कर्नाटक विधानसभा में आज विवादास्पद ‘धर्मांतरण विरोधी विधेयक’ चर्चा और पारित करने के लिए रखा जाएगा. ऐसे में आदिवासी मामलों के पूर्व केंद्रीय मंत्री किशोर चंद्र देव ने कहा है कि बीजेपी शासित कर्नाटक सरकार का प्रस्तावित धर्मांतरण विरोधी विधेयक – धर्म की स्वतंत्रता के अधिकार का कर्नाटक संरक्षण विधेयक – अनुसूचित जनजातियों को प्रभावित नहीं करना चाहिए. उन्होंने चिंता व्यक्त की कि बिल में कुछ प्रावधान अनुसूचित जनजाति को संवैधानिक गारंटी का उल्लंघन है.
किशोर चंद्र देव ने कहा कि न सिर्फ कर्नाटक सरकार को अनुसूचित जनजाति पर चिंता के इस बिंदु को स्पष्ट करना चाहिए बल्कि केंद्र को भी ऐसा करना चाहिए क्योंकि राष्ट्रपति को विधेयक पर अपनी सहमति देनी होगी. क्योंकि ज्यादातर बीजेपी शासित राज्य प्रस्तावित कानून के कर्नाटक संस्करण को अपनाने की संभावना थी.
इकॉनिम टाइम्स से बात करते हुए, देव ने कहा, “आदिवासी किसी भी धर्म में पैदा नहीं होते हैं और उन्हें स्वदेशी संस्थाओं के रूप में माना जाता है. इसलिए जब अनुसूचित जनजातियों के कुछ वर्ग कुछ धर्मों का पालन करना चुनते हैं, जैसे कि पूर्वोत्तर में ईसाई धर्म और बौद्ध धर्म या फिर लक्षद्वीप में इस्लाम हो या हिंदू, सिख या कोई अन्य धर्म. यह कभी भी धर्म परिवर्तन का मामला नहीं है क्योंकि आदिवासी एक धर्म में पैदा नहीं होते हैं इसलिए उनके दूसरे धर्म में परिवर्तित होने का मामला नहीं हो सकता है.”
क्या है विधेयक?
इस विधेयक में धर्म की स्वतंत्रता के अधिकार की सुरक्षा और बलपूर्वक, अनुचित प्रभाव, जबरदस्ती, प्रलोभन या किसी भी कपटपूर्ण तरीके से एक धर्म से दूसरे धर्म में गैरकानूनी परिवर्तन पर रोक लगाने का प्रावधान करता है.
विधेयक में दंडात्मक प्रावधानों का भी प्रस्ताव है और इस बात पर जोर दिया गया है कि जो लोग कोई अन्य धर्म अपनाना चाहते हैं, उन्हें कम से कम 30 दिन पहले निर्धारित प्रारूप में जिलाधिकारी के समक्ष घोषणापत्र जमा करना होगा.
रिपोर्ट के मुताबिक, विधेयक 25,000 रुपए के जुर्माने के साथ 3 से 5 साल तक की कैद का भी प्रस्ताव करता है. प्रस्तावित विधेयक में यह भी प्रावधान किया गया है कि धर्मांतरण कराने के आरोपी को पीड़ित को पांच लाख रुपए तक मुआवजा देना होगा. सामूहिक धर्मांतरण के मामले में विधेयक तीन से 10 साल तक की कैद और एक लाख रुपए तक के जुर्माने का प्रस्ताव करता है.
किशोर चंद्र देव ने कहा, “यह प्रावधान अनुसूचित जनजाति को संवैधानिक गारंटी का उल्लंघन करता है. कोई कैसे तर्क या आरोप लगा सकता है कि कुछ धर्मों का पालन करने वाले कुछ अनुसूचित जनजाति जबरन धर्मांतरण के मामले हैं.”
देव ने कहा, “1959 के वीवी गिरि बनाम डिप्पला सूरी डोरा और अन्य मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले से कई अदालती फैसलों ने यह स्पष्ट कर दिया है कि एक बार आदिवासी के रूप में पैदा होने के बाद, आप आदिवासी के रूप में मर जाते हैं.”
इसीलिए आदिवासी समुदाय से संबंधित वरिष्ठ राजनेता ने कहा, “आदिवासी समुदाय, जो विभिन्न धर्मों का पालन करते हैं, एसटी अधिनियम के तहत अपनी आदिवासी पहचान और अधिकार कभी नहीं खोते हैं (जो हिंदू समुदाय में पैदा हुए हैं, और एक बार अन्य धर्मों में परिवर्तित होने के बाद अपनी एससी स्थिति और अधिकारों को खोने का जोखिम उठाते हैं).”
यह कहते हुए कि केंद्र को प्रस्तावित कर्नाटक विधेयक के संदर्भ में इन पहलुओं को एसटी के संदर्भ में स्पष्ट करना चाहिए. इसके अलावा बीजेपी राज्य सरकार को विधेयक में मामले को स्पष्ट करना चाहिए. वहीं वर्तमान केंद्रीय कानून मंत्री (किरेन रिजिजू, पूर्वोत्तर के एक आदिवासी) को इन कानूनी और संवैधानिक तथ्यों को बेहतर तरीके से जानना चाहिए.
वहीं महिलाओं की कानूनी शादी की उम्र 21 करने के केंद्र के प्रस्तावित विधेयक पर, देव ने कहा कि कई दूरदराज के आदिवासी गांवों में जन्म पंजीकरण और जन्म प्रमाण पत्र रखने की सुविधा नहीं है. इसलिए प्रस्तावित विधेयक किसी के लिए उन आदिवासियों को परेशान करने का साधन नहीं बनना चाहिए.