HomeIdentity & Lifeकस्टमरी लॉ में बदलाव का बढ़ता दबाव और महिला प्रतिनिधित्व का सवाल

कस्टमरी लॉ में बदलाव का बढ़ता दबाव और महिला प्रतिनिधित्व का सवाल

पूर्वोत्तर के तीन राज्यों- त्रिपुरा, नागालैंड और मेघालय में विधानसभा और जिला परिषज दोनों जगह महिलाओं की हिस्सेदारी बहुत कम है. बहुमुखी गतिशीलता होने के बाद भी, इन क्षेत्रों की महिलाओं को बड़े पैमाने पर बाधाओं का सामना करना पड़ता है.

पूर्वोत्तर (North East) के राज्य मेघालय (Meghalaya) में आदिवासी समुदायों (Tribal Societies) को नियंत्रित करने वाले स्थानीय निकायों के चुनावों (Local Body Polls) में महिलाओं को प्रतिनिधित्व (Women Representation) देने के मामले में अदालत ने कोई आदेश थोपने से मना कर दिया है.

हाईकोर्ट ने कहा कि आदिवासी जिला परिषदों (Tribal District Councils) में महिलाओं को समान अधिकार देने का बदलाव समुदाय के भीतर से आना चाहिए. अदातलत ने इस मामले में समाज को कुछ सलाह अवश्य दी है, लेकिन कोई आदेश पास करने से खुद को रोक लिया.

मेघालय हाईकोर्ट (Meghalaya High Court) में एक महिला अनिता सिनरेम ने याचिका दायर की थी. याचिका में उन्होंने आदिवासी महिलाओं के लिए ऐसे स्थानीय निकायों के चुनावों में भाग लेने और स्वायत्त जिले में प्रमुख पदों पर चुने जाने के लिए समान अधिकार की मांग की थी.

हाईकोर्ट में चीफ जस्टिस संजीब बनर्जी और जस्टिस डब्ल्यू डेंगदोह की पीठ ने इस याचिका पर सुनवाई करते हुए ये टिप्पणी दी.

याचिका में बताया गया कि कुछ मौजूदा कानून महिलाओं को इन चुनाव प्रक्रिया में भाग लेने और कुछ प्रमुख पदों पर अपनी उम्मीदवारी की पेशकश करने से रोकते हैं. वहीं खासी हिल स्वायत जिला परिषद ने अदालत में दावा किया कि समाज में बदलाव की सुखद हवा चल रही है.

उनके अनुसार महिलाएं चुनाव प्रक्रिया में भाग लेने में रुचि रखती हैं. लेकिन कई क्षेत्रों में महिलाएं खुद जिम्मेदार पदों को लेने की इच्छुक नहीं हैं. हालांकि, मोटेतौर पर महिलाएं चुनाव प्रक्रिया में भाग लेने की इच्छुक हैं.

मामले पर सुनवाई के दौरान पीठ ने इसे संवेदनशील मामला बताया. पीठ ने कहा कि यह नाजुक मामला है, क्योंकि इसमें समुदायों के प्रथागत कानून शामिल हैं. संविधान की छठी अनुसूची में यह अनिवार्य है कि सदियों से चले आ रहे प्रथागत कानून और प्रथाएं प्रचलित रहेंगी.

लेकिन वहीं दूसरी ओर संविधान में भारतीय नागरिकों के लिए जो मूल अधिकार बनाए गए हैं, वे छठी अनुसूचि के संचालन से निलंबित नहीं रहेंगे.

इन नाजुक पहलुओं को ध्यान में रखते हुए न्यायालय ने इस मामले पर निर्णय लेने का फैसला परिषद के बुजुर्गों पर छोड़ दिया. इसके साथ ही अदालत ने ये आशा जताई कि परिषद के बुजुर्ग इस बदलाव के लिए कदम उठाएंगे.

हालांकि, अदालत ने कहा, “स्त्री और पुरूष के बीच समानता भारत के संविधान के भाग III यानी मौलिक अधिकार का प्रमुख पहलू है. इस भाग के तहत दिए गए अधिकार से किसी भी भारतीय नागरिक को वंचित नहीं किया जा सकता है.”

सुनवाई के दौरान अदालत ने कहा कि मेघालय में आदिवासी समुदायों को आदिम नहीं माना जा सकता है. क्योंकि ये लगभग मुख्यधारा का हिस्सा बन चुकी है. इन समुदायों को उपभोग की वस्तुए और संसाधन सब कुछ उपलब्ध है. जैसे इंटरनेट, मोबाइल नेटवर्क और संचार के दूसरे साधन.

हालांकि राज्य में शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी है, लेकिन यहां के निवासियों को अब आदिम नहीं माना जा सकता है.

अदालत ने आगे कहा, ” इसमें कोई संदेह नहीं कि परिषद के बुजुर्ग बदलाव की दिशा में तेजी से कदम बढ़ाएंगे. इस राज्य ने हाल के दिनों ऐसे समाज को संगठित किया है, जो प्रगति, विकास और समृद्धि के अनुरूप है.”

मेघालय में साल 2024 में जिला परिषद के चुनाव होने है. ऐसे में अदालत की पीठ ने इन चुनावों को देखते हुए निकायों से पुराने रीति-रिवाजों के अवांछनीय पहलुओं पर गौर करने का आग्रह किया.

पीठ ने यह आशा जताई कि कहीं और से तय किए जाने के बजाय याचिकाकर्ता द्वारा वांछित परिवर्तन जल्द ही समुदाय के भीतर से आएंगे. इसके बाद पीठ ने कोई आदेश दिए बिना ही इस मामले का निस्तारण कर दिया.

मेघालय में सिर्फ जनजातीय जिला परिषद ही नहीं बल्कि विधानसभा चुनावों में भी महिलाओं की हिस्सेदारी काफी कम है.

जनजातीय समुदायों में महिलाओं के प्रतिनिधित्व का सवाल किसी एक राज्य तक सीमित नहीं है. हाल ही में तीन आदिवासी बहुल राज्यों में विधानसभा के चुनाव हए – त्रिपुरा, नागालैंड और मेघालय. इन तीनों राज्यों में विधानसभा और जिला स्तर दोनों जगह महिलाओं की हिस्सेदारी ना के बराबर है.

जहां उत्तर भारत में पितृसत्तामक समाज है तो वहीं पूर्वोत्तर राज्यों में मातृस्तामक प्रणाली देखने को मिलती है. यहां बच्चों को अपनी मां का उपनाम दिया जाता हैं, शादी के बाद पति अपनी पत्नियों के घरों में रहते हैं और सबसे छोटी बेटियों को पारिवारिक संपत्ति विरासत में मिलती है.

ऐसे में ये माना जाता रहा है कि खासी महिलाओं की शिक्षा तक पहुंच, संपत्ति का स्वामित्व, उनके परिवार और समाज में उन्हें अधिकार हासिल है. वे अपने परिवारों के मुखिया हैं और तय करती हैं कि क्या किया जाना चाहिए या नहीं आदि.

लेकिन इसके बावजूद पारंपरिक ग्राम स्तरीय संस्थानों जैसे खासी जनजाति का दोरबार शोंगों – में महिलाओं को चुनाव लड़ने की अनुमति नहीं दी गई है. यहां तक की उनकी बैठकों में भी महिलाएं हिस्सा नहीं ले सकती है. माना जाता है कि इन संस्थानों की शक्तिशाली स्थिति को देखते हुए, ज्यादातर महिलाएं उनके खिलाफ खुलकर बोलने से कतराती हैं.

बदलाव की शुरूआत

हालांकि इस तरह कि रिपोर्ट्स भी सामने आई है कि अब इस समाज में भी बदलाव आ रहा है. अब महिलाएं दोरबार में हिस्सा लेने लगी है. लेकिन प्रतिनिधित्व की बात करें तो अभी भी ज्यादा कुछ बदलता नजर नहीं आता है.

राज्य में गरीबी से लेकर अपने पुरुष सहयोगियों द्वारा छोड़े जाने तक, ज्यादातर महिलाओं को कई समस्याओं का सामना करना पड़ता है. जानकारों के मुताबिक मेघालय में बहुत सारी सिंगल मदर्स हैं. और उनके पास ज्यादा रास्ते नहीं हैं. यहां तक की लड़कियां भी स्कूल छोड़ देती हैं. ऐसे में महिलाओं को उनके जीवन पर स्वायत्तता और अधिकार के लिए राजनीतिक प्रतिनिधित्व और नियंत्रण ज़रूरी है.

उधर नागालैंड से गुरुवार को एक बड़ी खबर सामने आई. नागालैंड में अब शहरी स्थानीय निकाय चुनाव में महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण मिलेगा. ये पहली बार होगा जब इस साल मई में इन चुनावों में महिलाएं भी दावेदारी पेश कर सकेंगी. राज्य में महिला आरक्षण को लेकर कई आदिवासी संगठनों लगातार विरोध जता रहे थे. इन संगठनों का कहना था कि आरक्षण संविधान के अनुच्छेद 371 (ए) के तहत नागालैंड को मिले विशेष अधिकारों का उल्लंघन करता है. इस विरोध के चलते राज्य में हिंसा भी भड़क गई थी.

नागालैंड मदर्स एसोसिएशन और महिला आरक्षण के लिए संयुक्त कार्य समिति जैसे महिला समूहों ने गुवाहाटी उच्च न्यायालय और बाद में सर्वोच्च न्यायालय में राज्य विधानसभा के फैसले को चुनौती दी, जिसने महिलाओं की भागीदारी के अधिकार को बरकरार रखा.

पारंपरिक नागा कानून स्पष्ट रूप से लैंगिक भूमिकाओं और लैंगिक जिम्मेदारियों को परिभाषित करता है. जहां पुरुष सामाजिक मुद्दों से निपटते हैं, जिसमें ग्राम प्रशासन और परिषद शामिल हैं. तो वहीं महिलाएं घरेलू मुद्दों की प्रभारी हैं और उन्हें सार्वजनिक कार्यालय से बाहर रखा गया है.

विधानसभा चुनावों में भी महिलाओं के प्रतिनिधित्व में कमी

वहीं विधानसभा चुनावों की बात करें तो मेघालय में इस बार के चुनावों में 36 महिला उम्मीदावर मैदान में थी. लेकिन इनमें से सिर्फ 3 महिलाओं ने इन चुनावों में जीत दर्ज की है. वहीं नागालैंड में इस बार 4 महिलाएं चुनाव मैदान में थी. जिसमें से 2 महिलाओं ने चुनाव जीतकर इतिहास रच दिया. जबकि त्रिपुरा में 20 महिलाओं ने चुनावी दावेदारी पेश की थी. इनमें से 6 महिलाओं ने जीत दर्ज की.

बड़ी तस्वीर देखे तो पता चलता है कि महिलाओं के प्रतिनिधित्व की स्थिति में मुश्किल से सुधार हुआ है. मेघालय, त्रिपुरा और नागालैंड में प्रमुख दलों द्वारा क्रमशः 7%, 13% और 4% उम्मीदवार महिलाएं थीं. यह कोई नई घटना नहीं है.

ऐतिहासिक डेटा इन तीन राज्यों में महिलाओं के बहिष्कार की सीमा को दर्शाता है.मेघालय और त्रिपुरा में, 1960 के दशक की शुरुआत से चुनाव लड़ने वाले सभी उम्मीदवारों में महिलाओं की संख्या केवल 5% है. 1964 के बाद से नागालैंड में राज्य चुनाव लड़ने वाले 2508 व्यक्तियों में से केवल 24 महिलाएं थीं.

पूर्वोत्तर भारत की महिलाओं को अक्सर स्वतंत्र पाया जाता है, क्योंकि वे रोजगार के अपने स्वयं के रास्ते खोजने में सक्षम हैं. इन महिलाओं के पास बुनाई, मछली पकड़ने, खेती और हस्तशिल्प जैसे प्राथमिक कौशल होता है.

पिछले कुछ वर्षों में पूर्वोत्तर की महिलाओं ने बॉक्सिंग, भारोत्तोलन, कुश्ती आदि प्रमुख पुरुषों के वर्चस्व वाले खेलों में भी अच्छा प्रदर्शन किया है. इस क्षेत्र की महिलाओं ने ओलंपिक, राष्ट्रमंडल खेलों में अंतरराष्ट्रीय पदक जीतकर देश का नाम रोशन किया है.

2011 की जनगणना में पूर्वोत्तर भारत की महिला साक्षरता दर 59.94% दर्ज की गई. लेकिन बहुमुखी गतिशीलता होने के बाद भी, क्षेत्र की महिलाओं को बड़े पैमाने पर बाधाओं का सामना करना पड़ता है.

ऐसे में समानता,स्वतंत्रता और न्याय के युग में, इन क्षेत्र की महिलाओं की अपार क्षमता का एहसास करने के साथ-साथ महिलाओं के समग्र सशक्तिकरण के सच्चे एजेंडे को पूरा करने के लिए प्रथागत कानूनों पर सवाल उठाने की आवश्यकता है.

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