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बदनावर के आदिवासियों में फैला कोरोना, ना इलाज़ और ना मौत का आँकड़ा

आदिवासी सामान्यतः मानते हैं की देवी देवताओं और पुरखों के नाराज़ होने से गाँव में बीमारी फैलती है. इसलिए आदिवासी कोरोना से निपटने के लिए जंगल में जा कर गाँव के देवताओं को मना रहे हैं.

मध्यप्रदेश के धार ज़िले में बदनावर में वही हो रहा है जिसका डर था. यहाँ के आदिवासी इलाक़ों तक कोरोना फैल चुका है. पिछले साल इस इलाक़े में एक भी व्यक्ति कोरोना की चपेट में नहीं आया था.

लेकिन कोरोना की दूसरी और घातक लहर ने ग्रामीण और आदिवासी इलाक़ों को भी नहीं छोड़ा है. 

इन इलाक़ों में कोरोना से हो रही मौत के खौफ से दहशत का माहौल है. लेकिन फिर भी लोग यहाँ पर लोगों में अभी इस वायरस से बचने के तरीक़ों की जानकारी नहीं है. 

आदिवासी बहुल पश्चिम अंचल के गांव मजरों में हालात गंभीर हो रहे हैं. यहाँ मुश्किल ये है कि लोग बीमार होने के बावजूद इलाज के लिए सामने नहीं आ रहे हैं.

ज़्यादातर आदिवासी घरों में रहकर ही झोलाछाप डॉक्टरों से इलाज करवाने की कोशिश कर रहे हैं. इसके अलावा आदिवासी इलाक़ों में लोग तंत्र-मंत्र का सहारा लेकर ठीक होने की उम्मीद पाले हुए हैं.

आदिवासी गांवों की स्थिति का सही सही अंदाज़ा भी प्रशासन नहीं लगा पा रहा है. इसकी वजह है कि जब वास्थ्य कार्यकर्ता सर्वे के लिए आदिवासी गाँव में जाते हैं तो लोग भाग खड़े होते हैं.

बीमार होने के बावजूद न तो सही वस्तुस्थिति बताते हैं और न ही पूछताछ में सही जवाब देते हैं. दूर दराज़ के आदिवासी गांव के दूर-दूर बसे मजरों में लोग पिछले कई दिनों से बीमार होकर घरों में ही रह रहे हैं.

आदिवासी मानते हैं कि बीमारी देवताओं और पुरखों के नाराज़ होने से फैलती है

ये आदिवासी कोरोना टेस्ट करवाने में भी रूचि नहीं दिखा रहे हैं. स्थानीय मीडिया की रिपोर्ट बता रही हैं कि यहाँ के आदिवासी गांवों में में पिछले दिनों से लगातार लोगों की मौत हो रही है.

इस इलाक़े में कोरोना कैसे फैला यह कहना मुश्किल है. लेकिन अंदाज़ा लगाया जा रहा है कि मज़दूरी के लिए बाहर गए लोगों के लौटना एक कारण हो सकता है.

इसके अलावा यह भी बताया जाता है कि छोटे-बड़े तमाम गांव में पिछले दिनों आदिवासी समाज में विवाह कार्यक्रम हुए थे.

इसमें बड़ी संख्या में आसपास के गांवों के लोग भी शामिल हुए थे.  उसके बाद ही लोगों के बीमार होने का सिलसिला चल रहा है.

सबसे बड़ी मुश्किल ये है कि इलाज कराने के लिए कोई तैयार नहीं हो रहा है. दूसरी ओर यह भी पता चला है कि लोगों के मरने पर गांव में भी खबर नहीं की जाती तथा परिवार के चार छह लोग मिलकर ही मृतक का अंतिम संस्कार कर देते हैं.

आदिवासी सामान्यतः मानते हैं की देवी देवताओं और पुरखों के नाराज़ होने से गाँव में बीमारी फैलती है. इसलिए आदिवासी कोरोना से निपटने के लिए जंगल में जा कर गाँव के देवताओं को मना रहे हैं. 

शनिवार को ग्राम तिलगारा में ऐसी ही एक पूजा की गई थी. जबकि ग्राम बखतपुरा, भैंसोला, रूपाखेड़ा, संदला, मुलथान, छोटा कठोड़िया आदि में भी यह पूजा पिछले दिनों में किया जा चुका है.

आदिवासी बहुल बोरदा व बोरदी के मजरों में भी यह पूजा की जा रही है.

दरअसल आदिवासी इलाक़ों में स्वास्थ्य सेवाओं और जागरूकता का भारी अभाव है. आमतौर पर आदिवासी बीमारी की सूरत में झाड़ फूंक या फिर जड़ी बूटियों का सहारा लेते हैं.

सबसे बड़ी मुश्किल ये है कि आधुनिक चिकित्सा पद्धति इन आदिवासियों की पहुँच से दूर है. 

इसके अलावा आदिवासियों की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं है कि वो आधुनिक इलाज हासिल कर सकें. अस्पतालों के दूर होने से एक मुश्किल यह भी आती है कि मरीज़ के साथ परिवार के लोग कैसे रहें. 

लेकिन सबसे बड़ा कारण है आदिवासी समुदायों, प्रशासन और ग़ैर आदिवासी समुदायों के बीच भरोसे की कमी. 

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