HomeAdivasi Dailyवन अधिकार अधिनियम जम्मू और कश्मीर के आदिवासियों की पहुंच से दूर

वन अधिकार अधिनियम जम्मू और कश्मीर के आदिवासियों की पहुंच से दूर

पीडीपी-बीजेपी सरकार के पूर्व मंत्री और गुर्जर नेता चौधरी जुल्फकार अली कहते हैं कि जम्मू-कश्मीर में कानून लागू होने के बाद से आदिवासियों ने दस्तावेज तैयार किए हैं, कार्यालयों का दौरा किया है और वन अधिकार अधिनियम के तहत लाभ मांगा है. लेकिन मुझे नहीं लगता कि एफआरए के तहत अब तक किसी का भी कोई दावा स्वीकार किया गया है.

30 वर्षीय ज़ाहिद परवाज़ चौधरी के लिए 2020 में वन अधिकार अधिनियम 2006 का विस्तार करने का सरकार का निर्णय एक ऐतिहासिक कदम था.

गुर्जर बकरवाल युवा कल्याण सम्मेलन एक संगठन है जो जम्मू-कश्मीर की आदिवासियों की आबादी के बीच काम करता है और परवाज़ इसी के अध्यक्ष हैं. उन्होंने राजनीतिक दलों के समक्ष कई बार याचिका दायर की थी कि वे जम्मू-कश्मीर में कानून का विस्तार करने के लिए केंद्र से अनुरोध करें. क्योंकि ये कदम जम्मू-कश्मीर की आदिवासी आबादी की मदद करेगा.

उन्होंने कहा, “जब कानून को जम्मू-कश्मीर तक बढ़ाया गया था तो हम सभी ने सोचा था कि यह हम सभी के लिए एक महत्वपूर्ण क्षण है और अब हमें जंगलों से बाहर नहीं निकाला जाएगा.”

लेकिन तीन साल बाद सारा उत्साह खत्म हो गया है. परवाज़ कहते हैं, “क़ानून तो है लेकिन इसे उस तरह से लागू नहीं किया जा रहा है जैसे देश के अन्य राज्यों में किया जाता है.”

उनका कहना है कि सरकार यह आंकड़ा नहीं बता रही है कि कितने जमीन अधिकार के दावे स्वीकार किए गए हैं. उन्होंने कहा कि मुझे नहीं लगता कि संख्या उत्साहजनक हो सकती है. परवाज कहते हैं कि यहां तक कि सामुदायिक वन अधिकारों के दावे भी सरकार के पास लंबित हैं.

उन्होंने आगे कहा, “दक्षिण कश्मीर ग्राम सभा के त्राल क्षेत्र ने पिछले साल चार सामुदायिक वन अधिकारों के दावों की सिफारिश की थी. वन विभाग ने अभी तक इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है. हर जगह यही स्थिति है. प्रक्रिया इतनी धीमी है कि यह शुरू नहीं हो रही है.”

अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वनवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 को आमतौर पर वन अधिकार अधिनियम (FRA), 2006 कहा जाता है. जो वन में रहने वाले आदिवासी समुदायों और अन्य पारंपरिक वनवासियों के वन संसाधनों के अधिकारों को मान्यता देता है, जिस पर ये समुदाय आजीविका, निवास और अन्य सामाजिक-सांस्कृतिक आवश्यकताओं सहित विभिन्न जरूरतों के लिए निर्भर थे.

एफआरए के तहत आदिवासियों को जंगलों से बेदखली के खिलाफ कानूनी सुरक्षा प्राप्त है और वे पशु चराई, जल संसाधनों तक पहुंच, वन-आधारित आजीविका अधिकारों और लघु वन उपज अधिकारों सहित अन्य अधिकारों के हकदार हैं.

एफआरए 13 दिसंबर, 2005 को आदिवासियों या वनवासियों द्वारा खेती की गई भूमि को अधिकतम चार हेक्टेयर तक “स्वामित्व अधिकार” देता है. जम्मू-कश्मीर ने भी कट ऑफ डेट 2005 तय की है.

कानून के तहत वन अधिकार समितियों (एफआरसी) को गांव, ब्लॉक और फिर जिला स्तर पर गठित किया जाना है जो इसके बाद बेदखली पर फैसला लेगी.

कानून के तहत अगर आदिवासी द्वारा अपने स्वामित्व वाली भूमि के संबंध में दावा प्रस्तुत किया जाता है तो कोई बेदखली आदेश जारी नहीं किया जा सकता है. दावा तीन समितियों द्वारा तय किया जाना है और अगर इसे तीनों समितियों द्वारा खारिज कर दिया जाता है तो निष्कासन आदेश जारी किया जा सकता है.

पीडीपी-बीजेपी सरकार के पूर्व मंत्री और गुर्जर नेता चौधरी जुल्फकार अली कहते हैं, “जम्मू और कश्मीर के लेफ्टिनेंट गवर्नर मनोज सिन्हा की अध्यक्षता में हाल ही में एक समारोह आयोजित किया गया था जिसमें एलजी ने खुद कहा कि जम्मू और कश्मीर में वन अधिकार अधिनियम का कार्यान्वयन बहुत खराब है. यह अपने आप में दर्शाता है कि कार्यान्वयन कितना खराब रहा है.”

अली कहते कहते हैं कि जम्मू-कश्मीर में कानून लागू होने के बाद से आदिवासियों ने दस्तावेज तैयार किए हैं, कार्यालयों का दौरा किया है और वन अधिकार अधिनियम के तहत लाभ मांगा है. लेकिन मुझे नहीं लगता कि एफआरए के तहत अब तक किसी का भी कोई दावा स्वीकार किया गया है. कोई प्रभाव दिखाई नहीं दे रहा है.

उनका कहना है कि सरकार और भाजपा जम्मू-कश्मीर में कानून के विस्तार को अनुच्छेद 370 के निरस्त होने के लाभों में से एक बताते रहे हैं. लेकिन हम जमीनी स्तर पर जो देखते हैं वह यह है कि वन विभाग के लिए वनवासी अवैध कब्जेदार बने हुए हैं.

इतने वर्षों में केंद्र में विभिन्न सरकारों ने अनुच्छेद 370 के स्थान पर जम्मू और कश्मीर में कई केंद्रीय कानूनों का विस्तार किया है. जिनमें राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा, आतंकवाद निवारण अधिनियम, 2002, सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम, 1958 इसके अलावा सामान और सेवा कर अधिनियम शामिल है.

हालांकि, राजनीतिक कारणों से केंद्र सरकारें जम्मू-कश्मीर में वन अधिकार अधिनियम का विस्तार करने के लिए अनिच्छुक थीं क्योंकि जम्मू में भाजपा इसका विरोध कर रही थी और जंगलों में खानाबदोश आदिवासियों के बसने के विरोध पर अड़ी हुई थी.

2011 की जनगणना के मुताबिक, जम्मू-कश्मीर की कुल 1.25 करोड़ आबादी में से 14 लाख से अधिक अनुसूचित जनजाति हैं. सबसे बड़ी जनजाति होने के नाते गुर्जर और बकरवाल जम्मू के पुंछ, राजौरी, डूडा और रियासी जिलों में केंद्रित हैं.

राजनीतिक दलों और विभिन्न वकालत समूहों द्वारा दलीलों के बावजूद केंद्र सरकार ने वन अधिकार अधिनियम को जम्मू और कश्मीर तक विस्तारित नहीं किया.

2018 में भाजपा जो पीडीपी के साथ सत्ता साझा कर रही थी, ने पूर्ववर्ती जम्मू और कश्मीर राज्य में वन अधिकार अधिनियम के विस्तार का विरोध किया. जबकि पीडीपी की इच्छा थी कि 2006 में संसद में पारित वन अधिकार अधिनियम को राज्य में विस्तारित किया जाए.

विडंबना यह है कि भाजपा तर्क देगी कि यह अनुच्छेद 370 है जो जम्मू और कश्मीर में जंगलों को बचा रहा था और अगर केंद्रीय कानून जम्मू-कश्मीर में लागू होता है तो यह जम्मू-कश्मीर के जंगलों को नष्ट कर देगा.

जबकि केंद्र सरकार ने अक्टूबर 2020 में धारा 370 को निरस्त करने के 12 महीने बाद जम्मू-कश्मीर में वन अधिकार अधिनियम का विस्तार किया. लेकिन आदिवासी नेताओं और कार्यकर्ताओं का कहना है कि वे अभी भी कानून का लाभ पाने से दूर हैं.

वकील और एक्टिविस्ट गुफ्तार अहमद चौधरी के लिए मुख्य समस्या यह है कि वन अधिकार कानून को लागू करने वाली एजेंसी वन विभाग है. पिछले साल सितंबर में चौधरी ने राजभवन जम्मू में उपराज्यपाल मनोज सिन्हा से मुलाकात की थी. उन्होंने बैठक में जोर देकर कहा था कि एफआरए की कार्यान्वयन एजेंसी जनजातीय मामलों का विभाग होनी चाहिए.

अहमद चौधरी कहते हैं, “समुदाय के भीतर कानून के बारे में जागरूकता काफी हद तक ठीक है लेकिन मुद्दा यह है कि समुदाय को कानून द्वारा दिए गए अधिकार नहीं मिल रहे हैं.”

यही बात परवाज भी कहते हैं कि देश में कहीं और कानून को लागू करने वाली नोडल एजेंसी जनजातीय मामलों का विभाग है. वो पूछते हैं, “जम्मू-कश्मीर में नोडल एजेंसी वन विभाग क्यों है.”

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