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ब्रू यानि रियांग जनजाति: अपने ही देश में शरणार्थी बन कर जीने को मजबूर

1997 से ब्रू जिन्हें रियांग (Bru or Reang) नाम से भी जाना जाता है, अपने ही देश में शरणार्थी बने हुए हैं. उन्हें मिज़ोरम में अपने घर छोड़ कर भागना पड़ा था. अब ऐसा लगता है कि आख़िरकार ब्रू जनजाति के पास भी बताने को अपने घर का एक पता होगा.

नॉर्थ त्रिपुरा ज़िले के बंडारिमा गाँव की यह खसनमपाड़ा बस्ती है. यहाँ पर ब्रू  जनजाति के लोगों को स्थाई तौर पर बसाया जा रहा है.

यहाँ के हालात देख कर अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि यह बस्ती अभी बसने के क्रम में है. घरों के रंग ताज़ा हैं और बिजली के खंभे लगा दिए गए हैं.

इन बिजली के खंभों पर तार भी खींच दी गई हैं. ईंट के खडंजे भी बिछा दिए गए हैं. हालाँकि जैसा नई बस्तियों में होता है, अभी धूल बैठी नहीं है.

वैसे इस बस्ती में बन रहे घरों को देख कर लगता नहीं है कि यहाँ पर स्थाई बस्तियाँ बसाई जा रही हैं, ये घर काफ़ी कामचलाऊ लग रहे हैं. ऐसा लगता है कि कोई कैंप लगाया गया है.

जहां कुछ दिन के लिए लोगों को ठहराया जाएगा. लेकिन ये घर एक उम्मीद है, शांति और विश्वास का सहारा हैं. दो दशक से अधिक समय से बेघर ब्रू जनजाति के लोगों को अपना कहने को घर मिल गया है.

धीरे धीरे शायद उन्हें यह ज़मीन और गाँव भी अपना लगने लगेगा. यह बस्ती उन जगहों में से एक है जहां ब्रू जनजाति के लोगों को स्थाई तौर पर बसाने का फ़ैसला किया गया है. 

उत्तर पूर्व भारत के कई राज्यों में अलग अलग समुदायों ने जातीय हिंसा झेली है और इसकी वजह से उन्हें पलायन भी करना पड़ा है.

इसी क्रम में ब्रू समुदाय के संकट को भी देखा जा सकता है. साल 1997 में मिज़ोरम में ब्रू और मिज़ो समुदाय के बीच रिश्ते बिगड़ गए.

दोनों ही समुदायों के लोगों के बीच परस्पर विश्वास का माहौल ख़त्म हो गया और उसकी जगह पर तनाव और संदेह ने ले ली थी. मिज़ोरम से शुरू हुई हिंसा त्रिपुरा राज्य की जम्पुई पहाड़ियों तक फैल गई.

यहाँ से मिज़ो समुदाय के कुछ परिवारों को पलायन करना पड़ा. ब्रू मसले की पृष्ठभूमि साल 1990 से तैयार होनी शुरू हो गई थी.

लेकिन जब 1997 में ब्रू जनजाति के लोगों ने राज्य में ब्रू जनजाति के लिए स्वायत्त परिषद की माँग शुरू की तो मिज़ो और ब्रू के बीच तनाव बढ़ने लगा.

इस बीच एक फ़ॉरेस्ट गार्ड की हत्या हुई और इलज़ाम ब्रू संगठन पर लगा. उसके बाद ब्रू जनजाति के ज़्यादातर परिवारों को मिज़ोरम छोड़ कर भागना पड़ा. इन परिवारों ने त्रिपुरा में शरण ली.

1997 में शुरू हुआ यह संकट एक पेचीदा मसला बना रहा है. केंद्र सरकार और अदालतों ने मिज़ोरम सरकार को कई बार ब्रू जनजाति के लोगों की उनके घर को सुरक्षित वापसी के लिए निर्देश दिए.

लेकिन बात बनी नहीं. क्योंकि कभी सरकार तो कभी ब्रू शरणार्थी संगठन समझौते से मुकरते रहे. इस मसले को सुलझाने के लिए साल 2018 में केंद्र, मिज़ोरम, त्रिपुरा सरकार और Bru Displaced People’s  Forum के बीच एक समझौता हुआ.

ब्रू शरणार्थियों को स्थाई तौर पर बसाने की यह एक संजीदा कोशिश नज़र आ रही थी. लेकिन यह समझौता भी बहुत कामयाब नहीं रहा. 

2018 के बाद एक बार फिर साल 2020 में ब्रू मसले का स्थाई हल निकालने के लिए एक और समझौता हुआ. इस समझौते में फिर से वही सभी सरकारें और संगठन शामिल हैं.

इस समझौते के तहत ब्रू शरणार्थियों के कुल GFX in 6959 परिवारों के क़रीब 37136 लोगों को स्थाई तौर पर बसाने का फ़ैसला किया गया है.

इस काम के लिए 661 करोड़ रूपये का पैकेज तय हुआ है. GFX out इस समझौते के तहत हर परिवार को 1200 Sq Ft का प्लॉट, घर बनाने के लिए 1.5 लाख रूपये, 4 लाख रूपये का फ़िक्स डिपॉजिट और दो साल तक 5000 रूपये घर खर्च के लिए दिये जाएँगे.

इसके अलावा सभी परिवारों को दो साल तक मुफ़्त राशन भी मिलेगा. हालाँकि इस समझौते में जो वादे किये गए हैं उनमें से कई वादे अभी अधूरे हैं. 

त्रिपुरा में फ़िलहाल विधान सभा चुनाव प्रचार चल रहा है. पिछले दो दशकों से एक ठिकाने की तलाश में बैठे ब्रू जनजाति की कुछ कुछ बातें इस चुनाव में भी हो रही हैं.

ख़ासतौर से टिपरा मोथा नाम की क्षेत्रिय पार्टी ने अपने घोषणापत्र में कई तरह के वादे किये हैं. मसलन ब्रू परिवारों को एक निश्चित समय सीमा के भीतर स्थाई तौर पर बसाने का वादा भी किया गया है.

इसके अलावा डूंबूर परियोजना में विस्थापित परिवारों को उचित मुआवज़ा देने की बात भी शामिल की गई है. 

ब्रू जनजाति के कैंपों में कई संगठन सक्रिय रहे हैं. इनमें कई ऐसे संगठन भी शामिल हैं जो धर्म प्रचार के काम से जुड़े हैं. इसमें ईसाई धर्म प्रचारक और आरएसएस से जुड़ा वनवासी कल्याण आश्रम जैसे संगठन भी शामिल हैं.

वनवासी कल्याण आश्रम की यहाँ मौजूदगी का एक लाभ यह ज़रूर हुआ है कि इस संगठन ने ब्रू पुनर्वास के मसले को शीर्ष स्तर पर उठाया है. लेकिन अब पुनर्वास कहां और कैसे होगा, इसमें भी उनका हस्तक्षेप कई लोगों की नज़र में ग़ैर ज़रूरी बताया जा रहा है. 

हाज़ाछेरा, नॉर्थ त्रिपुरा के आनंद बाज़ार इलाक़े में एक शरणार्थी कैंप है. यहाँ पर बसे रियांग यानि ब्रू जनजाति के लोग अब यहाँ के परवेश में रच-बस गए हैं.

इस ज़मीन से अब यहाँ के लोग वैसे ही प्यार करते हैं जैसे कोई भी समुदाय अपनी मातृभूमि से करता होगा. यहाँ आस-पास के समुदायों के लोगों से उनके रिश्ते बन चुके हैं. लेकिन समझौते की शर्तों के अनुसार उन्हें यह जगह छोड़नी पड़ेगी…

त्रिपुरा के चुनाव में रियांग यानि ब्रू जनजाति का बहुत बड़ा वोट बैंक नहीं है. लेकिन ऐसा भी नहीं है कि चुनाव की राजनीति में उनकी कोई गिनती नहीं है.

त्रिपुरा एक छोटा राज्य है और रियांग जनजाति की जनसंख्या यहाँ पर राजनीतिक तौर पर नज़रअंदाज़ नहीं की जा सकती है. इसलिए उनके पुनर्वास का मसला चुनाव में चर्चा का विषय तो ज़रूर बन जाता है.

त्रिपुरा में अब ब्रू संकट का हल क़रीब नज़र आ रहा है, लेकिन अभी इस संकट को हल करने की प्रक्रिया को पूरा होने में समय लगेगा. दो दशक से ज़्यादा समय तक बेघर इन जनजातीय लोगों का अपना एक स्थाई ठिकाना होगा.

ज़मीन का एक टुकड़ा जिसे ब्रू अपना कह पाएँगे…लेकिन इस प्रक्रिया की निगरानी और उसमें कोई ख़ामी ना रहे, इसके लिए जनदबाव दोनों बेहद ज़रूरी हैं. 

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