HomeGround Reportदमन गंगा और पिंजल की गोद में आदिवासी भयभीत क्यों रहता है?

दमन गंगा और पिंजल की गोद में आदिवासी भयभीत क्यों रहता है?

इस इलाक़े में पहाड़ों पर जंगल है. ज़िंदगी आसान नहीं है. लेकिन इसके बावजूद प्रकृति इतना सुनिश्चित कर देती है कि वो भूखा ना सोए. खेती और छोटी मोटी मज़दूरी के अलावा यहाँ के आदिवासी जंगल पर ही ज़िंदा रहते हैं. इसलिए यहाँ के आदिवासी या फिर कहीं के भी आदिवासी जिन्हें विस्थापित किया जाता है उसका पहला डर यह होता है कि अगर उसे किसी ऐसे इलाक़े में बसा दिया गया जहां उसके पास जंगल नहीं होगा तो क्या होगा?

महाराष्ट्र के पालघर ज़िले की जव्हार तहसील में कुछ दूर दराज़ के आदिवासी गाँवों में लोगों से हमारी मुलाक़ात के सिलसिले की शुरुआत पाथरडी ग्राम पंचायत से होनी थी. जव्हार से पाथरडी  के रास्ता जंगल से हो कर गुज़रता है.

पूरा जंगल गर्मी से झुलसा हुआ नज़र आ रहा था, लेकिन जब हम इस गाँव के क़रीब पहुँचे तो कुछ हरियाली के निशान नज़र आने लगे थे. इस हरियाली का श्रेय यहाँ से बहती पिंजल नदी को जाता है. भयानक गर्मी के इस मौसम में नदी में भी पानी कम हो जाता है लेकिन फिर भी यह नदी बारहों महीने बहती है.

इस ग्राम पंचायत में सबसे पहले हमें सोनगिरी पाड़ा पहुँचना था. वहाँ तक जाने के लिए हम सड़क को छोड़ कर पिंजल नदी के किनारे चल रहे थे. नदी किनारे की इस ज़मीन के गोल पत्थर बता रहे थे कि बरसात में इस नदी का फैलाव काफ़ी बढ़ जाता होगा.

सोनगिरी पाड़ा पिंजल नदी के पार एक पहाड़ी पर बसा है. वहाँ जाने के लिए गाड़ी को इस पार ही छोड़ना था. हम ज़रूरी सामान लेकर पैदल ही गाँव की तरफ़ बढ़ चले, ऐसा महसूस हो रहा था कि हम किसी भट्टी में जल रहे हैं.

सूरज की चमक आँखें नहीं खुलने दे रही थी, नीचे पथरीली ज़मीन भी इतनी गर्म थी मानो जूतों के सोल को पिघला देगी, सामने से लू की लपटें आ रही थीं जो झुलसा भी रहीं थीं और चलना भी मुश्किल बना रही थीं.

चाहिए तो यह था कि जितना जल्दी हो सके गाँव तक पहुंचने के लिए जल्दी जल्दी चलें…लेकिन यह मुमकिन नहीं था. सोनगिरी पाड़ा में हम से मिलने आस-पास के कुछ गाँवों के लोग भी मौजूद थे. इन लोगों से लंबी बातचीत हुई.

इस बातचीत में हमें पता चला की ये आदिवासी लगातार एक भय में जीते हैं. यह एक ऐसा भय है जिसने लाखों आदिवासियों को सताया है और लाखों को डरा रहा है. दरअसल वो भय विस्थापन, अपनी जड़ों से उखड़ जाने और ग़रीब के चक्र में फँस जाने का है.

यहाँ के आदिवासियों की डर की वजह और उसकी पृष्ठभूमि का ज़िक्र शायद ज़रूरी है. यहाँ बहने वाली नदी पिंजल को दमनगंगा नदी से जोड़ने की योजना से यह डर पैदा हुआ है. देश की कई नदियों को जोड़ने की परियोजनाओं पर चर्चा लंबे समय से चल रही है.

2010 में महाराष्ट्र और गुजरात के बीच दमनगंगा-पिंजल नदी जोड़ परियोजना पर सहमति बनी. लेकिन 2019 में महाराष्ट्र में आदिवासियों के दबाव के बाद राज्य सरकार ने इस परियोजना से पल्ला झाड़ लिया.

लेकिन इस साल के बजट भाषण में वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने घोषणा की है कि दमनगंगा-पिंजल, तापी-नर्मदा, गोदावरी-कृष्णा, कृष्णा-पेन्नार और पेन्नार-कावेरी परियोजनाओं के लिए सरकार ने धन का प्रावधान किया है.

यानि बेशक आदिवासियों के दबाव में तत्कालीन मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस ने इस योजना को ठंडे बस्ते में डाल दिया था, लेकिन केंद्र सरकार इस परियोजना को सिर चढ़ाना चाहती है.

पिंजल नदी के किनारे जंगल में बसे इन आदिवासियों के मन में विस्थापन से जुड़े जो डर हैं उनमें से एक है जीविका खो जाने का डर. इस इलाक़े में पहाड़ों पर जंगल है. ज़िंदगी आसान नहीं है.

लेकिन इसके बावजूद प्रकृति इतना सुनिश्चित कर देती है कि वो भूखा ना सोए. खेती और छोटी मोटी मज़दूरी के अलावा यहाँ के आदिवासी जंगल पर ही ज़िंदा रहते हैं. इसलिए यहाँ के आदिवासी या फिर कहीं के भी आदिवासी जिन्हें विस्थापित किया जाता है उसका पहला डर यह होता है कि अगर उसे किसी ऐसे इलाक़े में बसा दिया गया जहां उसके पास जंगल नहीं होगा तो क्या होगा?

दूसरा बड़ा डर होता है कि अपने जंगल में वो पीढ़ीयों से रहता आया है, वहाँ के घाट-रास्ते वो सब पहचानता है. जंगल के किस हिस्से में कब क्या मिलेगा उसे पता है. यह पूरा जंगल उसका है. लेकिन अगर उसे कहीं दूसरी जंगल में बसा भी दिया जाता है तो उस जंगल में क्या उसे हिस्सेदारी मिलेगी या फिर उस जंगल को समझने में उसे कितनी पीढ़ियाँ गुज़ारनी पड़ सकती हैं?

साल 1982 में भारत सरकार ने नेशनल वॉटर डेवलपमेंट एजेंसी का गठन किया था. इस एजेंसी का काम भारत की नदियों में उपलब्ध पानी और इस पानी को ट्रांसफ़र करने की संभावनाएँ तलाशना और उनकी व्यवहारिकता का अध्ययन करना है.

इस एजेंसी ने पिंजल-दमनगंगा लिंग प्रोजेक्ट पर भी एक रिपोर्ट दी है. इस रिपोर्ट में बताया गया है कि एजेंसी ने भुगाड़ और खारगिहिल दो बाँधो का प्रस्ताव दिया है. ये दो जलाशयों में से एक दमनगंगा नदी पर प्रस्तावित है और दूसरा यानि खारगिलहिल जलाश्य वाघ नदी पर प्रस्तावित है जो दमनगंगा की साहयक नदी है.

इसके अलावा एक बांध पिंजल नदी पर प्रस्तावित है. इन नदियों का पानी ट्रांसफ़र करने के लिए दो लंबी सुरंग बनाई जाएँगी. इनमें से एक सुरंग क़रीब17 किलोमीटर लंबी होगी और दूसरी क़रीब 28 किलोमीटर की होगी. इस पूरे प्रोजेक्ट  का मक़सद इन नदियों के पानी को मुंबई पहुँचाना है. 

इस रिपोर्ट में बताया गया है कि दो जलाशयों के लिए कम से कम 30 गाँवों को विस्थापित होना पड़ेगा. सरकार की अपनी रिपोर्ट में बताया गया है कि इस परियोजना के लिए कम से कम 2302 परिवार विस्थापित होंगे.

दमनगंगा-पिंजल लिंक प्रोजेक्ट से पर्यावरण और लोगों पर होने असर का अध्ययन भी किया गया है. जहां एक तरफ़ यह स्टडी यह मानती है कि विस्थापन लोगों को ग़रीबी में धकेल सकता है. लेकिन साथ ही दावा करती है कि यह प्रोजेक्ट इस इलाक़े में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रुप से रोज़गार पैदा करेगी. अब ज़रा उन रोज़गारों के अवसरों पर नज़र डालें जिनके बारे में यह स्टडी दावा करती है.

जब बांध बनेंगे तो उसमें काम करने के लिए बड़ी तादाद में लोग बाहर से आएँगे. उनको खाने की ज़रूरत होगी, चाय-पानी और दूसरी चीजों की ज़रूरत होगी. इसलिए यहाँ पर स्थानीय लोग राशन की दुकानें, चाय की टपरी, खाने के ढाबे, ट्रकों की रिपेयर और पंचर की दुकानें खोल सकेंगे.

इसके साथ ही दावा किया गया है कि यहाँ पर काफ़ी ज़मीन है जिस पर खेती नहीं होती है, उस ज़मीन पर उद्योग लगेंगे, जिससे यहां रोज़गार पैदा हो सकता है. 

पिंजल दमनगंगा नदियों को जोड़ने के लिए बनाए जाने वाले बांध और सुरंगों के लिए जो निर्माण कार्य के दौरान बेशक इस इलाक़े में व्यवसायिक गतिविधियाँ बढ़ेगी. लेकिन यह निर्माण कार्य के दौरान ही होगा. यानि रोज़गार के जो अवसर पैदा होंगे वो अस्थाई होंगे.

दूसरी बात आदिवासी पूछते हैं कि जो लोग विस्थापित हो जाएँगे उन्हें इन अवसरों का लाभ भला कैसे मिलेगा. इस स्टडी में भी माना गया है कि इस इलाक़े में बाक़ी आदिवासी इलाक़ों की तुलना में रोज़गार की तलाश में पलायन कम है. इसका कारण है कि यहाँ पर चावल के अलावा दालें भी पैदा की जाती हैं.

खेती के साथ साथ जंगल से फल, पत्ते, लकड़ी और औषधी मिल जाती है जिससे आदिवासी को एक सम्मानजनक जीवन जीने का मौक़ा मिलता है. अगर यहाँ नदी पर छोटे बांध बना कर साल भर खेती के लिए पानी का इंतज़ाम हो जाए तो ना सिर्फ़ अधिक फ़सलें पैदा होंगी और उत्पादन बढ़ेगा, बल्कि यहाँ पर चीकू, आम, अमरूद, काजू के बाग़ान लग सकते हैं. 

पिंजल दमनगंगा नदी जोड़ परियोजना में सबसे बड़ा मसला है कि यहाँ का आदिवासी अपनी ज़मीन देने के लिए तैयार नहीं है. सरकार आदिवासियों को अभी तक भरोसे में नहीं ले सकी है. ज़मीन अधिग्रहण के क़ानून के तहत ग्राम सभाओं की अनुमति और रज़ामंदी के बिना सरकार ज़मीन अधिग्रहण नहीं कर सकती है.

सरकार ने आदिवासियों को कई तरह के फ़ायदे बताए हैं, लेकिन आदिवासी सरकार के वादों पर भरोसा नहीं कर पा रहे हैं. इसकी एक वजह तो सीधी सी है कि इन वादों में आदिवासी के लिए सुखद और सम्मानजनक ज़िंदगी की तस्वीर दिखाई नहीं देती है.

दूसरी वजह है कि अभी तक विस्थापन और पुनर्वास का जो रिकॉर्ड देश में रहा है उसने आदिवासियों में इस तरह की परियोजनाओं के प्रति संदेह को बढ़ाया ही है. 

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