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अट्टपाड़ी में बच्चों की मौत का सिलसिला जारी, एक दर्जन मौत हो चुकी हैं

अलग अलग बीमारियों ने शुक्रवार को तीन आदिवासी बच्चों की जान ली. हालांकि, अगली स्थित विवेकानंद मेडिकल मिशन अस्पताल के मुख्य चिकित्सा अधिकारी डॉ वी नारायणन ने कहा कि स्थिति 2013 की तरह खतरनाक नहीं है. दरअसल 2013 से अब तक 121 आदिवासी शिशुओं की मौत हो चुकी है, जिनमें से ज्यादातर माता-पिता में कुपोषण की वजह से हुई हैं. आदिवासियों में गरीबी, शराब और रोजगार की कमी जैसे मुद्दे भी आम हैं.

पिछले हफ्ते अकेले अट्टपाड़ी में पांच आदिवासी बच्चों की मौत हो गई, जिसके साथ ही इस साल मरने वाले बच्चों की संख्या 12 हो गई.

रिकॉर्ड बताते हैं कि गांव में आदिवासी समुदाय के कल्याण के लिए करोड़ों रुपये खर्च किए गए हैं. हालांकि जब उनके कल्याण के प्रभारी मंत्री स्वीकार करते हैं कि अट्टपाड़ी में आदिवासी समुदाय के सदस्यों में कुपोषण फैला हुआ है, तो हैरानी होता है कि नीतियां सच्चाई से कितनी दूर हैं, और आवंटित धन का कितना बड़ा हिस्सा बिचौलिए खा जाते हैं.

कोट्टतरा आदिवासी विशेषता अस्पताल की स्थापना आदिवासी समुदाय के सदस्यों को बेहतर इलाज देने के लिए की गई थी. फिर भी अट्टपाड़ी के निवासियों को 35 किमी दूर मन्नारकाड तालुक अस्पताल तक जाना पड़ता है.

शिशु को मौत के लेटेस्ट मामले में, आदिवासी महिला गीतू का मन्नारकाड में सिजेरियन ऑपरेशन हुआ और बुधवार को बच्चे को बाहर निकाला गया. लेकिन शुक्रवार को उस बच्चे की मौत हो गई क्योंकि उसे वहां भी उचित इलाज नहीं मिल सका.

अलग अलग बीमारियों ने शुक्रवार को तीन आदिवासी बच्चों की जान ली. हालांकि, अगली स्थित विवेकानंद मेडिकल मिशन अस्पताल के मुख्य चिकित्सा अधिकारी डॉ वी नारायणन ने कहा कि स्थिति 2013 की तरह खतरनाक नहीं है.

दरअसल 2013 से अब तक 121 आदिवासी शिशुओं की मौत हो चुकी है, जिनमें से ज्यादातर माता-पिता में कुपोषण की वजह से हुई हैं. आदिवासियों में गरीबी, शराब और रोजगार की कमी जैसे मुद्दे भी आम हैं.

चिंता है कि कुपोषण का मुद्दा अभी भी मौजूद है: मंत्री

केरल के अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और पिछड़ा वर्ग मंत्री के. राधाकृष्णन ने शनिवार को कहा कि यह चिंताजनक है कि कुपोषण का मुद्दा अभी भी बना हुआ है. जून 2013 में जब आदिवासी शिशु मृत्यु खतरनाक रूप से बढ़ी तब केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने अट्टपाड़ी का दौरा कर 125 करोड़ रुपये के पैकेज की घोषणा की थी.

समुदाय के सदस्यों को सशक्त बनाने के हिस्से के रूप में आदिवासी महिलाओं को कुडुम्बश्री (NHG) के माध्यम से पारंपरिक फसलों की खेती करने के लिए प्रोत्साहित किया गया.

महिला किसान सशक्तिकरण परियोजना (MKSP), राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन (NRLM) के एक कार्यक्रम के तहत कुल 506 विशिष्ट एनएचजी का गठन किया गया और बीज वितरित किए गए.

एनआरएलएम प्रबंधक सीमा भास्कर ने कहा, “2014 से 2018 तक NRLM के तहत हमने 192 गांवों में सामुदायिक रसोई की स्थापना की और सभी बस्तियों में ब्रिज कोर्स शुरू किया.सुबह ब्रिज कोर्स में शामिल होने वाले आदिवासी बच्चों को हम नाश्ता देते थे. उन चार सालों में एनआरएलएम के तहत 30 करोड़ रुपये खर्च किए गए और यह पूरी तरह केंद्र की ओर से था. वहीं एमकेएसपी के तहत हमने 46 करोड़ रुपये खर्च किए, जिसमें से 60 फीसदी केंद्र द्वारा और 40 फीसदी राज्य सरकार द्वारा दिया गया था. इन फंड में से 11 करोड़ रुपये आजीविका गतिविधियों के हिस्से के रूप में सीधे आदिवासी समुदायों को किश्तों में बांटे गए थे.

हालांकि बिचौलियों ने हमें मिशन को पूरा नहीं करने दिया, क्योंकि वो नहीं चाहते थे कि आदिवासी सशक्त बनें.”

उन्होंने कहा, “हमने झारखंड और दूसरे राज्यों से आदिवासी समुदायों को यहां के विकास का प्रदर्शन करने के लिए लाने की भी योजना बनाई है. एनआरएलएम के तहत हमारा फोकस आदिवासियों को शिक्षा मुहैया कराना और उनका अच्छा स्वास्थ्य सुनिश्चित करना था. जब हम आदिवासी महिलाओं को अस्पतालों में भर्ती करते थे तो हम उनके साथ हेल्पर भेजते थे. पंचायत-स्तरीय समितियों के तहत काम करने वाले NHG वन उपज को इकट्ठा करते थे और उन्हें त्रिशूर में राज्य द्वारा संचालित ‘औषधि’ में ले जाते थे लेकिन उसका लिए भी प्रतिरोध का सामना करना पड़ा. हमने बकरी पालन को भी प्रोत्साहित किया और इसकी पर्याप्त मांग थी क्योंकि इसे तौला और बेचा जाता था. रागी और बाजरा जैसी पारंपरिक फसलें भी उगाई जाती थीं.”

192 सामुदायिक रसोई में से अभी 110 ही काम कर रही हैं. उनका प्रबंधन आदिवासी कुडुम्बश्री इकाइयों द्वारा किया जाता है. इसमें 175 आंगनवाड़ी, 116 आशा कार्यकर्ता और 150 आदिवासी प्रवर्तक थे. इसके अलावा स्वास्थ्य कर्मी भी थे. इसके बावजूद बच्चों की मौत का सिलसिला जारी है.

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