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जव्हार का सोनगिरी पाड़ा, गर्मी में पानी को तरसता है तो पानी की वजह से 3 महीने कट जाता है

इस गाँव में वारली आदिवासी रहते हैं. "सोनगिरी पाड़ा आने का शायद यह सबसे ख़राब समय है" मैंने कहा तो जवाब एकनाथ से आया था. उन्होंने कहा कि मानसून में यह इलाक़ा इतना खूबसूरत हो जाता है कि बताया नहीं जा सकता है. नदी लबालब भर कर चलती है और पहाड़ों पर जो पेड़ आज बिना पत्तों के कंकाल जैसे नज़र आते हैं सब हरे-भरे हो जाते हैं. लेकिन उन्होंने आह भरते हुए कहा था, "आप मानसून के तीन महीने इस गाँव में नहीं पहुँच सकते हैं. क्योंकि नदी में पानी बहुत होता है और पुल है नहीं".

महाराष्ट्र की जव्हार तहसील से क़रीब 19 किलोमीटर दूर बसा है आइन गाँव का सोनगिरी पाड़ा. इस गाँव तक पहुँचने के लिए पहाड़ी घुमावदार सड़क से हो कर जाना पड़ता है. दो पहाड़ों के बीच से बहती पिंजाल नदी के किनारे बसी इस छोटी सी बस्ती तक पहुँचने के लिए आपको गाड़ी नदी किनारे छोड़नी पड़ती है.

यहाँ से क़रीब दो किलोमीटर पैदल ही चलना पड़ता है. अप्रैल महीने के पहले सप्ताह में जब हम यहाँ पहुँचे तो ज़बरदस्त गर्मी थी. गाड़ी से उतरते ही लू के थपड़े पड़े. इस गर्मी में मुझे और मेरे साथियों को सामान लाद कर सोनगिरी पाड़ा तक जाना था.

लू के अलावा पत्थरों से टकरा कर सूरज की चमक से आँखें चौंधिया रही थीं. भला हो सोनगिरी के कुछ लोगों का जिन्होंने हमारा सामान ढोने में हमारी मदद की. गाँव में पहुँच कर थोड़ी देर सुस्ताए और इस दौरान गाँव के बारे में कुछ बातें हुईं.

यहाँ हम से मिलने के कुछ आस-पास की बस्तियों के लोग भी आए हुए थे. इनमें से शांताराम और एकनाथ हिंदी में बातें कर पा रहे थे. औरतें बात करने में थोड़ा संकोच कर रही थीं. लेकिन थोड़ी देर में औरतें भी सहज हो गईं.

इस गाँव में वारली आदिवासी रहते हैं. “सोनगिरी पाड़ा आने का शायद यह सबसे ख़राब समय है” मैंने कहा तो जवाब एकनाथ से आया था. उन्होंने कहा कि मानसून में यह इलाक़ा इतना खूबसूरत हो जाता है कि बताया नहीं जा सकता है.

नदी लबालब भर कर चलती है और पहाड़ों पर जो पेड़ आज बिना पत्तों के कंकाल जैसे नज़र आते हैं सब हरे-भरे हो जाते हैं. लेकिन उन्होंने आह भरते हुए कहा था, “आप मानसून के तीन महीने इस गाँव में नहीं पहुँच सकते हैं. क्योंकि नदी में पानी बहुत होता है और पुल है नहीं”.

गाँव के लोगों से आगे बातचीत हुई तो पता चला कि यह मौसम है जब जंगल में झड़े हुए पत्ते पूरी तर से सूख चुके हैं. अब इन पत्तों को हटा कर खेत तैयार किये जा रहे हैं. उन्होंने बताया कि यहाँ के आदिवासी जंगल के बीच में ही पत्ते हटा कर बीज डालने की तैयारी कर रहे हैं.

बरसात आने से पहले ही पत्तों को हटाना पड़ता है, क्योंकि पत्तों अगर नहीं हटाया जाएगा तो बीज ज़मीन तक पहुँचेगा ही नहीं. तपती दोपहर में जंगल में पत्तों का ढेर बनाती कई औरतें हमें नज़र आई थीं.

लेकिन समझ नहीं आ रहा था कि बड़ी बड़ी झल्लियों में पत्तों को भर कर वो क्यों ले जा रही हैं? गाँव में बातचीत में पता चला कि यह तो खेत तैयार किया जा रहा है.

एकनाथ के घर पर बैठे बैठे शाम के चार बज गए थे. अब धूप की चमक में थोड़ा पीलापन आना शुरू हो गया था. गाँव के लोगों ने प्रस्ताव दिया कि क्या हम नदी की तरफ़ चलना चाहेंगे.

हमने कहा कि नदी में तो पान ना के बराबर है तो उन्होंने बताया कि गाँव के पीछे की तरफ़ एक जगह है जहां पानी रहता है. वहाँ मछली भी पकड़ी जाती हैं.

हम उनके साथ नदी की तरफ़ निकल पड़े. रास्ते भर इन लोगों से बातचीत भी होती रही. इस बातचीत में पता चला कि इस मौसम में पीने के पानी की बड़ी क़िल्लत रहती है. नदी के पास गाँव होने के बावजूद पीने के पानी का कोई स्थाई बंदोबस्त नहीं है.

फ़सल एक ही होती है क्योंकि खेती पूरी तरह से पानी के भरोसे है. नदी के रास्ते में काजू के पेड़ नज़र आए. गाँव के लोगों ने बताया कि यहाँ काजू और अमरूद खूब होते हैं. इनसे आय भी थोड़ी ज़्यादा होती है.

लेकिन यहाँ पर कोई बड़े बाग़ान दिखाई नहीं देते. जैसे डाहणू तहसील में चीकू और काजू के बाग़ान मिलते हैं. हम नदी पर गए और वहाँ से पकड़ कर ताज़ा मछली लाए.

जो मछली हम लोग ले कर आए थे उसे कुसुम ने पकाया था. मछली पका रहीं थीं तो उनसे भी बातचीत हुई. कुसुम पढ़ी लिखी नहीं हैं, इसलिए उनको अपनी उम्र का सही सही अंदाज़ा नहीं है.

उनके तीन बच्चे हैं और तीनों ही पढ़ते हैं. उन्होंने बताया कि बड़ी बेटी दसवीं क्लास में है. जब उन्होंने यह बताया तो मेरे मन से दुआ निकली की उनकी बेटी दसवीं में पास हो जाए. क्योंकि इस इलाक़े में हमारी कई परिवारों से मुलाक़ात हुए थी.

यहाँ पर अगर कोई बच्चा फेल हो जाए तो फिर स्कूल नहीं भेजा जाता है. लड़कियों के मामले में तो यह नियम सा बन गया है. कुसुम ने बताया कि स्कूल क़रीब पाँच किलोमीटर दूर है और बच्चों को पैदल ही स्कूल जाना पड़ता है.

यहाँ पर अगर कोई बीमार हो जाए तो उसे डॉक्टर तक ले जाने से पहले सड़क तक पहुँचने का संघर्ष होता है. इसके लिए बांस में कपड़ा बांध कर डोली बनाई जाती है जिसमें मरीज़ को ले जाया जाता है.

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