HomeAdivasi Dailyअंग्रेजों के ज़माने की दबी सड़क को आदिवासियों ने ढूँढ निकाला

अंग्रेजों के ज़माने की दबी सड़क को आदिवासियों ने ढूँढ निकाला

आदिवासियों ने अपने गाँव से स्कूल तक की पाँच किलोमीटर की सड़क को मिल जुल कर साफ़ किया है. लेकिन इस सड़क की मरम्मत तो अभी भी एक चुनौती है. उम्मीद है कि ज़िम्मेदार अफ़सर कम से कम अब इस आदिवासी गाँव के लोगों की तकलीफ़ और ज़रूरत को समझेंगे.

आंध्र प्रदेश के अल्लूरी सीताराम राजू ज़िले के एक आदिवासी गाँव के लोगों ने मिल कर 5 किलोमीटर का रास्ता तैयार किया है. इस गाँव के लोगों ने तीन दिन लगातार काम करके यह रास्ता इसलिए बनाया है कि उनके बच्चे स्कूल जा सकें. 

इस गाँव के बच्चों का स्कूल 5 किलोमीटर दूर है. इस स्कूल तक पहुँचने के रास्ते में कम से कम चार किलोमीटर का रास्ता ऊबड़ खाबड़ और कांटेदार झाड़ियों से भरा था. 

गाँव के बच्चों को स्कूल पहुँचाने के लिए गाँव के बुजुर्ग लोग घोड़े का इस्तेमाल कर रहे थे. लेकिन गाँव के लोग पूरी स्थिति से काफ़ी दुखी थे. इसके बाद एक दिन गाँव के लोगों ने यह तय कर लिया कि वे मिल कर ख़ुद ही रास्ता बना लेंगे.

इसके लिए उन्होंने मिल कर काम शुरू किया और तीन दिनों में रास्ते से झाड़ियों और पत्थरों को साफ़ कर दिया. अब चार किलोमीटर का रास्ता साफ़ हो चुका है. लेकिन गाँव के लोगों के सामने अभी इस रास्ते को पक्का करने की चुनौती है.

अभी के मौसम में तो इस रास्ते में कोई परेशानी नहीं होगी, लेकिन बारिश के मौसम में कच्चे रास्ते से निकलना मुश्किल काम होगा. दरअसल निरदु बाँदा नाम का यह छोटा सा गाँव एक पहाड़ी चोटी पर बसा है. 

यह गाँव पंचायत मुख्यालय चिमलापदु से कम से कम 16 किलोमीटर दूर है. जबकि मंडल मुख्यालय यानि तहसील से इस गाँव की दूरी कम से कम 25 किलोमीटर दूर होगी. 

इस गाँव के 12 बच्चे क़रीब 5 किलोमीटर दूर के प्राइमरी स्कूल में पढ़ते हैं. गाँव के लोगों के अनुसार जिस पहाड़ी चोटी पर गाँव बसा है वहाँ तक पहुँचने तक कभी सड़क बनी ज़रूर थी. लेकिन शायद वह अंग्रेजों का समय था.

अब उस सड़क को ढूँढना बहुत मुश्किल था. गाँव के लोगों ने झाड़ी और कबाड़ को हटा कर सड़क को ढूँढ निकाला है. लेकिन ज़ाहिर है कि इस सड़क की हालत बहुत ख़राब है. 

गाँव के लोगों का कहना था कि उन्होंने कई बार मंडल विकास अधिकारी को गाँव की सड़क के हालात बताए. उन्होंने बार बार विकास अधिकारी से सड़क की मरम्मत और साफ़ सफ़ाई की गुहार लगाई.

लेकिन अंततः उन्हें ख़ुद ही यह काम करना पड़ा. क्योंकि किसी अधिकारी ने उनकी सुनवाई नहीं की और गाँव के बच्चों की मुश्किलें बढ़ रही थीं.

इस गाँव की ख़ास बात ये है कि यहाँ पर जो आदिवासी रहते हैं उन्हें आदिम जनजाति या विशेष रूप से पिछड़ी जनजाति (PVTG) की श्रेणी में रखा गया है. 

कोंध जनजाति के इस गाँव ने यह दिखाया है कि आदिवासियों में पढ़ने की ललक बढ़ रही है. लेकिन अफ़सोस की बात ये है कि जिनकी ज़िम्मेदारी में यह काम शामिल है कि ज़्यादा से ज़्यादा आदिवासी बच्चे स्कूल आ सकें, वे अपना फ़र्ज़ पूरा नहीं कर रहे हैं. 

इस गाँव की कहानी में यह समझना बेहद ज़रूरी है कि यह समुदाय ऐसी श्रेणी में जिसमें उन आदिवासी समुदायों को रखा जाता है जिनकी जनसंख्या में कमी भी चिंता का एक बड़ा कारण है. 

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