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हमारी नज़र से डरती हैं इसलिए 20 रूपए की मैक्सी से तन ढकती हैं

बोंडा महिलाएं शरीर के ऊपरी हिस्से पर कोई कपड़ा नहीं पहनतीं. लेकिन रंग बिरंगी बारीक मालाओं से ऊपरी हिस्से को ढकती हैं. कमर के हिस्से में एक कपड़ा बांधा जाता है जिसे रिंगा कहते हैं. बोंडा महिलाएं रिंगा घर पर ही बुनती हैं. ये महिलाएं इन साप्ताहिक हाटों में आने से पहले अपना तन ढकने के लिए मैक्सी पहनती हैं. ये मैक्सी आमतौर पर पुरानी होती है, जो इन साप्ताहिक हाटों से ही वो 20-30 रूपए में ख़रीद लेती हैं. इन मैक्सियों का उनके पहाड़ों या बस्तियों में कोई इस्तेमाल नहीं है.

ओडिशा के कोरापुट और मलकानगिरी में घने जंगलों से ढके ख़ूबसूरत पहाड़ों की एक श्रंखला है. कोरापुट ज़िले के दक्षिण में पहाड़ों की ऊंचाई समुद्र तल से क़रीब 1100 मीटर है. ज़िले के पूर्वी हिस्से में पहाड़ के ऊपर मैदानी इलाक़ा अपेक्षाकृत ज़्यादा है.

ज़िले के पश्चिमी हिस्से में गारिया घाटी के पहाड़ों की उंचाई सबसे अधिक है. ये पहाड़ समुद्र तल से 1350 मीटर तक ऊंचे हैं. कोरापुट के दक्षिण पश्चिम में मलकानगिरी के पहाड़ हैं, जिनके ऊपर मैदानी इलाक़ा काफ़ी बड़ा है.

मलकानगिरी के ये खूबसूरत पहाड़ हमारी मंज़िल थे. कोरापुट से हम पहले मलकानगिरी ज़िले की तहसील खैरपुट पहुंचे और फिर वंहा से क़रीब 14 किलोमीटर की घुमावदार टूटी-फूटी सड़क से मुदलीपाड़ा पंचायत की तरफ़ बढ़े.

दरअसल ये खूबसूरत पहाड़ और जंगल सदियों से बोंडा या बोंडो आदिवासियों का बसेरा रहे हैं. हमारे इस सफ़र का मक़सद इन आदिवासियों को क़रीब से समझने का था.

पुराने और इस्तेमाल किए हुए कपड़े पहनने को मजबूर बोंडा महिलाएं

जब हम खैरपुट पहुंचे तो पहाड़ी रास्ता शुरू होने से पहले चाय पीने की मंशा से वहां एक जगह पर रुक गए. सड़क पर मेले जैसा माहौल लग रहा था. चाय की दुकान पर बातचीत में पता चला कि पास में ही साप्ताहिक बाज़ार लगा है.

चाय पीने के बाद हम इस साप्ताहिक बाज़ार की तरफ़ बढ़े. इस बाज़ार में बर्तन, मेकअप का सामान, कपड़े, ट्रंक, संदूक, सब्ज़ियों, मसालों, मिठाई जैसी चीज़ों की दुकानें थीं. हम बाज़ार में टहल रहे थे, तभी मेरी नज़र एक बोंडा महिला पर पड़ी. मैं थोड़ा सोचकर उसके पास गया.

मैंने उससे बात करने की कोशिश की तो उसने मेरी बातचीत में कोई ख़ास रुचि नहीं दिखाई. लेकिन जैसे ही उसने नोटिस किया कि मेरे साथी ने उसके साथ मेरा फ़ोटो खींचा है, उसने मेरे सामने हाथ फ़ैलाते हुए डाबो डाबो बोलना शुरू किया.

मैं समझ गया था कि वो पैसे मांग रही है. मैंने पूछा कि मैं उसे पैसे क्यों दूं. तो उसने मेरे साथी की तरफ़ इशारा करते हुए कैमरा दिखाया. मैंने उसे कुछ पैसे दे दिए तो वो हंसती हुई चली गई. यह बोंडा महिला अपने परंपरागत आभूषण पहने हुए थी. लेकिन खुद को एक चद्दर से ढका हुआ था.

दरअसल, बोंडा आदिवासी कभी कभार ही पहाड़ों से नीचे आते हैं. उनकी ज़िंदगी मोटे तौर पर आत्मनिर्भरता के सिध्दांत पर ही चलती है. अपनी ज़रूरतों को पूरा करने के लिये वो बाहरी दुनिया की बजाए जंगल की तरफ़ देखते आये हैं. लेकिन अब बोंडा आदिवासी साप्ताहिक हाटों में आने लगे हैं.

आमतौर पर ये आदिवासी पहाड़ी पगडंडियों पर मीलों पैदल चल कर इन बाज़ारों तक आते हैं. बोंडा आदिवासी इन बाज़ारों में रागी, सरसों, मक्का या बाजरे जैसी चीज़ें लाते हैं. इन चीज़ों को बेचकर ये आदिवासी अपनी ज़रूरत की चीज़ें ख़रीदते हैं.

बोंडा आदिवासी इन बाज़ारों में भी बाकी लोगों के साथ बहुत घुलमिल नहीं पाते. ये आदिवासी आमतौर पर बाज़ारों में बाहर की तरफ़ जिधर पहाड़ों से उतर कर आते हैं, वंही मिलते हैं. यंहा पर वो बांस की टोकरी और अपनी बनाई हुई दूसरी चीज़ों को बेचते हैं.

इसके अलावा यहां बोंडा महिलाएं महुआ या सल्फ़ (ताड़ी) बेचती हैं. इन बाज़ारों में आते हुए बोंडा आदिवासियों को अब कुछ साल हो चुके हैं. लेकिन मुख्यधारा कहे जाने वाले समाज के लोग अभी भी उन्हें अजीब लोगों की तरह ही देखते हैं.

इन आदिवासियों पर शोध में लगे कोरापुट के प्रफुल्ल पाडी कहते हैं कि दरअसल आधुनिक कहे जाने वाला समाज आज भी जिस नज़र से बोंडा महिलाओं को देखता है वो सही नहीं है. यह समाज इन आदिवासी महिलाओं को आज भी अजूबे की तरह देखता है.

यही कारण है कि ये महिलाएं इन साप्ताहिक हाटों में आने से पहले अपना तन ढकने के लिए मैक्सी पहनती हैं. ये मैक्सी आमतौर पर पुरानी होती है, जो इन साप्ताहिक हाटों से ही वो 20-30 रूपए में ख़रीद लेती हैं. इन मैक्सियों का उनके पहाड़ों या बस्तियों में कोई इस्तेमाल नहीं है.

बोंडा महिलाएं पुराने कपड़ों से अपना तन ढकने को मजबूर हैं

इन बाज़ारों में अगर आप बोंडा महिलाओं की तस्वीर लेने की कोशिश करें तो अब वो झिझकती नहीं हैं. बल्कि आपसे पैसे की मांग करती हैं. ऐसा लगता है कि बाहरी दुनिया का दख़ल बोंडा आदिवासियों के लिये, और ख़ासतौर पर उनकी महिलाओं के लिये बहुत अच्छा नहीं रहा है. बाहरी दुनिया के लिये ये आदिवासी महिलाएं नुमाइश की चीज़ ज़्यादा बन गई हैं.

मुदलीपड़ा पंचायत और बोंडा गांव

खैरपुट ब्लॉक में कुल चार पंचायतें हैं और बोंडा आदिवासियों के कुल 32 गांव हैं. बोंडा आदिवासियों से हमारा मिलने का सिलसिला मुदलीपड़ा पंचायत के गांव पुड़ीगुड़ा से शुरू हुआ. इस गांव में कुल 65 बोंडा परिवार हैं.

इस गांव में बोंडा आदिवासियों की कुल आबादी क़रीब 300 है. गांव के ज़्यादातर घर कच्चे हैं और उनकी छत खपरैल की है. लेकिन कुछ घरों की छत टिन की भी नज़र आती है.ये टिन की चादरें शायद सरकार की तरफ़ से किसी आपदा के समय इन आदिवासियों को मिली थीं. छतों पर मिर्ची या फिर जंगल से मिलने वाले फल-फूल सूखते दिखाई देते हैं.

बोंडा महिलाएं ख़ास अंदाज़ में सजती संवरती हैं.ये महिलाएं सिर पर बाल बिल्कुल नहीं रखतीं. ये महिलाएं हर दूसरे-तीसरे दिन अपना सिर मुंडा लेती हैं. लेकिन हाथ से बनाई हुई ख़ास तरह की रंग बिरंगी बारीक़ मालाओं से अपने सिर को ढकती हैं.

ये महिलाएं अपने कानों में बड़े बड़े झुमके पहनती हैं. ये झुमके आमतौर पर कान के ऊपरी हिस्से से लटकाए जाते हैं. लेकिन बोंडा महिलाएं गले में जो आभूषण पहनती हैं वो अपने आप में विशेष हैं.

ये आभूषण चांदी, एल्युमिनियम या फिर लोहे के होते हैं. बोंडा महिलाएं शरीर के ऊपरी हिस्से पर कोई कपड़ा नहीं पहनतीं. लेकिन रंग बिरंगी बारीक मालाओं से ऊपरी हिस्से को ढकती हैं. कमर के हिस्से में एक कपड़ा बांधा जाता है जिसे रिंगा कहते हैं. बोंडा महिलाएं रिंगा घर पर ही बुनती हैं.

बोंडा पुरूष भी कपड़े नहीं पहनते, बस एक लंगोटी उनके शरीर पर होती है.

बोंडा आदिवासी दरअसल बोंडा आदिवासी नहीं हैं

बोंडा आदिवासियों में परिवार का खाना जुटाने की ज़िम्मेदारी महिलाओं की ही होती है.बोंडा आदिवासी अपनी ख़ास सामाजिक पहचान को बनाये रखने को लेकर काफी सचेत रहते हैं. ये आदिवासी अपने समुदाय के भीतर ही शादी ब्याह करते हैं. इसके अलावा बोंडो बोली और ग़ैर बोंडो बोली और लहज़े में ये आदिवासी स्पष्ट फ़र्क करते हैं.

बोंडा आदिवासियों को बोंडा या बोंडो बाहरी लोगों का दिया नाम है. कुछ एंथ्रोपोलोजिस्ट ने हमें बताया कि ये आदिवासी खुद को रेमो कहते हैं.

बोंडा आदिवासियों की वंश परंपरा को दो भागों में माना जाता था – ओंतल यानि नाग और किलो यानि बाघ. लेकिन अब ये विभाजन एक मिथक ही बनकर रह गया है. फ़िलहाल बोंडा एक ही आदिवासी पहचान रखते हैं. हांलाकी इनमें कुलों के हिसाब से विभाजन हैं.

ये कुल इन आदिवासी समूहों के मुखिया या पुजारी के नाम से जाने जाते हैं जिन्हें कुदा कहते हैं.बोंडा आदिवासियों में इस तरह के नौ कुल या समूह हैं. ये कुल या कुदा बदनायक, सीसा, धांगडा माझी, किरसानी, मुदली, दोरा, जिगरी, चालन और मंदरा हैं.

पुड़ीगुड़ा गांव किरसानी बोंडा आदिवासियों का है. बोंडा आदिवासी अपने ही कुल में शादी को प्राथमिकता देते हैं. लेकिन कई बार बोंडा दूसरे कुल में भी शादी कर लेते हैं.बोंडा आदिवासियों में युवकों और युवतियों को अपना साथी चुनने के लिये विशेष अवसर दिया जाता है.

इन आदिवासियों में युवकों और युवतियों के लिये अलग-अलग सामुदायिक भवन (Dormitories) होते हैं, जिसमें इन्हें अपने समुदाय की परंपराओं और आर्थिक गतिविधियों की ट्रेनिंग दी जाती है.

इसी दौरान इन युवकों और युवतियों को अपने साथी चुनने का अवसर भी मिलता है. यह पूरी प्रक्रिया समुदाय के बुज़ुर्गों की देखरेख में चलती है.दो परिवारों के सदस्य मिलकर भी शादी तय करते हैं. लेकिन कई बार लड़के के परिवार को लड़की के परिवार को खुश करने के लिये काफ़ी मशक्कत करनी पड़ती है.

आमतौर पर लड़के वाले लड़की का हाथ मांगने उसके परिवार के पास जाते हैं. लेकिन इन आदिवासियों में लड़की की सहमति के बाद ही शादी तय हो पाती है.जब लड़की सहमत हो जाती है तो लड़के का परिवार कुछ उपहार लेकर उसके घर जाता है. आमतौर पर उपहार में शराब और दूसरी खाने की चीज़े होती हैं.

बोंडा आदिवासियों में गैर आदिवासियों से शादी ब्याह को अच्छा नहीं माना जाता.शायद इसीलिए इस तरह की घटनाएं भी ना के बराबर हैं. लेकिन अगर कोई लड़का या लड़की ऐसा करता है तो उसके साथ सामाजिक बहिष्कार जैसा व्यवहार नहीं किया जाता. आमतौर पर बोंडा समाज इस तरह के रिश्तों को स्वीकार कर लेता है.

पुड़ीगुड़ा गांव में हमारी मुलाक़ात अमरनाथ बहरा से हुई जो दरअसल यहां एक प्राइमरी टीचर के तौर पर आए थे. लेकिन उन्हें यहां एक बोंडा लड़की से प्यार हो गया. उन्होंने उस लड़की से शादी कर ली और अब इसी गांव में रहते हैं. अमरनाथ बहरा के मां-बाप ने कई साल बाद भी इस शादी को स्वीकार नहीं किया है. लेकिन उनकी पत्नी के परिवार ने उन्हें अपना लिया है.

सिंडीबर और पटखांडा

पुड़ीगुड़ी गांव के बीच में एक पेड़ के नीचे एक बड़ा से चबूतरा था. इस चबूतरे पर कुछ बड़े-बड़े पत्थर पड़े हुए थे. गांव के लोगों ने हमें बताया कि ये गांव का सिंडीबर है. उनके अनुसार यह पूरे बोंडा आदिवासी समाज के लिए अहम जगह होती है – धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक दृष्टि से.

इस गांव के एक नौजवान लबो किरसानी ने सिंडीबर के बारे में बताते हुए कहा “हमारे सुख-दुख, न्याय, त्यौहार सभी यहीं पर तय होते हैं. त्यौहार भी यहीं पर मनाये जाते हैं. बारिक (धर्मगुरू) इस पेड़ के नीचे बैठकर सबको त्यौहार की सूचना देते हैं.यहीं पर बली चढ़ाई जाती है और बंधु बांधवों के साथ त्यौहार मनाया जाता है.”

बोंड़ा आदिवासी आमतौर पर अपने पुरखों और अलग-अलग देवताओं की पूजा करते हैं. बोंड़ा आदिवासियों के लिये पटखांडा सबसे बड़ा आराध्य देव है. बोंडा आदिवासी इस देव की तुलना ‘सिन्गी’ और ‘अरके’ यानि चांद और सूरज से करते हैं.

पटखांडा दरअसल एक तलवार है जिसे मुदलीपड़ा में उसर के एक विशाल पेड़ की खोह में रखा जाता है. साल में एक बार बोंडा समुदाय के लोग इस तलवार की पूजा करते हैं. बोंडा आदिवासियों में सीसा या पुजारी की सामाजिक प्रतिष्ठा काफ़ी ऊंची होती है.

इसके अलावा देसारी को भी सामाजिक प्रतिष्ठा के लिहाज़ से अहम स्थान मिलता है.देसारी दरअसल ओझा होता है जो त्यौहारों का समय तय करने के अलावा बिमारियों का इलाज भी करता है.

प्रशासन और बोंडा आदिवासी विकास

बोंडा आदिवासियों को प्रशासनिक लिहाज़ से दो हिस्सों में बांटा गया है.एक वो बोंडा आदिवासी जिन्होंने समय के साथ पहाड़ों से नीचे उतरकर अपनी बस्तियां बसा लीं और मुख्यधारा कहे जाने वाले समाज के संपर्क में आ गये. उनकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति भी कुछ हद तक सुधरी है.

दूसरी श्रेणी में उन बोंडा आदिवासियों को रखा गया जो अभी भी पहाड़ों पर जंगल में रहते हैं. इन्हेंऊपरी बोंडा या पहाड़ी बोंडा कहा जाता है. इन आदिवासियों को PVTG यानि आदिम जनजाति की श्रेणी में रखा गया है.

ऊपरी बोंडा आदिवासियों के विकास के लिये 1977 में बोंडा डेवलपमेंट एजेंसी की स्थापना की गई. इस एजेंसी को केन्द्र से विशेष बजट दिया जाता है और यह एजेंसी ओडिशा सरकार की देख रेख और प्रशासनिक नियंत्रण में काम करती है.

खैरापुट ब्लॉक के मुदलीपड़ा में एजेंसी का कार्यालय है. इस एजेंसी के अलावा सरकार के कई विभागों की भी इन आदिवासियों के लिये काम करने की ज़िम्मेदारी है.

यहां पर मंगा पन्ना से हमारी मुलाक़ात हुई जोउस समय बोडो डेवलपमेंट ऑथोरिटी के प्रॉजेक्ट लीडरथे. उन्होंने बतया कि खैरपुट एक ब्लॉक है तो यहां पर ITDA भी काम करता है. इसके अलावा आदिवासी विभाग की भी योजनाएं चलती है.

यहां पर मनरेगा भी काम करता है. लेकिन वो इस बात का जवाब नहीं दे पाए कि आख़िर इतनी सारी योजनाओं का लाभ इन आदिवासियों को कितना मिला, और अगर नहीं मिला तो क्यों नहीं मिला. मोटेतौर पर उनकी नज़र में ये आदिवासी अपने फ़ायदे की बात भी नहीं समझते. दरअसल ये आदिवासी अपनी सामाजिक मान्यताओं और मूल्यों के साथ ही जीना चाहते हैं.

बोंडा जनसंख्या में गिरावट और वृध्दि का सच क्या है

एक समय ऐसा आया जब बोंडा आदिवासियों की जनसंख्या लगातार कम होने लगी. इन आदिवासियों के वजूद को ख़तरा पैदा हो गया. जनगणना आंकडों में बोंडा आदिवासियों की आबादी 1941 में 2565 रह गई. लेकिन अगले दो दशक में इनकी जनसंख्या में बढ़ोत्तरी दर्ज हुई.

1961 में इनकी आबादी 4667 दर्ज हुई. 1971 में, बोंडा आदिवासियों की कुल आबादी 5338 बताई गई, और 1981 की जनगणना में 5895. यानि 70 के दशक में एकबार फिर इनकी आबादी में वृध्दि दर सुस्त हुई. फ़िलहाल पहाड़ी बोंडा आदिवासियों की आबादी 8000 बताई जा रही है.

बोंडा आदिवासी आबादी की वृध्दि दर में एक और बात नोटिस करने लायक है कि अलग-अलग दशकों में बोंडा आबादी के लिंगानुपात में फ़र्क आया है. मसलन, 1961 की जनगणना में महिलाओं की संख्या में कमी आई. इस जनगणना में 1000 पुरुष कि तुलना में 921 महिलाएं थीं.

लेकिन ताज़ा हालात बेहतर हुए हैं. बोंडा आदिवासियों में लिंगानुपात भी बेहतर हुआ है. बल्कि पुरुषों के मुक़ाबले महिलाओं की संख्या बढ़ी है. इसके अलावा जनसंख्या वृध्दि दर भी नकारात्मक नहीं है.

इसका कुछ श्रेय मंगा पन्ना सरकारी योजनाओं को देते हैं. वो कहते हैं कि एक समय में इन आदिवासियों को आक्रामक और बेहद ख़तरनाक समुदाय माना जाता था. उस समुदाय तक पहुंचना ही एक दुष्कर काम था.

लेकिन धीरे-धीरे प्रशासन ने इस समुदाय के कुछ लड़कों को अपने प्रयासों में शामिल किया, और उसके बाद प्रशासन इन आदिवासियों में काफ़ी हद तक पहुंच गया.वो कहते हैं कि 5-7 साल पहलेभी इन आदिवासियों से मिलना तक आसान नहीं था. बाहर से आने वाले लोगों पर ये आदिवासी तीरों से हमला कर देते थे.

प्रशासन के दावों में खोट नज़र आता है. एक तरफ़ प्रशासन कहता है कि 5-7 साल पहले बोंडा आदिवासियों तक पहुंचना भी संभव नहीं था. लेकिन अब दावा करता है कि उनकी आबादी प्राशसन के प्रयासों से बढ़ी है.

लेकिन आदिवासियों में पिछले 3-4 साल काम करने के बाद मुझे लगता है कि दरअसल प्रशासन पहले इन आदिवासियों की जनगणना के आंकडे अनुमान से ही जुटाता था, क्योंकि एक तो ये आदिवासी बाहरी लोगों को संदेह की नज़र से देखते थे, दूसरा इनकी बस्तियों तक पहुंचना आसान नहीं था.

लेकिन अब इनकी ज़्यादातर बस्तियों तक रास्ते बन गए हैं.

बोंडा आदिवासी और शिक्षा

बोंडा आबादी में साक्षरता दर बेहद ख़राब रही है. इस मामले में जनगणना आंकडों पर ध्यान दें तो 1961 में बोंडा आदिवासियों की साक्षरता दर थी 2.14 प्रतिशत, 1971 में ये साक्षरता दर पहले से भी कम दर्ज की गई – 1.42 प्रतिशत. 1981 में बोंडा आदिवासियों में साक्षरता दर कुछ बढ़ी हुई बताई गई और ये दर थी 3.61 प्रतिशत. इन तीनों ही दशकों में महिला साक्षरता दर एक प्रतिशत भी नहीं पहुंची.हालांकिबताया जा रहा है कि पिछले कमसे कम दो दशकों में बोंडा आबादी की साक्षरता दर में कुछ सुधार हुआ है.

बोंडा डेवलपमेंट ऑथोरिटी ने लड़कियों के लिए अलग से स्कूल बनाए हैं. ऑथोरिटी का दावा है कि अब बोंडा आदिवासियों में साक्षरता दर 27 प्रतिशत है. हांलाकि इस दावे पर भरोसा करना बेहद मुश्किल है.

बोंडा डेवलपमेंटऑथोरिटी और इन आदिवासियों के विकास से जुड़ी दूसरी एजेंसियों ने बोंडा आदिवासियों के बीच शिक्षा के प्रसार के लिये प्रयास भी किये हैं, और काफ़ी पैसा भी ख़र्च किया है. लेकिन इस पैसे का ज़्यादातर हिस्सा स्कूलों की इमारतों पर ख़र्च हुआ है. बोंडा आदिवासियों केबच्चों को स्कूल तक लाना अभी चुनौती है. साथ ही इन बच्चों को पढ़ाने के लिये अच्छे अध्यापक मिलना भी चुनौती है.

बोंडा विकास की योजनाओं में चूक क्या है

कोरापुट स्थित कोट्स (Council of Analytical Tribal Studies) के निदेशक पी सी महापात्रा ने वर्षों से बोंडा और उनके आस-पास के आदिवासियों पर काम किया है. उनकी नज़र में सरकार को इन आदिवासियों की लिए विकास या कल्याण की योजनाएं बनाने से पहले इस समाज के बारे में ठीक समझ बनानी ज़रूरी है. उनकी नज़र में यही प्रशासन की सबसे बड़ी चूक है.

पीसी महापात्रा कहते हैं कि पिछले लगभग चार दशक से ना सिर्फ़ बोंड़ा विकास एजेंसी बल्कि सरकार के अलग-अलग विभागों ने बोंडा आदिवासियों के विकास की कई योजनाएं बनाई हैं. लेकिन इन प्रयासों के बेहद सीमित परिणाम ही सामने आये हैं.

हालांकि वो मानते हैं कि आदिवासियों के लिये बनाई जाने वाली योजनाओं में लगातार प्रयोग हुए हैं, और प्राथमिकाएं लगातार बदलती रही हैं. लेकिन उनकी नज़र में जो काम बेहद ज़रूरी था, वो नहीं किया गया.

मसलन, वो कहते हैं कि इन आदिवासियों में पशुपालन दूध के लिए नहीं बल्कि मांस के लिए किया जाता है. मसलन बोंडा आदिवासी परिवार साल में एक बार भैंस या गाय की बलि देता है. इसके अलावा इनके खाने में भैंस, गाय और सूअर का मांस शामिल है. इसके अलावा ख़रगोश जैसे छोटे जंगली जानवर का शिकार भी ये लोग करते हैं.

इन आदिवासियों में जब शादी होती है तो ब्राइड प्राइस के तौर पर गाय या भैंस लड़की के परिवार को दी जाती है.

लेकिन इन आदिवासियों में अभी भी गाय भैंस की नई नस्लों के बारे में जानकारी नहीं है. इसके साथ ही कैसे इन पशुओं की संख्या बढ़ाई जा सकती है इसका अंदाज़ा उन्हें नहीं है. प्रशासन की तरफ से उन्हें इस बारे में जानकारी और ट्रेनिंग दी जा सकते है.

सबसे बड़ी बात ये है कि प्रशासन को समझना होगा कि ये आदिवासी पशुओं का दूध नहीं पीते हैं. बल्कि मांस के लिए उन्हें इन पशुओं की ज़रूरत होती है. पशुओं की कमी से उनके पोषण पर फ़र्क पड़ता है.

आदिवासियों को संवधानिक और क़ानूनी हक़ दिलाने के लिये कई एजेंसी और विभाग काम करते हैं. लेकिन आमतौर पर इन विभागों की कोशिशें कामचलाऊ और सतही होती हैं.अफ़सोस की बात ये है कि जब योजनाएं और नीतियां ज़मीन पर नाकामयाब होती हैं तो दोष आदिवासी समुदाय को दिया जाता है.

2006 में आदिवासियों के अधिकार के लिये वनाधिकार क़ानून बना, लेकिन बोंडा आदिवासियों को इस क़ानून का कुछ ख़ास फ़ायदा नहीं हुआ, क्योंकि उनकी ज़मीन का सहीसही रिकॉर्ड आजतक उपलब्ध नहीं है.

बोंडा आदिम जनजाति के साथ सरकार और आधुनिक कहे जाने वाले समाज का अब एक स्थाई संपर्क बन चुका है. इन आदिवासियों की क्या स्थिति है और क्यों है यह समझने की ज़रूरत है.

आधुनिक कहे जाने वाले समाज या प्रशासन ने उनके विकास के नाम पर उनकी दुनिया में दख़ल ही दिया है. अब ये ज़िम्मेदारी सरकार और आधुनिक सामाज की है कि वो इमानदारी से इन आदिवासियों के विकास का काम किया जाए.

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