छत्तीसगढ़ के हसदेव अरण्य के जंगल काफी प्रचीन है. साथ ही जैव-विविधता और इकोलॉजी से संपन्न. लेकिन कोयला खनन को लेकर पिछले एक दशक से यह जंगल बहस का केंद्र रहा है.
भारतीय वानिकी अनुसंधान एवं शिक्षा परिषद (ICFRE) की एक स्टडी के सामने आने के बाद जंगल में खनन को लेकर चर्चा फिर गर्म हुई है. ऐसे में भारत के हसदेव वन के सैकड़ों आदिवासी ग्रामीणों ने अपनी भूमि पर कोयला खनन के बड़े पैमाने पर विस्तार की सरकार की योजनाओं के विरोध में कल से एक रैली और मार्च शुरू करने का फैसला लिया है.
आदिवासी समुदायों के लोग जो जंगल में रहते हैं वो गांधी जयंति (2 अक्टूबर) पर रैली निकालेंगे. फिर 4 से 13 अक्टूबर के बीच 300 किलोमीटर की दूर स्थित छत्तीसगढ़ की राजधानी तक मार्च करेंगे.
हसदेव जंगल की अहमियत
हसदेव जंगल 170,000 हेक्टेयर इलाक़े में फैला है और देश में सबसे बड़े अनछुए जंगलों में से एक है. हसदेव जंगल गोंड, उरांव, लोहार, कुंवर और दूसरे क़रीब 10,000 आदिवासियों का घर भी है. यह भारत के सबसे समृद्ध और सबसे जैव विविधता वाले क्षेत्रों में से एक है.
मोदी सरकार इलाक़े में नई कोयला खदानों को खोलने की योजना को तेज़ी से बढ़ावा दे रही हैं. लेकिन अगर खदानें आगे बढ़ती हैं तो जंगल और उसके लोग नष्ट हो जाएंगे.
भारत भर में 55 नई कोयला खदानों को खोलने और 193 मौजूदा खदानों का विस्तार करने के सरकार के प्लान से कोयले का उत्पादन बढ़कर 1 बिलियन टन हो जाएगा. अडानी, वेदांता और आदित्य बिड़ला समेत भारत की सबसे बड़ी कंपनियों को कोलफील्ड्स की नीलामी की जा रही है.
आदिवासी भूमि में खनन वहां के लोगों की सहमति के बिना आगे नहीं बढ़ना चाहिए. ऐसे में यह नीलामी अवैध है. देशभर में आदिवासियों ने खदानों का गहरा विरोध किया है, क्योंकि उन्होंने क़रीब से देखा है कि खनन कैसे जंगलों और उनमें रहने वाले समुदायों को नष्ट करता है.
खनन का विरोध देशभर के आदिवासियों के लिए आम बात है, चाहे वो बुलडोज़र रोकना हो, या शांतिपूर्ण विरोध करना. इस विरोध का आदिवासियों को नुकसान भी झेलना पड़ा है. कभी उनकी गिरफ्तारी हुई है, कभी पिटाई, तो कई लोगों ने अपनी जान भी गंवाई है.
‘हसदेव अरण्य बचाओ संघर्ष समिति’ की एक सार्वजनिक घोषणा में आरोप है कि सरकार ने आदिवासियों और जंगल के दूसरे निवासियों की रक्षा करने के बजाय खनन कंपनियों से हाथ मिला लिया है.
उन्होंने कहा, “हमें विरोध करना ही होगा. जल, जंगल, ज़मीन, हमारी आजीविका और संस्कृति की रक्षा करना हमारा फ़र्ज है, और जो भी इन जंगलों पर निर्भर हैं, हम उन सभी नागरिकों से अपील करते हैं कि वो मार्च में शामिल हों. साथ ही संविधान और लोकतंत्र से प्यार करने वाले, और सभी संवेदनशील नागरिकों से इस सभा और मार्च में शामिल होने की अपील है.”
एक वक्त ऐसा था जब हसदेव जंगल को खनन से अछूता रखा गया था और यहां खनन सहित किसी भी विकास परियोजनाओं पर प्रतिबंध था. लेकिन इलाके में मौजूद खनिज की वजह से देश के सबसे बड़े उद्योगपतियों की नज़र यहां जमी रही है.
ICFRE की स्टडी के मुताबिक हसदेव अरण्य का कोयला क्षेत्र 1,879.6 वर्ग किलोमीटर (रायपुर से आठ गुना बड़ा क्षेत्रफल) में फैला है. इसमें 23 कोल ब्लॉक शामिल हैं.
अप्रैल 2010 में छत्तीसगढ़ सरकार ने परसा ईस्ट और कांता बसन (PEKB) में 1,898.328 हेक्टेयर जंगल की ज़मीन के इस्तेमाल की सिफारिश की थी, और उसे राजस्थान राज्य विद्युत उत्पाद निगम लिमिटेड (RRVUNL) को सौंप दिया था.
जून 2011 में केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन की फॉरेस्ट पैनल ने इस इलाके को इकोलॉजिकल तौर पर अहम मानते हुए यहां खनन पर रोक लगा दी. लेकिन उस वक्त के पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने इस फ़ैसले को नज़रअंदाज करते हुए राज्य सरकार की सिफारिश को माना और जो इलाके कम घने और जहां जैवविविधता कम है, वहां खनन की अनुमति दे दी.
इस निर्णय को 2014 में नैशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (NGT) में चुनौती दी गई और आदेश के बाद RRVUNL द्वारा किए जा रहे खनन को स्थगित कर दिया गया.
एनजीटी के 2014 के आदेश के तहत ICFRE का एक स्टडी यहां होना था लेकिन 2019 तक यह काम शुरू नहीं हुआ. मई 2019 में संस्था ने ज़मीन पर काम शुरू किया जो कि फरवरी 2021 में ख़त्म हुआ है.
इस अप्रकाशित स्टडी से पता चलता है कि खनन संबंधी काम से जंगल पर नकारात्मक प्रभाव होगा.
स्टडी में जोर देकर कहा गया है कि जंगल में बीच-बीच में हरियाली खत्म हो जाएगी जिससे जानवरों के आने जाने का गलियारा प्रभावित होगा. खनन से यहां का संवेदनशील जलवायु प्रभावित होगा. नतीजतन घुसपैठिए प्रजाति के वनस्पति जंगल में प्रवेश करेंगे.
स्टडी ने चेताया है कि खनन की वजह से जो मूलभूत ढ़ांचे का विकास होगा इसका असर भी प्राकृतिक आवास पर पड़ेगा और स्थिति को ठीक करने में काफी मुश्किलें आएंगी. इतना ही नहीं स्टडी ने जोर देकर कहा है कि खनन का सीधा असर हाथियों के इलाके पर तो नहीं पड़ेगा लेकिन इसकी वजह से इंसान और हाथियों के बीच संघर्ष बढ़ सकता है.
इस स्टडी से पता चला है कि इलाके के 90 फीसदी परिवार आजीविका के लिए खेती और जंगल से मिलने वाले वनोपज पर निर्भर हैं.
स्टडी में कहा गया है, “यह जंगल स्थानीय लोगों के लिए पानी और दूसरी वातावरण संबंधी ज़रूरतों को तैयार करने में मदद करता है. इससे खेती और दूसरे काम होते हैं. लेकिन खनन की वजह से इन्हें विस्थापित करना होगा जिससे समुदाय की आजीविका, पहचान और संस्कृति ख़तरे में आ जाएगी.”
वहीं पर्यावरणविदों का कहना है कि छत्तीसगढ़ में तेज़ी से बढ़ रही खनन गतिविधियों के कारण हाथियों के प्राकृतिक आवास खत्म होते जा रहे हैं. इन जंगली हाथियों ने वहां से पलायन कर अब मध्य प्रदेश के जंगलों में स्थित गांवों की और रुख किया है. जिस वजह से इंसान और हाथी के बीच संघर्ष की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं.
कानूनी जानकार और सामाजिक कार्यकर्ता पिछले कई सालों से इस इलाके के संरक्षण के लिए संघर्ष कर रहे हैं. उनका मानना है कि हसदेव के किसी एक हिस्से पर भी खनन शुरू हुआ तो धीरे-धीरे पूरा जंगल खनन के लिए खुल जाएगा.