की नियुक्ति ना रोकी जाए. सुरेन्द्र किल्लो कहते हैं, “2005 में सरकार ने 700 भाषा वॉलेंटियर नियुक्त किए थे. लेकिन अब नए भाषा वॉलेंटियर नहीं लगाए जा रहे हैं. हम चाहते हैं कि सरकार बाक़ी स्कूलों में भी भाषा वॉलेंटियर की नियुक्ति करे. इसके अलावा भाषा वॉलेंटियर को मात्र 5000 रुपए दिए जाते हैं. हमारी माँग है कि उन्हें बाक़ायदा टीचर की तरह वेतन दिया जाना चाहिए.”

किल्लो स्वामी ने बताया कि राज्य सरकार उन्हें दिहाड़ी मज़दूर भी नहीं समझती है. एक तो उन्हें वेतन बेहद कम दिया जाता है उपर से साल में कई महीने के लिए उन्हें ब्रेक भी दे दिया जाता है. जबकि उनका काम किसी टीचर के काम से कम मेहनत का नहीं है.

बल्कि कई मामलों में तो उन्हें टीचर्स से ज़्यादा मेहनत करनी पड़ती है. वो कहते हैं, “ जब आप बच्चों से उनकी मातृ भाषा में बात करते हैं तो बच्चों को सीखना आसान होता है. वो स्कूल आने से डरते नहीं हैं. इससे बच्चों का ड्रॉप आउट रेट भी कम होता है.”

उन्होंने मैं भी भारत की टीम को बताया कि इस सिलसिले में भाषा वॉलेंटियर्स ने आंदोलन किया है. इसके अलावा उनका संगठन में एक दिन की हड़ताल कर चुका है. लेकिन उसके बावजूद सरकार ने अभी तक इस मामले में कोई कदम नहीं उठाया है. 

भाषा वॉलेंटियर्स की स्थिति और उनकी जीविका का मसला एक सवाल है. लेकिन हमें लगा कि भाषा वॉलेंटियर्स एक अबूझ पहेली का जवाब पेश करते हैं. हमने ओडिशा के मयूरभंज में देखा था कि आदिवासी बच्चों के लिए बनाए गए स्कूल में पीवीटीजी समुदाय की मातृभाषा में पढ़ाने वाले टीचर नहीं मिलते हैं. क्योंकि इन समुदायों में इतना पढ़ा लिखा कोई है ही नहीं. तो इस समस्या को भाषा वॉलेंटियर्स की नियुक्ती सुलझा सकती है.

इस बात पर एक आम सहमति है कि अगर बच्चों को उनकी मातृभाषा में पढ़ाया जाए तो वो जल्दी सीखते हैं. इसके अलावा बच्चों में आत्मविश्वास बढ़ता है और स्कूल से भागते नहीं हैं. 

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