आदिवासी पोषण पर यूनिसेफ़ की एक रिपोर्ट (न्यूट्रिशन इंडिया इंफ़ो) कहती है कि भारत के 47 लाख आदिवासी बच्चों में पोषण की भीषण कमी है, जो उनकी लाइफ़ एक्सपेक्टेंसी, विकास, सीखने की क्षमता, स्कूल में प्रदर्शन और उनके वयस्क होने के बाद की उत्पादकता तक को प्रभावित कर रहा है.
इन 50 लाख गंभीर रूप से कुपोषित आदिवासी बच्चों का लगभग 80 प्रतिशत हिस्सा देश के सिर्फ़ आठ राज्यों कर्नाटक, छत्तीसगढ़, गुजरात, झारखंड, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान और ओडिशा में है. पाँच वर्ष की आयु से कम के आदिवासी बच्चों में से लगभग 40 प्रतिशत स्टंटेड या बौने हैं, और इनमें भी 16 प्रतिशत गंभीर रूप से स्टंटेड हैं. ग़ैर-आदिवासी बच्चों की तुलना में आदिवासी बच्चों में गंभीर स्टंटिंग ज़्यादा है, 9 प्रतिशत बनाम 16 प्रतिशत.
ग्लोबल हंगर इंडेक्स (जीएचआई) यानि दुनिया में भुखमरी के आंकड़ों में भी भारत की स्थिति काफ़ी ख़राब है. 2019 की ग्लोबल हंगर इंडेक्स रिपोर्ट ने भारत को 117 देशों में 102वें स्थान पर रखा था. 2020 में भारत की रैंकिंग 107 देशों में 94 हुई. चौंकाने वाली बात यह रही कि भारत बांग्लादेश, नेपाल और पाकिस्तान से भी काफ़ी पीछे रहा.
जीएचआई कुपोषण, वेस्टिंग (लंबाई के हिसाब से कम वज़न), स्टंटिंग और पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु दर को आधार बनाकर देशों की रैंकिंग तय करता है. भारत के अपने नैशनल फ़ैमिली हेल्थ सर्वे 2019-20 में भी इन मापदंडों पर ज़्यादातर राज्यों की स्थिति ख़राब है. बच्चों में स्टंटिंग के हालात 22 में से 13 राज्यों में बिगड़े हैं. देश में प्री-स्कूल की उम्र का तीन में से हर एक बच्चा स्टंटेड है. आदिवासी बच्चों में ये आंकड़े और भी ख़राब हैं.
लॉकडाउन में बढ़ा कुपोषण
एनएफ़एचएस के ये आंकड़े लॉकडाउन से पहले के हैं. लॉकडाउन के दौरान देश के हर कोने से कई ख़बरें सामने आईं कि स्कूलों के बंद होने और राशन की अनुपलब्धता के चलते स्थिति इतनी दयनीय हो गई है कि बच्चों को काम करके, और कबाड़ बेचकर किसी तरह से अपनी भूख मिटानी पड़ रही थी, उस उम्र में जब इन्हें भरपूर पौष्टिक आहार मिलना चाहिए था.
भारत के सरकारी स्कूलों और आंगनवाड़ी द्वारा बच्चों को पौष्टिक आहार दिया जाता है. लॉकडाउन के दौरान आसानी से शिक्षण संस्थान इसे घर पहुंचा सकते थे, जैसा आंध्र प्रदेश और ओडिशा में हुआ. इन बच्चों को जिस तरह के पौष्टिक आहार की ज़रूरत है, उसमें अंडे भी शमिल हैं. लेकिन, अधिकांश भाजपा-शासित राज्यों ने स्कूल और आंगनवाड़ी के मेनू में अंडे परोसने से इंकार कर दिया, यह कहकर कि अंडे मांसाहारी हैं. अंडों का विकल्प दूध या फल हो सकते हैं, मगर कई राज्यों में यह भी नहीं था. नैशनल फ़ैमिली हेल्थ सर्वे में यह साफ़ पाया गया कि इन्हीं राज्यों में बाल कुपोषण का स्तर भी उच्चतम है.
ज़ाहिर है अंडों को मांसाहारी कहना मूल रूप से ग़लत है, और इसके पीछे एक बड़ी और अकसर उच्च-जाति की शाकाहारी लॉबी का हाथ है. 2019 में मध्य प्रदेश में भाजपा के एक राजनेता ने राज्य में आंगनवाड़ियों में अंडे दिए जाने पर स्पष्ट रूप से प्रतिबंध लगा दिया था, यह कहकर कि अगर बच्चे मांस खाएंगे, तो वह नरभक्षी हो जाएंगे. इस तर्क से दुनिया की ज़्यादातर आबादी नरभक्षी ही होने चाहिए, क्योंकि दुनिया भर में हर पांच में से चार लोग मांस खाते हैं.
शाकाहार एक मिथक
भारत के अधिकांश लोग शाकाहारी हैं, यह एक बड़ा मिथक है. चार अलग-अलग राष्ट्रीय सर्वेक्षणों से पता चलता है कि भारत की 63% से 76% आबादी मांसाहारी है, और उनके खाने में अंडे शामिल हैं.
देश के 42 प्रतिशत गांवों में आंगनवाड़ी केंद्र है. वैसे तो नियमित समय में भी उनकी कार्यप्रणाली ज़्यादा अच्छी नहीं है, लेकिन जाति इनके कामकाज में एक और अदृश्य बाधा है. 2015-16 में छह साल से कम उम्र के केवल 48% बच्चों को इन केंद्रों से कोई भोजन मिला. मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा 2015 के एक अध्ययन में पाया गया कि मेनू में अंडों को जोड़े जाने से दो राज्यों के स्कूलों की अटेंडेंस में सुधार देखा गया.
अंडों में आवश्यक प्रोटीन, विटामिन और खनिजों का मिश्रण होता है. बहरहाल, 2020 की नई शिक्षा नीति में स्कूलों में नाश्ता दिए जाने का प्रस्ताव है. यह बच्चों के पोषण में वृद्धि करने का एक अतिरिक्त अवसर खोल देता है. ऐसे में राज्य सरकारों को खाने के बारे में अपनी ओछी मानसिकता को पीछे छोड़कर, सिर्फ़ बच्चों के पोषण के बारे में सोचना होगा.