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वन्य प्राणी (संशोधन) क़ानून आदिवासियों को और अधिक प्रताड़ित करने का औज़ार बन सकता है

वन्य प्राणी (संरक्षण) क़ानून शिकार या जंगल में अतिक्रमण की रोकथाम से ज़्यादा आदिवासियों और जंगल में रहने वाले समुदायों पर आर्थिक बोझ बढ़ा सकता है.

वन्य प्राणी (संरक्षण) अधिनियम, 1972 (wild life (protection) amendment act) में संसद के शीतकालीन सत्र के दौरान यानि दिसंबर 2022 में कुछ संशोधन किये गये हैं.

इन संशोधनों के बाद इस कानून के दायरे में संरक्षित वन्य प्राणियों की कई और प्रजातियों को शामिल किया गया है. इसके अलावा इस कानून में सज़ा के प्रावधानों में भी बदलाव किया गया है. इन बदलावों के बाद अब इस कानून के तहत ज़ुर्माना की मात्रा और जेल की अवधि को बढ़ा दिया गया है. 

इस कानून में बदलाव से कुछ विशेषज्ञ चिंतित दिखाई देते हैं. उन्हें चिंता है कि वन्य प्राणी (संरक्षण) कानून में बदलाव से उन लोगों की जिंदगी पर विपरित प्रभाव पड़ेगा जो जीविका के लिए जंगलों पर निर्भर हैं. इन विशेषज्ञों का कहना है कि वन्य प्राणियों के संरक्षण से जुड़े 1972 के कानून में जुर्माने की रकम को चार गुना बढ़ा दिया गया है.

उनके अनुसार इस पृष्ठभूमि में यह समीक्षा ज़रूर होनी चाहिए कि यह बदलाव जंगलों पर निर्भर आदिवासियों या अन्य जातीय समुदायों पर किस तरह का प्रभाव डालेंगे. इस सिलसिले में इकनोमिक पॉलिटिकल वीकली (EPW) पत्रिका में संजना मेश्राम और आदित्य रावत का एक लेख छपा है. 

इस लेख में दावा किया गया है कि वन्य प्राणी (संरक्षण) कानून 1972 में बदलाव जंगलों में रहने वाले समुदायों की मुसीबत को और बढ़ा देंगे. वन्य प्राणी (संरक्षण) कानून की धारा 51 के तहत इस कानून के किसी भी प्रावधान का उल्लंघन करने पर तीन साल की क़ैद और 25000 रूपये तक का ज़ुर्माना हो सकता है.

इसके अलावा अगर अनुसूचि 1 और 2 में संरक्षित वन्य प्राणी के शिकार का मामला है तो फिर 3 साल से 7 साल तक की सज़ा हो सकती है. इस तरह के मामलों में फंसे आदिवासियों और जंगल में रहने वाले समुदायों के लोगों के लिए ख़र्च उठाना बेहद मुश्किल काम होता है. 

अध्य्यन ये बताते हैं जब इस तरह के मामले में किसी व्यक्ति को पकड़ा जाता है तो ज़मानत के लिए  12000 से 15000 रूपये की ज़रूरत होती है. इसके अलावा अदालत में पड़ने वाली हर तारीख पर परिवार को वकील का ख़र्च और अदलातों में दी जाने वाली रिश्वत का इंतज़ाम भी करना पड़ता है. 

इसके अलावा गांव से अदालत तक पहुंचने में लोगों का काफी पैसा ख़र्च होता है. जब कोई आदिवासी परिवार इस तरह के मामले में फंसता है तो उसके परिवार को अक्सर कर्ज लेना पड़ता है. उसके बाद इस परिवार के लिए इस तरह के कर्ज से पीछा छुटाना लगभग असंभव हो जाता है. 

इस तरह के मामले  आमतौर पर काफी लंबे खीच जाते हैं. लंबे चलने वाल मुकदमों में आदिवासी परिवार आर्थिक तौर पर टूट जाते हैं. मसलन 2016 से 2020 की बीच जो मामले वन विभाग ने इस कानून के तहत दर्ज किये हैं उनमें से अधिकतर अभी भी ख़त्म नहीं हुए हैं. 

इन मामलों से जुड़े आंकडों के अनुसार करीब 51 प्रतिशत मामले अदलातों में लंबित हैं, 44 प्रतिशत में विभागीय जांच चल रही है और करीब 2.5 प्रतिशत में बिनी किसी कार्रावाई के मामले बंद कर दिये गए थे. इस पृष्ठभूमि में वन्य प्राणी (संरक्षण) अधिनियम में बदलाव जंगल में रहने वाले समुदायों के लिए अतिरिक्त आर्थिक बोझ बढ़ा सकते हैं. 

आदिवासियों को फ़र्जी मामलों में फंसाये जाने के उदाहरण मौजूद हैं

साल 2022 में केरल के इडुक्की में एक आदिवासी युवक को फ़र्ज़ी केस में फँसा कर गिरफ्तार किया गया था. इस मामले  में वन विभाग के 6 कर्मचारियों को सस्पेंड भी हुए थे. सरिन साजीमोन नाम के आदिवासी युवक को 20 सितंबर को ग़िरफ्तार किया गया था. 

वन विभाग के कर्मचारियों ने इस आदिवासी लड़के पर हिरण का मांस बेचने का आरोप लगाया था. इस मामले में आदिवासी लड़के के परिवार और आदिवासी संगठनों ने पुलिस से शिकायत की थी.

इसके बाद इस पूरे मामले की जाँच की गई. चीफ़ फ़ॉरेस्ट कंज़रवेटर अरूण आरएस ने दोषी अधिकारियों को निलंबित करते हुए आदेश में लिखा है कि इस आदिवासी लड़के को ज़बरदस्ती फँसाया गया है.

उन्होंने बताया है कि इस आदिवासी लड़के के ऑटो में वन विभाग के एक कर्मचारी ने ही मांस रखा था. इस मामले में इडुक्की के रेंज अधिकारी ने इस अपराध की रिपोर्ट पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया था. क्योंकि उन्हें इस बात का अनुमान हो गया था कि इस आदिवासी लड़के को फँसाया गया है.

इस मामले में हुई जाँच में पता चला है कि वन अधिकारी अनिल कुमार ने इस लड़के को फँसाने के लिए धोखे से उसके ऑटो में मीट रखवाया था. वरिष्ठ अधिकारियों ने इस मामले की जाँच में पाया कि आदिवासी लड़के की गिरफ़्तारी के मामले में कई अधिकारी शामिल थे.

इस आदिवासी युवक की गिरफ़्तारी के बाद उसके परिवार के लोग भूख हड़ताल पर थे. इस मामले में विरोध प्रदर्शन के बाद कुछ अधिकारियों का तबादला भी किया गया था. लेकिन आदिवासी संगठनों और परिवार ने इस मामले में निष्पक्ष जाँच की माँग नहीं छोड़ी.

इस मामले में गिरफ़्तार आदिवासी युवक को बचाया जा सका क्योंकि यहां पर मजूबत आदिवासी संगठन मौजूद था. लेकिन देश के ज़्यादातर आदिवासी इलाकों में ऐसी स्थिति नहीं है. जंगल में अक्सर पशु चराने या फिर दूसरे मामलों को लेकर वन विभाग के कर्मचारियों और आदिवासियों के बीच झड़प हो जाती है.

ऐसी सूरत में कई बार वन विभाग के कुछ कर्मचारी आदिवासियों को सबक सिखाने के लिए फ़र्जी मामलों में फंसाने से बाज़ नहीं आते हैं. इसलिए ज़मीनी हालातों को ध्यान में रखते हुए इस कानून की पर्याप्त समीक्षा करनी ज़रूरी है. 

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