कर्नाटक (karnataka) में आदिवासी समुदायों (Tribal communities) की औषधीय प्रथाओं (Medicinal practices) और चिकित्सा परंपराओं पर शोध की महत्वाकांक्षी परियोजना अगले एक साल में पूरी होने की उम्मीद है.
केंद्रीय जनजातीय मामलों की राज्य मंत्री रेणुका सिंह सरुता ने लोकसभा में एक सवाल के जवाब में बताया कि कर्नाटक को ऐसी औषधीय प्रथाओं के मानचित्रण और प्रलेखन के लिए 97.46 लाख रुपये आवंटित किए हैं. यह जनजातीय औषधीय प्रथाओं और औषधीय पौधों पर अनुसंधान करने के लिए बनाई गई केंद्रीय योजना का हिस्सा है.
उन्होंने बताया कि इस योजना के तहत कर्नाटक में मैसूरु और शिवमोग्गा की आदिवासी आबादी की औषधीय प्रथाओं के व्यावसायीकरण, पेटेंट और आयुष प्रमाणन के लिए मैपिंग और प्रलेखन किया जा रहा है.
यानि आदिवासी समुदाय जिन जड़ी बूटियों को जंगल से जमा करता है, उनके नामों का रिकॉर्ड तैयार किया जाएगा. इसके अलावा सरकार यह भी सुनिश्चित करेगी कि इन जड़ी-बूटियों से आदिवासियों को आमदनी हो सके.
इस काम के लिए सरकार इन जड़ी बूटियों को आयुष मंत्रालय से प्रमाणित भी करेगा और इन जड़ी बूटियों का पेटेंट भी कराया जाएगा.
कर्नाटक के जनजातीय कल्याण विभाग के हवाले से बताया गया है कि मैसूरु और शिवमोग्गा जिलों में जहां जनजातीय आबादी अधिक है, वहां फिलहाल सैंपल इक्ट्ठे किए जा रहे है. इसके लिए व्यापक अभियान चलाया जा रहा है.
उन्होंने उदाहरण देते हुए बताया कि मैसूरु जिले में हुनसूर तालुक में सैंपलिंग हो रही है. इसके अलावा शिवमोग्गा जिले के गौतमनगर में भी ये काम किया जा रहा है. यहां पर बड़ी संख्या में हक्कीपिक्की समुदाय के लोग रहते हैं.
हक्कीपिक्की एक घुमंतू जनजाति है, जो शिकार के लिए देश भर में घूमते थे. कन्नड़ भाषा में “हक्की पिक्की” का मतलब ‘पक्षी शिकारी’ होता है.
इस समुदाय के लोग अपनी जीविका चलाने के लिए शिकार और पक्षियों को फंसाकर पकड़ते हैं और उन्हें गांव या शहर में बेचते हैं. ये समुदाय मछलियां पकड़ने में भी माहिर माना जात है.
अधिकारी ने बताया कि एचडी कोटे तालुक में डीबी कुप्पे जैसी जगहों पर जेनु कुरुबा और अन्य आदिवासी बस्तियों के लिए भी ये सैंपलिंग कार्य किए जाते हैं. उन्होंने कहा कि सैंपलिंग का काम एक साल में पूरा होने की संभावना है.
सरकार की तरफ से बताया गया है कि विभाग औषधीय पद्धतियों के व्यावसायीकरण करने में मदद करेगा ताकि आदिवासी अपने बाजार का विस्तार कर सकें. यह भी बताया गया है कि वर्तमान में आदिवासी दवाएं बिना प्रमाणन या ब्रांडिंग के बेची जा रही हैं.
जेनु कुरुबा जनजाति देश में विशेष पिछड़ी जनजाति समूह (PVTG) में शामिल है. उनका नाम उनके जंगलों में घूमने के व्यवसाय से लिया गया है. उनके नाम का अर्थ है शहद. इस समुदाय के लोग जंगल में शहद, फल, फूल, जड़, पौधे आदि इक्ट्ठा करते है.
ये लोग दक्षिण भारत के कर्नाटक, तमिलनाडु और केरल राज्यों में रहते हैं. यह समुदाय आमतौर पर जंगल में ही रहता और घूमता है और वे शायद ही कभी अन्य पड़ोसी आदिवासी समुदायों के साथ घुलमिल पाते हैं.
इस सिलसिले में एक संगठन आदिवासी मंच के संयोजक विजयकुमार ने कहा, “आदिवासी चिकित्सकों द्वारा उपयोग में ली जाने वाली पारंपरिक दवाओं की लोकप्रियता बढ़ रही है. हालांकि, औषधीय पौधों को उगाने के लिए आदिवासियों को कोई सरकारी सहायता नहीं मिलती है. अब तो जंगल से भी पौधे गायब हो रहे हैं.”
हाल ही में जनजातीय मामलों के मंत्रालय (Ministry of Tribal Affairs) ने लोकसभा को बताया कि केंद्र सरकार ने देश भर में आदिवासी समुदायों की औषधीय प्रथाओं और चिकित्सा परंपराओं पर शोध के लिए विभिन्न संस्थानों, विश्वविद्यालयों और अकादमियों को 864 लाख रुपये से अधिक का आवंटन किया गया है.
सरकारी आंकड़ों से पता चला है कि इस फंडिंग का एक बड़ा हिस्सा- 312 लाख से अधिक हरिद्वार में पतंजलि अनुसंधान संस्थान (Patanjali Research Institute) को आवंटित किया गया है.
वहीं इस फंडिंग का दूसरा सबसे बड़ा हिस्सा- 195 लाख, प्रवरा इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंस, लोनी, उत्तर प्रदेश को दिया गया है.
इस पैसे का इस्तेमाल महाराष्ट्र राज्य में विभिन्न जनजातीय समुदायों की पहचान के लिए सर्वेक्षण, पारंपरिक जनजातीय चिकित्सकों की सूची, जनजातीय स्वास्थ्य परंपराओं का अध्ययन, डॉक्यूमेंटेशन और टेस्टिंग के लिए किया जाएगा.
इसके अलावा इस क्षेत्र में रिसर्च के लिए अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, जोधपुर, नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ फार्मास्युटिकल एजुकेशन एंड रिसर्च (NIPER), गुवाहाटी, सेंट्रल काउंसिल फॉर रिसर्च इन आयुर्वेदिक साइंस (CCRAS) और सेंट्रल काउंसिल फॉर रिसर्च इन होम्योपैथी (CCRH) नई दिल्ली में और कई राज्यों में और केंद्र शासित प्रदेश के ट्राइबल रिसर्च इंस्टीट्यूट्स (TRI) को धन का आवंटन किया गया है.
जंगल में सैंकड़ों तरह के औषधियों के पौधे, बेल और पेड़ होते हैं. आदिवासी इन्हीं से अपने समुदाय के लोगों की बीमारियों का इलाज करते हैं. आज भी ज़्यादातर आदिवासी इलाक़ों में आधुनिक इलाज उपलब्ध नहीं है. आदिवासी इलाज के लिए अपने परंपरागत ज्ञान पर ही निर्भर करते हैं. आदिवासी समुदायों में कुछ परिवारों को पीढ़ी दर पीढ़ी यह जानकारी और ज्ञान मिलता है.
आदिवासियों का जंगल के बारे में ज्ञान ही उन्हें और जंगल दोनों को बचा कर रखता है. लेकिन बदलते वक्त में अब जंगल की उन दुर्लभ जड़ी बूटियों की पहचान करने वाले कम ही लोग बचे हैं. नई पीढ़ी के लोग मजदूरी और पलायन की वजह से जड़ी बूटियों की पहचान नहीं सीख पा रहे और यह ज्ञान बुजुर्गों के साथ ही खत्म होता जा रहा है.
हालांकि इन दवाओं की पहचान बरकरार रहे इसके लिए केंद्र सरकार बड़े स्तर पर शोध करा रही है. लेकिन इसमें सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है आदिवासियों को उनके ज्ञान के लिए पेटेंट दिलाना.
जानकारों का मानना है कि जब आदिवासियों की सहमति के बिना उनके ज्ञान का इस्तेमाल व्यापक स्तर पर होता है तो ये उनके मौलिक, अविच्छेद्य और सामूहिक मानवाधिकारों का उल्लंघन है. ऐसे में पेटेंट होने से इस प्रकार पारंपरिक ज्ञान के दुरुपयोग को रोका जा सकता है.