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आश्रम स्कूलों में आदिवासी छात्रों की मौत और शोषण का जवाबदेह कौन ?

आश्रम स्कूलों में बच्चों की मौत या यौन शोषण की घटनाएँ स्कूलों से आदिवासी समुदाय का भरोसा तोड़ देती हैं. जब तक स्कूलों में आदिवासी बच्चे सुरक्षित नहीं होंगे, इस आबादी में शिक्षा का स्तर उठाने का लक्ष्य हासिल करना कठिन होगा.

5 अक्टूबर 2022 को ओडिशा के कंधमाल ज़िले में आदिवासी लड़कियों के आश्रम स्कूल में कक्षा 7 में पढ़ने वाली बच्चे ने एक मृत बच्चे को जन्म दिया. उसके अगले दिन बात उस लड़की की भी मौत हो गई. इससे पहले 2 सितंबर को मलकानगिरी के एक हॉस्टल में अज्ञात बीमारी की वजह से दो छात्रों की मौत हो गई. इस घटना से घबरा कर इस स्कूल के हॉस्टल में रहने वाले सभी 182 छात्र हॉस्टल छोड़ कर भाग खड़े हुए.

पिछले महीने यानि अगस्त में मलकानगिरी के एक आश्रम स्कूल में 10वीं क्लास में पढ़ने वाली एक छात्रा को गर्भवती पाया गया था. ये दो-तीन घटनाएँ हैं जो हाल ही में सामने आई हैं. लेकिन आदिवासी इलाक़ों में चलने वाले आश्रम स्कूलों से ये ख़बरें बराबर आती रहती हैं. 

ओडिशा के आश्रम स्कूलों में हुई ये घटनाएँ इन स्कूलों और इन्हें चलाने वाली व्यवस्था में भरोसा हिला देती हैं. आदिवासी इलाक़ों में शिक्षा के क्षेत्र में मौजूद गैप को कम करने के लिए आश्रम स्कूलों की शुरुआत की गई थी. 

लेकिन जब इन स्कूलों से छात्रों की मौत और लड़कियों के यौन शोषण की ख़बर आती हैं तो आदिवासी समुदाय में इन ख़बरों का प्रभाव होता होगा. ओडिशा में बाल विवाह को रोकने के लिए काम कर रहे सामाजिक कार्यकर्ता कहते हैं, “इस तरह की घटनाओं से स्कूलों पर आदिवासी बच्चों और माँ-बाप का भरोसा उठ जाता है. उसका सीधा प्रभाव होता है ड्रॉप आउट रेट बढ़ जाता है.”

घासीराम आगे कहते हैं, “यह समझना बेहद ज़रूरी है कि यह आदिवासियों की पहली पीढ़ी है जो स्कूल पहुँची है. आदिवासी बच्चों को स्कूल तक लाना ही एक चुनौती है. अगर बच्चे स्कूल में सुरक्षित महसूस नहीं करेंगे तो फिर उन्हें स्कूल में रोकना मुश्किल होगा. इसके साथ ही बाक़ी आदिवासी बच्चे भी स्कूल नहीं आना चाहेंगे.”

आश्रम स्कूलों के हालात

18 फ़रवरी 2018 को हेमानंद बिस्वाल की अध्यक्षता वाली संसदीय स्थाई समिति ने आश्रम स्कूलों की स्थिति के बारे में एक रिपोर्ट पेश की थी. इस रिपोर्ट में कमेटी ने आश्रम स्कूलों को आदिवासी इलाक़ों में शिक्षा के प्रसार के लिए ज़रूरी और अच्छा कदम बताया.

लेकिन कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में इन स्कूलों की दयनीय हालात भी बयान किये. कमेटी ने पाया कि आश्रम स्कूलों में बेहद घटिया खाना परोसा जाता है. जिसकी वजह से अक्सर बच्चे बीमार हो जाते हैं. इसके बाद कमेटी ने यह भी पाया कि स्कूलों के हॉस्टल में छात्रों के हिसाब से जगह कम है. एक कमरे में सीमा से अधिक छात्रों को रखा जाता है.

इसी रिपोर्ट में यह तथ्य भी दर्ज किया गया है कि आश्रम स्कूलों में बच्चों की मौत एक बड़ा मसला है. कमेटी ने अपनी पड़ताल में पाया कि अभी भी आदिवासी इलाक़ों में स्कूल ड्रॉप आउट रेट बहुत ज़्यादा है. कमेटी ने बताया कि 55 प्रतिशत आदिवासी बच्चे प्राइमरी स्तर पर ही स्कूल छोड़ देते हैं. 

जो बच्चे सेकेंडरी स्तर तक पहुँच पाते हैं उनमें से 71 प्रतिशत छात्र ड्रॉप आउट हो जाते हैं. राष्ट्रीय स्तर पर स्कूल ड्रॉप आउट रेट से तुलना की जाए तो आदिवासी इलाक़े की स्कूल ड्रॉप आउट रेट 22 प्रतिशत ज़्यादा है. 

आश्रम स्कूलों के हालात सुधारने के लिए क्या हुआ

यह बात तो बिलकुल साफ़ है कि आश्रम स्कूलों में छात्रों को सुरक्षित माहौल नहीं मिल पा रहा है. ख़ासतौर से लड़कियों के यौन शोषण के मामले परेशान करने वाले हैं. लड़कियों के स्कूलों के सिलसिले में ज़्यादा चिंता की बात ये है कि यहाँ पर यौन शोषण की घटनाएँ कम होने की बजाए बढ़ रही हैं. 

यह भी बात स्पष्ट है कि यह बात संसद, राज्य सरकार, मीडिया और समाज सब जानते हैं. ऐसा नहीं है कि इन हालातों को समझने और उनके समाधान के प्रयास नहीं हुए हैं. ओडिशा के मामले में ही देखें तो आश्रम स्कूलों में छात्र-छात्राओं को सुरक्षित वातावरण देने के कई उपाय किये गए हैं. इस सिलसिले में कई गाइडलाइन्स मौजूद हैं. 

कुछ बड़े कदम जो सरकार ने उठाए हैं उनमें 17 फ़रवरी 2013 को आश्रम स्कूलों और उनसे जुड़े हॉस्टल के लिए गाइड लाइन जारी की गईं. इन गाइडलाइन्स में बताया गया है कि किसी भी सूरत में लड़कियों के हॉस्टल में किसी पुरूष को रुकने की अनुमति नहीं होगी. यहाँ तक कि स्कूल का हेड मास्टर भी हॉस्टल में नहीं रूक सकते हैं.

इसके अलावा हॉस्टल में एक रजिस्टर रखने की व्यवस्था बताई गई है. जिसमें हर आने जाने वाले का नाम और पता दर्ज करना अनिवार्य है. इन गाइडलाइन्स में अधिकारियों की भूमिका और स्कूलों के निरीक्षण का प्रावधान किया गया है.

हॉस्टल में रहने वाले छात्रों के रेगुलर हेल्थ चेकअप को अनिवार्य बताया गया है. साल 2014 में ओडिशा प्रशासन ने हॉस्टल के मेस से जुड़ी कुछ और गाइडलाइन्स जारी की थी. उसके अलावा दिसंबर 2014 में ओडिशा सरकार की तरफ से कुछ और दिशानिर्देश जारी किये गए. इन दिशानिर्देशों में स्कूलों की सुरक्षा से जुड़े निर्देश और ज़िम्मेदारी दी गई थी. 

ओडिशा के अलावा महाराष्ट्र और दूसरे राज्यों में भी आश्रम स्कूलों के मसले भी सिर्फ़ सरकारों तक सीमित नहीं रहे हैं. इस तरह के मामले अदालतों तक पहुँचे हैं. मतलब ये है कि आश्रम स्कूलों में छात्रों के लिए असुरक्षित वातावरण और घटिया भोजन और दूसरी व्यवस्थाएँ कोई छुपी हुई बात नहीं हैं. 

घासीराम पांडा: सामाजिक कार्यकर्ता

आश्रम स्कूलों के हालात ना सुधरने की वजह क्या है

आदिवासी इलाक़ों में चलने वाले आश्रम स्कूलों में माहौल सुरक्षित नहीं है यह बात केन्द्र सरकार और राज्य सरकार जानती हैं. इस बात पर एक व्यापक चिंता भी नज़र आती है. लेकिन फिर भी हालात बदलते क्यों नहीं हैं.

यह सवाल हमने ओडिशा में बाल विवाह और बच्चों के अधिकारों पर काम करने वाले घासीराम के सामने रखा. उनका कहना था, “आश्रम स्कूलों के आदिवासी बच्चों से भी समाज के अन्य तबकों के बच्चों की तरह ही यह उम्मीद नहीं की जानी चाहिए कि वो अपने अधिकारों के लिए लड़ेंगे. इसके अलावा आदिवासी बच्चों के माँ बाप भी बच्चों के अधिकारों को समझ नहीं पाते हैं. लेकिन अफ़सोस कि स्कूल, प्रशासन और समाज भी इस बात को नहीं समझता है. “

वो कहते हैं, “अधिकारियों और स्कूल को यह समझना चाहिए कि वो आदिवासी बच्चों पर अहसान नहीं करते हैं. आदिवासी बच्चों को क़ानूनी अधिकार हासिल है. बल्कि इस देश के हर बच्चे की शिक्षा और सुरक्षा की गारंटी क़ानून देता है. यह बात अधिकारियों को समझनी है कि यह उनका कर्तव्य है कि वो बच्चों को एक सुरक्षित माहौल प्रदान करें.”

आश्रम स्कूलों में आदिवासी लड़कियों के यौन शोषण, छात्रों की मौत और संसाधनों की कमी की तह में जितना गहरे उतरते हैं, उतनी ही ज़्यादा निराशा होती है. इसके कई कारण नज़र आते हैं. लेकिन इसका सबसे बड़ा कारण नज़र आता है संवेदनशीलता की कमी और आदिवासी और दूसरे वंचित तबकों के प्रति पूर्वाग्रह और ग़लत धारणाएँ. 

यह देखा जाता है कि जब किसी आश्रम स्कूल में किसी लड़की के यौन शोषण या फिर उसी की उम्र के लड़के के साथ प्रेम संबंध की वजह से वो गर्भवती हो जाती है तो लड़की या फिर आदिवासी समाज को ही कोसना शुरू कर दिया जाता है.

यह करते हुए स्कूल, समाज या प्रशासन यह भूल जाता है कि वो बच्चों के बारे में बात कर रहे हैं. उस उम्र में जब बच्चे बड़े हो रहे होते हैं, उनमें सेक्स के प्रति एक स्वभाविक आकर्षण होता है. यह किसी भी जाति या वर्ग के बारे में एक जैसा ही होता है. 

यहाँ यह समझने की ज़रूरत है कि अगर कोई आदिवासी लड़की इतनी कम उम्र में गर्भवती हो रही है तो उसे दोष देने से बात नहीं बनेगी. बल्कि उसके उम्र के बच्चों को स्कूलों में प्रजनन और जीवन के बारे में पढ़ाए और बताए जाने की ज़रूरत है.

ओडिशा के आदिवासी इलाक़ों के स्कूलों में संयुक्त राष्ट्र संघ की मदद से लाइफ़ स्किल के लिए कार्यक्रम चलाए जाते हैं. लेकिन ऐसा लगता है कि ये कार्यक्रम भी जितनी संजीदा तरीक़े से चलाए जाने चाहिएँ, नहीं चलाए जा रहे हैं. 

(इस स्टोरी में इस्तेमाल की गई तस्वीर प्रतीक के लिए है.)

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