तमिलनाडु के कोयम्बटूर जिले में पूलपति आदिवासी बस्ती से जुड़े कुल 23 परिवारों को लगभग एक एकड़ वन भूमि प्राप्त करने के लिए तैयार किया गया है क्योंकि उन्हें वन अधिकार अधिनियम (FRA), 2006 के तहत व्यक्तिगत वन अधिकारों (IFR) के पुनर्वास को मंजूरी दी गई है.
करीब 30 साल पहले पेरियानाइकेनपालयम वन क्षेत्र की सीमा के भीतर रहने वाले 23 परिवार आजीविका सहित कई और कारणों से मजबूर होकर जंगलों के किनारे चले गए थे.
एफआरए के तहत आईएफआर के प्रावधान के बारे में शिक्षित होने के बाद परिवारों ने जंगलों में लौटने की इच्छा व्यक्त की. जिला कलेक्टर जीएस समीरन की अध्यक्षता में एक जिला स्तरीय समिति ने उन्हें आईएफआर खिताबों के पुनर्वास की मंजूरी दी. उन साक्ष्यों के आधार पर जो प्रमाणित करते हैं कि उनके पूर्वज वास्तव में जंगलों में रहते थे और खेती-किसानी करते थे.
राजस्व जिले में बस्ती कोयंबटूर नॉर्थ डिवीजन के मेट्टुपलयम तालुक के थोलमपलयम गांव के अंतर्गत आती है.
जिला वन अधिकारी टी.के. अशोक कुमार ने कहा कि उप-विभागीय समिति ने उनके अनुसार IFR की सिफारिश तब की जब परिवारों ने पारंपरिक रूप से अपने पूर्वजों द्वारा की जाने वाली खेती के अधिकारों की मांग की. जिसके बाद जिला स्तरीय कमेटी ने जांच कर अधिकार स्वीकृत किए.
इसके अलावा जिला स्तरीय समिति ने कोयम्बटूर नॉर्थ डिवीजन में कुल 22 जनजातीय बस्तियों – पिल्लूर में 13, वेलियांगडु में सात और मेट्टुपालयम में दो के लिए सामुदायिक वन अधिकार (Community Forest Rights) को भी मंजूरी दी.
दिसंबर, 2022 में राजस्व मंडल में अन्य आदिवासी बस्तियों को कुल 13 सीएफआर टाइटल जारी किए गए थे. टाइटल के लिए भूमि सर्वेक्षण आदिवासियों की पूरी भागीदारी के साथ किया गया था. यहां पर GPS आधारित भूमि सर्वेक्षण और मैपिंग की गई थी.
कोयंबटूर नॉर्थ के लिए राजस्व विभागीय अधिकारी के. बूमा ने कहा कि पिल्लूर और वेलियांगडु में बस्तियों को मछली पकड़ने के अधिकार के अलावा शहद, इमली, बूम बनाने के लिए घास, आम और आंवला जैसे छोटे वन उत्पाद एकत्र करने के अधिकार दिए गए हैं.
वन अधिकार अधिनियम (FRA), 2006 के प्रभाव में आने के 15 वर्षों के बाद आदिवासियों को ये अधिकार मिला है.
तेलंगाना में पोडू भूमि का अधिकार संघर्ष
वहीं तेलंगाना सरकार ने कहा कि आदिवासी किसानों को फरवरी के अंत तक भूमि प्रमाण पत्र (पट्टा) जारी करेगी. राज्य के आदिवासी कल्याण मंत्री सत्यवती राठौड़ ने अधिकारियों को प्रक्रिया को पूरा करने के लिए जरूरी व्यवस्था करने का निर्देश दिया.
मंत्री ने राज्य के वन मंत्री ए इंद्रकरन रेड्डी और मुख्य सचिव शांति कुमारी के साथ सोमवार को जिला कलेक्टरों के साथ एक वीडियो कॉन्फ्रेंस की.
बैठक में बोलते हुए उन्होंने कहा कि पोडू भूमि का 100 प्रतिशत सर्वेक्षण ग्राम सभाओं के माध्यम से पूरा किया गया था और कहा कि वन अधिकार समितियों और जिला स्तरीय समितियों ने आवेदनों की जांच करके लाभार्थियों की पहचान की है.
उन्होंने कहा कि सरकार योग्य किसानों को पोडू भूमि पर खेती करने की सुविधा देने के साथ-साथ वनों की सुरक्षा को प्राथमिकता दे रही थी.
वहीं मुख्य सचिव शांति कुमारी ने कहा कि सभी कलेक्टर को पट्टादार पासबुक छपाई की प्रक्रिया फरवरी के पहले हफ्ते तक पूरा करने के निर्देश दिए गए हैं.
तेलंगाना में पोडु भूमि विवाद लंबे समय से चल रहा है. इसी विवाद के कारण दिसंबर, 2022 में भद्राद्री कोठागुडम जिले के एक गांव में राज्य के वन रेंज अधिकारी श्रीनिवास राव की हत्या हो गई थी. ज़िला प्रशासन के अनुसार गुटीकोया आदिवासी समुदाय के लोगों और वन विभाग के कर्मचारियों के बीच झड़प में रेंज ऑफ़िसर की मौत हुई थी.
तेलंगाना में पोडु भूमि पर खेती करने के अधिकार के लिए आदिवासी समुदायों के लोगों और वन विभाग का संघर्ष काफ़ी पुराना है. आदिवासियों का दावा है कि जंगल में उनके पुरखों के ज़माने से वो खेती करते आए हैं. जबकि वन विभाग का दावा है कि जंगल की भूमि पर आदिवासी अतिक्रमण करते हैं.
ऐसे में अगर तेलंगाना सरकार किसानों को पट्टा जारी करती है तो उम्मीद है कि पोडु भूमि का विवाद अंत होगा.
वन अधिकार अधिनियम, 2006
आदिवासियों एवं अन्य परंपरागत वनवासियों के साथ हुए ऐतिहासिक अन्याय से उन्हें मुक्ति दिलाने और जंगल पर उनके अधिकारों को मान्यता देने के लिए संसद ने दिसम्बर, 2006 में अनुसूचित जनजाति और अन्य परम्परागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) कानून पास कर दिया था और एक लम्बी अवधि के बाद आख़िरकार केन्द्र सरकार ने इसे 1 जनवरी 2008 को नोटिफाई करके जम्मू-कश्मीर को छोड़कर पूरे देश में लागू कर दिया.
वन अधिकार कानून, 2006 के तहत किसी भी आदिवासी क्षेत्र में बिना ग्राम सभा की अनुमति के कोई भी प्रोजेक्ट शुरू नहीं हो सकता था, जिसमें वनोन्मूलन (वनों की कटाई) शामिल हो.
बावजूद इसके अभी तक कई राज्यों में वन अधिकार अधिनियम, 2006 को ठीक ढंग से लागू नहीं किया जाता है. आदिवासी इलाकों में रहने वाले या वहां काम करने वाले लोग जानते हैं कि यह कानून होने के बावजूद हकीकत में अक्सर इसका पालन ठीक से नहीं होता है.
कई बार उस इलाके में रहने वाले आदिवासियों को पता ही नहीं चलता कि कोई प्रोजेक्ट उनके क्षेत्र में आने वाला है और फर्जी हस्ताक्षर लेकर ग्राम सभा से झूठी अनुमति मिल जाती है. कई बार ग्राम सभा अध्यक्ष, सरपंच और अन्य क्षेत्रीय प्रभावशाली लोग पैसा खा लेते हैं या दबाव में आ जाते हैं.
आदिवासियों ने कई दशकों तक अपने वनाधिकारों के लिए लड़ाई लड़ी, नतीजा वन अधिकार क़ानून, 2006 आया. लेकिन आज भी आदिवासी अपने वनाधिकारों के लिए लड़ाई लड़ ही रहे हैं.