HomeAdivasi Dailyगुमनाम आदिवासी नायकों को सम्मानित करने के लिए बनेंगे संग्रहालय

गुमनाम आदिवासी नायकों को सम्मानित करने के लिए बनेंगे संग्रहालय

मणिपुर के जनजातीय संग्रहालय ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन, एंग्लो-मणिपुरी युद्ध और कुकी-विद्रोह जैसे विभिन्न चरणों में आदिवासी स्वतंत्रता सेनानियों की कलाकृतियों को संरक्षित और प्रदर्शित करेगा. संग्रहालय के पीछे का विचार मणिपुर के गुमनाम आदिवासी स्वतंत्रता सेनानियों द्वारा दिए गए योगदान का सम्मान करना है.

कई इतिहास की किताबें और संग्रहालय हैं जो भारत के स्वतंत्रता संग्राम और इसके नागरिकों द्वारा किए गए बलिदानों की कहानी बयां करते हैं. लेकिन आजादी की लड़ाई के दौरान भारतीय आदिवासियों द्वारा किए गए बलिदानों के बारे में बात करने वाले कई स्थान नहीं हैं. इसलिए भारत सरकार ने देश में आदिवासी स्वतंत्रता सेनानी संग्रहालय खोलकर ऐसी साहसी आत्माओं को सम्मानित करने का फैसला किया है.

केंद्र सरकार ने 10 राज्यों छत्तीसगढ़, तेलंगाना, मिजोरम, झारखंड, आंध्र प्रदेश, गुजरात, केरल, मध्य प्रदेश, मणिपुर और गोवा में आदिवासी स्वतंत्रता सेनानियों के संग्रहालय का निर्माण करने का निर्णय लिया है.

हाल ही में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने वर्चुअल प्लेटफॉर्म पर मणिपुर में रानी गाइदिन्ल्यू ट्राइबल फ्रीडम फाइटर्स म्यूजियम की आधारशिला रखी. संग्रहालय जनजातीय मामलों के मंत्रालय के तहत 15 करोड़ रुपए की लागत से तमेंगलोंग जिले के लुआंगकाओ गांव (रानी गाइदिन्ल्यू का जन्म स्थान) में बनाया जाएगा.

संग्रहालय ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन, एंग्लो-मणिपुरी युद्ध और कुकी-विद्रोह जैसे विभिन्न चरणों में आदिवासी स्वतंत्रता सेनानियों की कलाकृतियों को संरक्षित और प्रदर्शित करेगा. संग्रहालय के पीछे का विचार मणिपुर के गुमनाम आदिवासी स्वतंत्रता सेनानियों द्वारा दिए गए योगदान का सम्मान करना है और स्वतंत्रता सेनानियों को सम्मानित करने से युवाओं में राष्ट्रवाद की भावना भी पैदा होगी.

कौन थीं रानी गाइदिन्ल्यू

रानी गाइदिन्ल्यूका जन्म 26 जनवरी, 1915 को तमेंगलोंग जिले के नुंगकाओ गांव में हुआ था. कई लोग इस गांव को लुआंग ओ नाम से भी जानते हैं. उनकी पढ़ाई-लिखाई भारतीय परंपरा के अनुसार हुई थी. वह एक आध्यात्मिक और राजनीतिक नेता थीं. वह मणिपुर की रोंगमेई जनजाति से थीं.

वह महज 13 साल की उम्र में एक स्वतंत्रता सेनानी बन गईं. वे अपने भाई कोसिन और हायपोउ जदोनांग के साथ वे हेराका आंदोलन से जुड़ीं. इस आंदोलन का लक्ष्य था क्षेत्र में दोबारा नागा राज स्थापित करना और अंग्रेज़ों को अपनी मिट्टी से खदेड़ना.

गाइदिन्ल्यू ने अपने समाज के लोगों को गांधीवादी विचारधारा से अवगत करवाने का बीड़ा भी उठाया. गाइदिन्ल्यू के शब्दों में, “धर्म को खो देने अपनी संस्कृति को खो देना है, अपनी संस्कृति को खोना यानी अपनी पहचान को खोना.” उन्‍होंने ब्रिटिश सरकार द्वारा लगाए गए अमानवीय कर और नियमों के ख़िलाफ जेलियांग्रांग कबीले के लोग एकजुट होने लगे. लोगों ने किसी भी तरह का कर देने से मना कर दिया. इसके बाद 17 की उम्र में उन्होंने अंग्रेज़ों के खिलाफ गुरिल्ला युद्ध छेड़ दिया.

1932 में उन्हें अंग्रेजों ने गिरफ्तार कर लिया और आजीवन कारावास की सजा सुनाई. वह 14 साल तक जेल में रहीं और 1947 में भारत को आजादी मिलने के बाद ही रिहा हुईं.

रानी गाइदिन्ल्यू को सम्मानित करने के लिए, उन्हें 1972 में तमारा पात्रा और 1982 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था. 1996 में उनके सम्मान में एक डाक टिकट भी पेश किया गया था.

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