जैसे-जैसे महाराष्ट्र सरकार पूरे राज्य में 3,000 से ज्यादा स्कूलों को बंद करने के अपने फैसले को लागू करने की दिशा में आगे बढ़ रही है, तो इन स्कूलोंमें पढ़ने वाले 16,000 से ज्यादा छात्रों के भविष्य के बारे में चिंताएं भी बढ़ रही है. इनमें ज्यादातर छात्र आदिवासी हैं, और सरकार के इस कदम से वह अपनी बुनियादी शिक्षा से वंचित रह जाएंगे.
शिक्षा का अधिकार (RTE) अधिनियम के तहत शिक्षा की गारंटी सुनिश्चित करने के लिए, सरकार ने बच्चों को परिवहन की सुविधा देने का फैसला किया है, ताकि वे अपने करीब के स्कूलों तक पहुँच सकें. लेकिन कार्यकर्ताओं की राय है कि स्कूलों का बंद होना आरटीई अधिनियम का उल्लंघन है, क्योंकि छात्रों को लंबी दूरी तय करनी होगी, जिससे स्कूल ड्रॉपआउट दर बढ़ सकती है.
मिड-डे के मुताबिक सरकारी आदेश कहता है कि कुल 3,073 ऐसे स्कूलों की पहचान की गई है जहां छात्रों की संख्या 10 से कम है. इन स्कूलों में पढ़ने वाले कुल 16,334 छात्रों का वो जिस इलाके में रहते हैं, उसके 3 कि.मी. के आसपास के दूसरे स्कूलों में दाखिला कराया जाएगा और उन्हें परिवहन की सुविधा मुहैया कराई जाएगी.
आदिवासी अधिकार कार्यकर्ता विवेक पंडित ने मिड-डे को बताया, “सरकार का फैसला आरटीई अधिनियम का उल्लंघन है, क्योंकि कई छात्रों को निकटतम स्कूल तक पहुंचने के लिए सात से आठ किलोमीटर की यात्रा करनी पड़ेगी. यह निश्चित रूप से राज्य में स्कूल छोड़ने की दर में बढ़ोतरी करेगा.”
उन्होंने सरकार की कड़ी आलोचना करते हुए कहा कि स्कूल न जाने वाले 6 लाख बच्चों को पढ़ाई शुरू करने के लिए प्रोत्साहित करने की बजाय सरकार स्कूलों को बंद कर रही है. इनमें से ज्यादातर स्कूल राज्य के आदिवासी इलाकों में हैं.
महाराष्ट्र सरकार के इस फैसले का पालघर, ठाणे, नासिक, रायगढ़ और दूसरे जिलों के आदिवासी समुदायों पर गहरा असर पड़ेगा. पालघर जिले में कुल 158 स्कूल बंद होंगे, जबकि ठाणे जिले में 62, रायगढ़ में 111 और नासिक में सबसे ज्यादा 405 स्कूल बंद होंगे.
आरटीई अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार यह अनिवार्य है कि चौथी कक्षा तक के छात्रों के लिए उनके निवास के इलाके के एक किलोमीटर के अंदर एक स्कूल में दाखिला मिले. इसके अलावा सातवीं कक्षा तक के छात्रों की तीन किलोमीटर के दायरे में स्कूलों तक पहुंच होनी चाहिए.
सरकार की एक आलोचना यह भी है कि किसी स्कूल में छात्रों की संख्या के आधार पर उसे बंद करने का फैसला किया जा रहा है. हालांकि परिवहन की सुविधा देने के फैसले की सराहना हो रही है, लेकिन कार्यकर्ता मानते हैं को सरकार को इन स्कूलों को बंद करने का फैसला लेने से पहले उनका सोशल ऑडिट करना चाहिए था.
पिछले कुछ सालों में राज्य के ग्रामीण हिस्सों में प्रवासन बढ़ा है और अधिकांश आदिवासी अब शहरी क्षेत्रों की ओर बढ़ रहे हैं. स्कूलों को बंद करने के फैसले के पीछे यह एक वजह भले ही हो, लेकिन इससे जो लोग आदिवासी बस्तियों में अभी भी रह रहे हैं, वो शिक्षा से वंचित हो जाएंगे.
पालघर जिले के वाडा तालुका के एक शिक्षक ने कहा, “हम ग्रामीण इलाकों में छात्रों को शिक्षा देने की पूरी कोशिश कर रहे हैं. अगर स्कूल बंद हो जाते हैं, तो ये बच्चे अपनी बुनियादी शिक्षा से वंचित रह जाएंगे, क्योंकि वे अपने गांवों से दूर के स्कूलों में पढ़ने जाने से हिचकिचा सकते हैं.”
छात्रों की कम संख्या के चलते स्कूलों को बंद करने के फैसले की यह कहकर आलोचना हो रही है कि सरकार को स्कूल करने की बजाय पड़ोस में रहने वाले माता-पिताओं को अपने बच्चों को स्कूल भेजने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए.
“क्या यह सरकारी शिक्षकों और शिक्षा कर्मचारियों की जिम्मेदारी नहीं है कि वे झुग्गी-झोपड़ी क्षेत्रों और आदिवासी बस्तियों में बच्चों को स्कूलों में दाखिला दिलाने के लिए अभियान चलाएँ? सरकारी स्कूलों में छात्रों की संख्या बढ़ाने के लिए इसका सख्ती से पालन क्यों नहीं किया जा रहा है?” एक कार्यकर्ता ने कहा.
आरटीई के प्रावधानों के उल्लंघन के अलावा सबसे बड़ी चिंता यह है की स्कूल छोड़ने की दर के बढ़ने से बाल विवाह और बाल श्रम में बढ़ोतरी होगी.
आदिवासी समुदायों के अधिकारों के लिए लड़ने वाले एनजीओ श्रमजीवी संगठन ने इस हफ्ते मंत्रालय के बाहर इस फैसले का विरोध करने की योजना बनाई है.