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आदिवासियों और पिछड़ी जातियों की समुचित हिस्सेदारी के लिए जातिगत और धार्मिक जनगणना ज़रूरी – बंधु तिर्की

बंधु तिर्की ने कहा कि देश की जनगणना में अलग धार्मिक अस्तित्व की मांग करोड़ों आदिवासी की जन भावना से जुड़ा है. करोड़ों आदिवासी दशकों से अलग धार्मिक पहचान की मांग कर रहे हैं. झारखंड सहित देश के कई राज्यों के विधानमंडलों से प्रस्ताव पारित कर केंद्र सरकार को भेजा गया है लेकिन इससे संबंधित अब तक कोई कार्रवाई नहीं की गई है.

राजनीतिक पार्टियों के भीतर से जाति आधारित जनगणना कराने की मांग ज़ोर पकड़ रही है. यहाँ तक कि सत्ताधारी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानी एनडीए के सहयोगी दल भी इसकी मांग कर रहे हैं. अब झारखंड के पूर्व मंत्री और विधायक बंधु तिर्की ने जातिगत और धार्मिक जनगणना कराने की मांग की है.

उन्होंने कहा कि स्वार्थी तत्व जातिगत जनगणना से पीछे हट रहे हैं. लोकसभा और राज्यसभा के आदिवासी, दलित और पिछड़ों के अधिकांश सांसद इन सवालों पर चुप्पी साध लेते हैं. झारखंड के सांसदों की भी यही स्थिति है. उन्होंने कहा कि जातिगत जनगणना होनी चाहिए ताकि जनगणना के अनुपात में सब की समुचित हिस्सेदारी हो.

बंधु तिर्की ने तर्क दिया कि राज्य सरकार को जाति और धार्मिक जनगणना के लिए अपने प्रारूप के साथ आना चाहिए.

तिर्की ने कहा, “लोकसभा द्वारा ओबीसी समूहों की पहचान करने के लिए 127वें संविधान संशोधन को पारित करने के बाद राज्य को अब शक्तियां मिल गई हैं. लेकिन अगर हम जाति उप-समूहों की सही संख्या नहीं जानते हैं तो इसका क्या अर्थ होगा? आदिवासियों और मुसलमानों में भी कई उपजातियाँ हैं. हमें उनकी संख्या का पता लगाने की जरूरत है.”

बंधु तिर्की ने कहा कि पिछले पांच सालों की रिपोर्ट से ये साफ हो चुका है कि देश के बड़े-बड़े शैक्षणिक संस्थान जातिगत उत्पीड़न के कब्रगाह हो चुके हैं. देश के टॉप 7 आईआईटी में पिछले 5 साल में अंडर ग्रैजुएट कोर्सेज के ड्रॉपआउट 63 फ़ीसदी है. यह आंकड़ा राज्यसभा में पूछे गए सवाल पर शिक्षा मंत्रालय की ओर से दिया गया है. इनमें लगभग 40 फ़ीसदी अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति हैं.

कुछ संस्थानों में तो यह आंकड़ा 72 फीसदी तक है. यह तब होता है जब उच्चतर शैक्षणिक संस्थानों में इन समुदाय के छात्रों को अत्याधिक दबाव और जातिगत भेदभाव का शिकार होना पड़ता है.

बंधु तिर्की ने कहा कि देश की जनगणना में अलग धार्मिक अस्तित्व की मांग भी करोड़ों आदिवासी की जन भावना से जुड़ा है. करोड़ों आदिवासी दशकों से अलग धार्मिक पहचान की मांग कर रहे हैं. झारखंड सहित देश के कई राज्यों के विधानमंडलों से प्रस्ताव पारित कर केंद्र सरकार को भेजा गया है लेकिन इससे संबंधित अब तक कोई कार्रवाई नहीं की गई है.

झारखंड में यह मांग इसलिए भी गंभीर हो जाती है कि क्योंकि संताल, उरांव, मुंडा जैसे बड़े आदिवासी समूहों के अलावा आदिम जनजाति और उपेक्षित जनजातियां हैं, जिनकी आबादी कम है पर धार्मिक विश्वास प्रकृतिवादी है.

तिर्की ने कहा कि कई जातियां अनुसूचित जनजाति होने का दावा भी करती हैं और कई समूहों के दावों में सच्चाई भी हो सकती है. पिछड़े और अति पिछड़े समुदाय लंबे समय से यह मांग कर रहे हैं. जनगणना के अंतर्गत हम जानवरों तक की गणना करते हैं लेकिन पिछड़े, अति पिछड़ों के आंकड़े हमारे पास नहीं है. यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि उनके कल्याण कि हम योजनाएं बनाते हैं लेकिन उनके आधिकारिक आंकड़े हमारे पास नहीं है.

इसलिए यह जानना जरूरी है कि उनकी जनसंख्या और धार्मिक विश्वास पद्धति क्या है. इसके बगैर हम सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक विकास की योजनाएं नहीं बना सकते हैं और ना ही उनके अस्तित्व और धार्मिक पहचान को सुरक्षित रख सकते हैं.

अगर जातिवार जनगणना के आंकड़े हों तो कई वंचित और पिछड़े समुदायों को नौकरी और शैक्षणिक संस्थानों में समुचित प्रतिनिधित्व मिल सकता है.

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