देश के प्रीमियर इंस्टिट्यूट्स में पीएचडी में दाख़िले के मामले में आदिवासी, दलित और ओबीसी की संख्या बेहद कम या ना के बराबर है. यह जानकारी हाल ही में शिक्षा मंत्रालय की तरफ़ से जारी आँकड़ों से मिली है.
पिछले गुरूवार यानि 4 फ़रवरी को सरकार की तरफ़ से राज्य सभा में ये जानकारी दी गई है.
आईआईएससी (IISc) बेंगलुरु में 2016 से 2020 के बीच पीएचडी में दाख़िला लेने वाले कुल छात्रों में से आदिवासी छात्रों की तादाद मात्र 2.1 प्रतिशत थी.
जबकि अनुसूचित जाति के छात्रों की तादाद 9 प्रतिशत और ओबीसी छात्रों की तादाद 8 प्रतिशत रही है.
इंटिग्रेटेड पीएचडी कोर्स में आदिवासी छात्रों की संख्या महज़ 1.2 प्रतिशत ही रही है. जबकि एसी और ओबीसी श्रेणी के छात्रों की संख्या 5 प्रतिशत रही.
देश के 17 इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ़ इंफोरमेशन टेक्नोलोजी (IIITs) में कुल पीएचडी के दाखिलों में आदिवासी छात्रों का प्रतिनिधित्व मात्र 1.7 प्रतिशत रहा है. इसमें अनुसूचित जाति और ओबीसी का प्रतिनिधित्व क्रमश 9 प्रतिशत और 27.4 प्रतिशत रहा है.
इसके अलावा देश के कुल 31 नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलोजी (NITs) और 7 इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ साइंस एजुकेशन एंड रिसर्च (IISERs) में भी आदिवासी छात्रों का प्रतिनिधित्व ना के बराबर रहा है.
इसका मतलब साफ़ है कि इन इंस्टिट्यूट्स में अलग अलग सामाजिक तबकों के लिए की गई आरक्षण की व्यवस्था का लाभ इन वर्गों को नहीं दिया जा रहा है. ख़ासतौर से आदिवासी समुदायों का प्रतिनिधित्व का स्तर चिंता का विषय होना चाहिए.
व्यवस्था के अनुसार आदिवासी छात्रों के लिए 7.5 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान है. इसके अलावा अनुसूचित जातियों के लिए 15 प्रतिशत जबकि ओबीसी के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान है.
इस सिलसिले में राज्य सभा सांसद बिकास रंजन भट्टाचार्य और ई करीम ने शिक्षा मंत्री से सवाल पूछा था.
दरअसल देश के सभी प्रीमियर संस्थानों में पीएचडी की सीटों में कमी हुई है. सीटों की घटती संख्या ने आदिवासी और दूसरे कमज़ोर तबके के छात्रों के लिए स्थिति और मुश्किल बना दी है.
देश के जाने माने संस्थान आईआईटी में भी हालात बेहतर नहीं हैं. आँकड़ों के अनुसार आईआईटी मुंबई में साल 2015 से साल 2019 के बीच आदिवासी छात्रों का प्रतिनिधित्व मात्र डेढ़ प्रतिशत था. जबकि पीएचडी में दाख़िला लेने के लिए पर्याप्त संख्या में आदिवासी छात्रों ने आवेदन किया था.
इस मामले में विशेषज्ञ आमतौर पर दलील देते हैं कि क्योंकि उच्च शिक्षा तक पहुँचने वाले छात्रों की तादाद कम होती है इसलिए शोध के स्तर पर प्रतिनिधित्व में भी आदिवासी और दूसरे कमज़ोर तबकों के अनुपात में गड़बड़ी नज़र आती है.
ऐसा कम ही होता है जब विशेषज्ञ इन वर्गों और ख़ासतौर से आदिवासी छात्रों के साथ होने वाले भेदभाव को स्वीकार करते हैं.
हाल के इन आँकड़ों के सामने आने के बाद स्टूडेंट्स फेडरेशन ऑफ़ इंडिया (SFI) ने एक बयान जारी किया है. इस सिलसिले में संगठन ने माँग की है कि इस मसले पर संसद के इस बजट सत्र में चर्चा होनी चाहिए.