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पश्चिम बंगाल में ज़मीन बचाने के आंदोलन को कैसे आदिवासी औरतें बचा रही हैं

अपनी ज़मीन को बचाने के लिए समझदारी, संगठन और मज़बूती औरतों में ज़्यादा नज़र आ रही है. हमने आदिवासी भारत में यह महसूस किया है कि महिलाएँ अपने परिवार और समाज के मुद्दों की समझ बेहतर रखती हैं. इसके अलावा उनके इरादों को बदलवाना भी आसान नहीं होता है.

Deucha Panchami Coal Project : पश्चिम बंगाल सरकार के ख़िलाफ़ आदिवासी राजधानी कोलकाता में दस्तक दे चुके हैं. बुधवार को आदिवासी देउचा पचामी कोयला खादानों के मसले पर विरोध प्रदर्शन करने आए थे. उन्होंने अपने परंपरागत संगीत वाद्यों के साथ विरोध प्रदर्शन में हिस्सा लिया. लेकिन आज इस आंदोलन में शामिल लोगों से बातचीत में हमें एक बेहद रोचक जानकारी मिली है. 

इस जानकारी के अनुसार सरकार के ख़िलाफ़ चल रहे इस आंदोलन को बचाने के लिए औरतों ने नेतृत्व सँभालने का फ़ैसला किया है. MBB ने आंदोलन में शामिल कई नेताओं और कार्यकर्ताओं से बातचीत की है. 

इस बातचीत में पता चला है कि सरकार और प्राइवेट कंपनियों के प्रतिनिधी सीधे सीधे आदिवासियों को आंदोलन छोड़ने के लिए नहीं मना सके. इसलिए अब आंदोलन में शामिल लोगों को ख़रीदने और बहकाने की साज़िश की जा रही है.

इस काम के लिए पैसा और शराब का इस्तेमाल किया जा रहा है. आंदोलन में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेती आदिवासी औरतों में से एक फूलबनी पोरोन कहती हैं, “ हमारे समाज के मर्दों को शराब और पैसा दे कर बहकाया जा रहा है. आदमी लोग जल्दी ही बहक भी जाते हैं. उन्हें शराब पिला कर कहा रहा है कि वो अपने परिवार को आंदोलन में हिस्सा ना लेने दें.”

इसके अलावा यह भी ख़बर मिली है कि सरकार अब संताल आदिवासियों के आध्यात्मिक और सामाजिक मुखिया माँझी हड़ाम को भी प्रभावित कर आंदोलन को तोड़ने की कोशिश कर रही है. इस सिलसिले में फूलबनी कहती हैं, “अब हर दिन हमारे गाँव के माँझी हड़ाम गाँव के लोगों को आंदोलन में हिस्सा ना लेने की चेतानवी दे रहे हैं. क्योंकि सरकार उन पर तरह तरह से दबाव बना रही है.” 

आंदोलन का चेहरा बनती औरतें

आंदोलन में शामिल एक और महिला टेरेसा हंसदा कहती हैं, “यह हमारे पुरखों की ज़मीन है, इसे हम किसी क़ीमत पर नहीं छोड़ेंगे. क्योंकि अगर हमारी ज़मीन चली गई तो हम बर्बाद हो जाएँगे. हम या हमारे बच्चे तो पढ़े लिखे नहीं हैं कि हमें कोई काम मिल जाएगा, अगर विस्थापित हुए तो फिर तो भीख माँगने की नौबत आ जाएगी. “ 

वो आगे कहती हैं, “हम जानते हैं कि वो हमारे समाज के पुरुषों को दारू पिला कर हमारी एकता को भंग करना चाहते हैं. सरकार और कंपनी के लोग हमारे मर्दों को समझा रहे हैं कि ज़मीन के बदले में हमें और हमारे बच्चों को नौकरी और पैसा मिलेगा. इसके अलावा हमारे मर्दों को और कई तरह के प्रलोभन दिये जा रहे हैं.”

टेरेसा हंसदा कहती हैं, “हमारे परिवारों के कई मर्दों ने आंदोलन में आना छोड़ दिया है. या फिर उनमें वैसा उत्साह नहीं है. लेकिन हम जानती हैं कि ज़मीन की क़ीमत हमारे लिए क्या है. हम किसी भी सूरत में इस आंदोलन को टूटने नहीं देंगी.”

वो कहती हैं, “ अब हालत यह हो गई है कि परिवार के भीतर झगड़ा हो रहा है. औरतें कहती हैं कि आंदोलन जारी रखना होगा, मर्द कहते हैं कि ज़मीन का पैसा ले लिया जाए. लेकिन औरतें किसी भी सूरत में ज़मीन देने को तैयार नहीं हैं.”

फूलमनी कहती हैं कि, “मैं पढ़ी लिखी नहीं हूँ, लेकिन अपना परिवार मुझे ही चलाना पड़ता है. मैं यह जानती हूँ कि अगर पुरखों की यह ज़मीन चली गई तो फिर हम कहीं के नहीं रहेंगे. सरकार तो कंपनी का फ़ायदा देख रही है. हमारे फ़ायदे के लिए थोड़ी ज़मीन माँग रही है. “

वो आगे कहती हैं, “हमें पता है कि हमारे गाँव और परिवारों के पुरुषों को बहकाने के बाद हमें भी डराने धमकाने की कोशिश होगी. लेकिन हम डरने वाली नहीं हैं. हम लोग मोर्चे पर डटी हैं और आंदोलन को मरने नहीं देंगी.”

आंदोलन का नेतृत्व कर रहे कई नेताओं ने बातचीत में हमें यह जानकारी दी है कि अब औरतें इस आंदोलन में ज़्यादा हिस्सेदारी ले रही हैं. उनका यह भी कहना है कि मर्दों की तुलना में सरकार और कंपनी के बिचौलियों के लिए औरतों तक पहुँचना आसान नहीं है.

मर्दों को हाट-बाजा़र कहीं भी मिल कर लालच दे कर बहकाया जा सकता है. लेकिन औरतें इस मामले में ज़्यादा सतर्क हैं. वह जानती हैं कि अगर कोयला ब्लॉक की ज़मीन चली गई तो फिर वो बेघर हो जाएँगे.  

कोलकाता में प्रदर्शन करते आदिवासी

देश के सबसे बड़े कोयला ब्लॉकों में से एक है देउचा पचामी

केंद्र सरकार ने 2018 में पश्चिम बंगाल को भारत का सबसे बड़ा और दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा कोयला ब्लॉक देउचा पचामी हरिनसिंह दीवानगंज कोयला ब्लॉक आवंटित किया था. 

यह दुनिया की सबसे बड़ी खानों में से एक है, और इसमें 2,102 मिलियन टन कोयले का अनुमानित भंडार है. 12 वर्ग किलोमीटर ये ज़्यादा पर फैला यह कोयला ब्लॉक बीरभूम ज़िले में है, और इसे दिसंबर 2019 में पश्चिम बंगाल सरकार को आवंटित किया गया था.

मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का दावा है कि इस खदान से कम-से-कम एक लाख से ज़्यादा लोगों को रोजगार मिलेगा. लेकिन इलाक़े के संथाल आदिवासी और क्षेत्र के छोटे किसानों का कहना है कि इससे उनकी आजीविका पर संकट गिरेगा.

आदिवासियों की इस सोच के पीछे की वजह साफ़ है. अनुमान है कि इस परियोजना से क़रीब 70 हज़ार लोग विस्थापित होंगे. इसके अलावा लोगों को डर है कि परियजना के लागू होने से वह अपनी पारंपरिक भूमि खो देंगे.

हालांकि खदान से फ़िलहाल कोयला खनन शुरू नहीं हुआ है, लेकिन खदान के ऊपर जो पत्थर की खानें हैं, उनकी वजह से प्रदूषण का स्तर काफ़ी बढ़ गया है. इससे इलाक़े के छोटे किसानों की फ़सल को नुकसान पहुंच रहा है.

2019 में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कहा था कि प्रस्तावित देचा पचमी कोयला ब्लॉक पर काम तभी शुरू होगा जब वहां रह रहे 4,000 आदिवासियों का पुनर्वास हो जाएगा. हालांकि, 4000 लोग मतलब इलाक़े की सिर्फ़ 40 प्रतिशत आबादी.

इलाक़े के आदिवासी, और सामाजिक कार्यकर्ता राज्य की टीएमसी सरकार के दावा पर भी सवाल उठा रहे हैं कि अकेले देवचा-पचमी कोयला ब्लॉक में कम से कम एक लाख लोगों के लिए रोज़गार तैयार होगा.

टीएमसी ने इससे पहले भले ही भूमि अधिग्रहण विरोधी आंदोलनों की लहर पर सवारी की हो, लेकिन अब यह देखना होगा कि सरकार में रहते हुए पार्टी का इन आंदोलनों के बारे में क्या रवैया रहता है.

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