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पश्चिम बंगाल विधानसभा में पारित हुआ सारी और सरना धर्म कोड को मान्यता देने का प्रस्ताव, क्या मायने रखता है

टीएमसी मंत्री और प्रमुख आदिवासी नेता बीरबाहा हांसदा ने सदन को संबोधित करते हुए बताया कि भारत हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध और जैन धर्म कोड का है पर आदिवासियों के पास ऐसा कोई धर्म कोड नहीं है. उन्होंने कहा कि जबकि देश में आदिवासियों की आबादी 8.6 फीसदी है.

पश्चिम बंगाल पंचायत चुनाव से पहले विधानसभा में सारी और सरना धर्म कोड को मान्यता देने से संबंधित प्रस्ताव पास हो गया.

ममता बनर्जी की सरकार ने इस प्रस्ताव को पारित कर यह संदेश देने की कोशिश की कोशिश है कि उनकी पार्टी तृणमूल कांग्रेस और सरकार आदिवासियों के साथ है.

वहीं मुख्य विपक्षी पार्टी बीजेपी ने ममता बनर्जी पर वोट बैंक की राजनीति करने का आरोप लगाया है. बीजेपी ने इस प्रस्ताव का विरोध करते हुए दावा किया कि यह समुदाय के नेताओं के साथ उचित चर्चा के बिना लाया गया है.

बीजेपी के अनुसार इसका उद्देश्य पंचायत चुनावों से पहले आदिवासियों को लुभाना है.

तृणमूल कांग्रेस की ओर से पुरुलिया बांदवान से विधायक राजीब लोचन सरीन ने प्रस्ताव को सदन में रखा. सारी और सरना धर्म को मान्यता देने का प्रस्ताव पेश करते हुए राजीब लोचन सरीन ने कहा कि धार्मिक संहिता की मान्यता प्रकृति पूजक आदिवासियों की लंबे समय से चली आ रही मांग है.

टीएमसी मंत्री और प्रमुख आदिवासी नेता बीरबाहा हांसदा ने सदन को संबोधित करते हुए बताया कि भारत हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध और जैन धर्म कोड का है पर आदिवासियों के पास ऐसा कोई धर्म कोड नहीं है. उन्होंने कहा कि जबकि देश में आदिवासियों की आबादी 8.6 फीसदी है.

बीरबाहा हांसदा ने कहा कि इतनी आबादी होने के बावजूद हमारे धर्म कोड को अब तक मान्यता नहीं दी गई. उन्होंने बताया कि सारी संताल समुदाय के लोग होते हैं, जबकि सरना मुंडा समुदाय के होते हैं.

संविधान में सभी धर्मों के लोगों को अपने-अपने धर्म का पालन करने का अधिकार है पर हम आदिवासियों को यह अधिकार नहीं मिल रहा है. आदिवासियों को हिंदू समझा जाता है.

उन्होंने कहा, “यह आदिवासियों की लंबे समय से चली आ रही मांग है कि इन धर्मों को मान्यता दी जाए. लेकिन केंद्र ने कुछ नहीं किया. वे (बीजेपी) आदिवासियों के अधिकारों की हिमायत करने का दावा करते हैं लेकिन उन्होंने आदिवासियों के धर्म को मान्यता देने के लिए कुछ नहीं किया. हमने अपना काम कर दिया है, देखते हैं कि केंद्र अब क्या करता है.”

बीरबाहा हांसदा ने आगे कहा कि धर्म कोड नहीं होने से आने वाले दिनों में हमारे अस्तित्व को ख़तरा हो सकता है. इसलिए आदिवासियों को भी उनका धर्म कोड मिलना चाहिए. उन्होंने कहा कि राष्ट्रपति चुनाव के बाद केंद्र सरकार आदिवासियों को भूल गई है.

वहीं भाजपा के मुख्य सचेतक मनोज तिग्गा ने कहा कि लंबे समय से आदिवासी सारी और सरना धर्म कोड की मांग कर रहे हैं. ऐसे में इस मांग को पूरा करने से पहले गंभीरता के साथ विचार करना जरूरी है.

आदिवासी धर्म को जानने वाले इतिहासकार, धर्मगुरु और आदिवासी समुदाय के विभिन्न वर्गों के साथ चर्चा जरूरी है.

प्रस्ताव का विरोध करते हुए मनोज तिग्गा ने कहा कि प्रस्ताव समुदाय के नेताओं के साथ उचित चर्चा के बिना लाया गया है. उन्होंने कहा कि आदिवासियों में कई समुदाय हैं. यह प्रस्ताव बिना किसी से चर्चा किए लाया गया. इसे चुनावों, खासकर आगामी पंचायत चुनावों को ध्यान में रखकर लाया गया है.

उन्होंने कहा कि टीएमसी आदिवासियों का वोट पाने के लिए इस प्रस्ताव को विधानसभा में लेकर आई है. उन्होंने कहा कि अगर तृणमूल को आदिवासियों से इतना ही लगाव था तो वो राष्ट्रपति चुनाव में क्यों नहीं शामिल हुई.

जबकि पार्टी नेताओं के मुताबिक, इस कदम से टीएमसी को पुरुलिया, बांकुरा, पश्चिम मेदिनीपुर जिलों और राज्य के उत्तरी हिस्से में आदिवासियों के बीच अपना आधार मजबूत करने में मदद मिलेगी.

सरना धर्म कोड की माँग पुरानी है

आदिवासी समुदाय लंबे समय से सरना धर्म कोड की मांग रहे हैं और अपनी इस मांग के लिए काफी समय से प्रदर्शन कर रहे हैं. इसी महीने सरना धर्म कोड सहित पांच सूत्री मांगों को लेकर आदिवासियों ने पश्चिम बंगाल के कई जिलों में सड़क और रेल मार्ग अवरोध किया था.

आदिवासी सेंगेल अभियान के नेतृत्व में पूर्व बर्दवान, मेदिनीपुर और पुरुलिया में रेल और सड़क अवरोध किया गया था.

इसके अलावा आदिवासी सेंगल अभियान से जुड़े कार्यकर्ताओं और समर्थकों ने 11 फरवरी को गिरिडीह-दिल्ली रेल मार्ग में मथुरापुर रेलवे स्टेशन पर ट्रेन को रोक कर विरोध प्रदर्शन किया था.

साल 2018 में सरना धर्म की मांग को लेकर रेल रोक दी गई थी. इस प्रदर्शन में कई पैसेंजर ट्रेन फंसी साथ ही राजधानी समेत कुछ एक्सप्रेस ट्रेनों पर भी असर पड़ा.

दिसंबर 2021 में, राष्ट्रीय आदिवासी समाज सरना धर्म रक्षा अभियान के तत्वावधान में 500 से अधिक आदिवासियों ने जंतर मंतर पर धरना दिया था. चार घंटे लंबे विरोध का समापन तत्कालीन राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह, केंद्रीय आदिवासी मामलों के मंत्री अर्जुन मुंडा और भारत के रजिस्ट्रार जनरल और जनगणना आयुक्त विवेक जोशी को ज्ञापन देने के साथ हुआ था.

पिछले साल अप्रैल में भी आदिवासियों ने जंतर मंतर पर प्रदर्शन किया था. दावा किया गया गया कि इस प्रदर्शन में कई राज्यों से आदिवासी जुटे थे.

सरना क्या है?

सरना का शाब्दिक अर्थ है पेड़ों का एक उपवन है, और सरना धर्म के अनुयायी साल के पेड़ों को पवित्र मानते हैं, जो कि छोटा नागपुर पठार क्षेत्र के रहने वाले हैं हैं.

सरना यानी वो लोग जो प्रकृति की पूजा करते हैं. झारखंड में सरना धर्म मानने वालों की बड़ी संख्या है. ये लोग खुद को प्रकृति का पुजारी बताते हैं. ये किसी ईश्वर या मूर्ति की पूजा नहीं करते.

सरना धर्म को मानने वाले इस बात पर जोर देते हैं कि वे अनिवार्य रूप से प्रकृति उपासक हैं और पूर्वजों की पूजा के लिए समर्पित त्योहार भी होते हैं. सरना धर्म के लिए आंदोलन कर रहे आदिवासी कहते हैं कि उनका धर्म, हिंदू धर्म से अलग है

खुद को सरना धर्म से जुड़ा हुआ मानने वाले लोग तीन तरह की पूजा करते हैं. पहले धर्मेश की पूजा. दूसरी सरना मां की पूजा. और तीसरा जंगल की पूजा.

इन तीनों को पूजने का एक लॉजिक बताया जाता है. कहते हैं जैसे हिंदू धर्म में पूर्वजों की पूजा की जाती है, माता-पिता की पूजा की जाती है वैसे ही धर्मेश यानी पिता और सरना यानी मां की पूजा की जाती है.

तीसरी पूजा जंगल की होती है जिसे प्रकृति के तौर पर भी पूजा जाता है और इसलिए भी क्योंकि जंगल से खाना-पीना भी मिलता है.

सरना धर्म मानने वाले लोग सरहुल त्योहार मनाते हैं. हिंदू कैलेंडर के हिसाब से चैत के महीने की तृतीया को सरहुल मनाया जाता है. सरहुल के दिन ही नया साल मनाया जाता है. इसके अलावा भादो महीने की एकादशी को ‘कर्म’ त्योहार मनाया जाता है.

क्या है सरना धर्म कोड बिल?

सरना धर्म कोड बिल को समझने के लिए जरूरत है धर्म कोड समझने की. जनगणना रजिस्टर में धर्म का कॉलम होता है. इस कॉलम में अलग अलग धर्मों का अलग अलग कोड होता है. जैसे हिंदू धर्म का 1, मुस्लिम धर्म का 2, क्रिश्चियन धर्म का 3. ऐसे ही सरना धर्म के लिए भी एक कोड की मांग हो रही है.

इतिहास क्या कहता है?

देश भर में कुल 750 से ज्यादा जनजातियां है. 2011 की जनगणना के मुताबिक देश में जनजातियों की जनसंख्या 10 करोड़ से ज्यादा थी. बीबीसी की रिपोर्ट के मुताबिक इनमें क़रीब 2 करोड़ भील, 1.60 करोड़ गोंड, 80 लाख संथाल, 50 लाख मीणा, 42 लाख उरांव, 27 लाख मुंडा और 19 लाख बोडो आदिवासी हैं.

ब्रिटिश इंडिया में 1871 में पहली बार जनगणना हुई थी. तब आदिवासियों के लिए अलग से धर्म कोड की व्यवस्था थी. 1941 तक ये व्यवस्था लागू रही. लेकिन आजादी के बाद 1951 में जब पहली जनगणना हुई तो आदिवासियों को शेड्यूल ट्राइब्स यानी अनुसूचित जनजाति कहा जाने लगा. और जनगणना में ‘अन्य’ नाम से धर्म की कैटेगरी बना दी गई.

सरना को अलग धर्म मानने की मांग 80 के दशक से चल रही है. साल 2011 की जनगणना में 79 लाख से ज्यादा लोगों ने धर्म के कॉलम में ‘अन्य’ भरा. लेकिन 49 लाख से ज्यादा ने धर्म के कॉलम में लोगों में अन्य नहीं ‘सरना’ भरा. और इन 49 लाख में से 42 लाख लोग झारखंड के रहने वाले हैं. इसके अलावा बंगाल और ओडिशा के करीब सवा 4 लाख लोगों ने भी धर्म के कॉलम सरना भरा.

2011 की जनगणना में जैन धर्म की जनसंख्या 45 लाख थी जबकि 49 लाख लोगों ने सरना धर्म चुना. ऐसे में सरना को धर्म मानने में क्या दिक्कत है. सरना को धर्म मानने वाले लोग कहते है कि अगर जनसंख्या के फॉर्म में सरना को जगह दे दी जाए तो पूरी जनसंख्या सामने आ जाएगी.

राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग (NCST) ने 2011 की जनगणना के समय सरना को एक अलग धर्म संहिता सौंपने की सिफारिश की थी. रामेश्वर उरांव, जो उस समय एनसीएसटी के अध्यक्ष थे, के हवाले से टाइम्स ऑफ इंडिया ने कहा, “उनकी मांग पर्याप्त ध्यान देने योग्य है और मैं सुझाव दूंगा कि जनगणना के धर्म संहिता में सरना को स्वतंत्र धर्म संहिता दी जानी चाहिए.”

झारखंड विधानसभा से भी सरना धर्म कोड बिल पास

17 नवंबर 2021 को झारखंड की हेमंत सोरेन सरकार ने विधानसभा का विशेष सत्र बुलाया. विधानसभा में सरना धर्म कोड बिल पास कराया. और केंद्र सरकार की मंजूरी के लिए एक चिट्ठी लिखी.

चिट्ठी में कहा गया कि, राज्य में आदिवासियों की जनसंख्या में भारी गिरावट आई है. इनकी जनसंख्या 1931 में 38.3 प्रतिशत थी जो 2011 की जनगणना में घटकर 26.02 प्रतिशत रह गई है. इसका एक कारण ये भी है कि काम के लिए लोग दूसरे राज्यों में चले जाते हैं. और दूसरे राज्यों में इनकी गिनती आदिवासियों में नहीं होती.  लेकिन अगर इनको अलग कोड मिल जाए तो पूरी जनसंख्या की गिनती की जा सकती है. गिरती हुई जनसंख्या से संविधान से मिले अधिकारों पर भी असर पड़ रहा है.

झारखंड विधानसभा में जब ‘सरना आदिवासी धर्म कोड बिल’ पास हुआ था, तब सोरेन सरकार ने कहा था कि इससे आदिवासियों को पहचान मिलेगी और उनकी संस्कृति और धार्मिक आजादी की रक्षा की जा सकेगी. मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन भी सरना समुदाय से आते हैं.

भले ही झारखंड और अब पश्चिम बंगाल विधानसभा ने सरना धर्म कोड बिल को पास कर दिया हो, लेकिन जब तक केंद्र सरकार से इस बिल को मंजूरी नहीं मिलती है तब तक ये कोड लागू नहीं होगा. क्योंकि बाकायदा संसद से बिल पास कराकर कानून पारित करना होगा.

सरना धर्म की माँग को मान लेना बीजेपी के लिए असंभव लगता है. क्योंकि संघ परिवार (RSS) यह दावा करता है कि सभी आदिवासी हिंदू हैं.

संघ परिवार लंबे समय से आदिवासी इलाक़ों में इस मक़सद से काम कर रहा है. इसलिए केंद्र में बीजेपी की सरकार रहते हुए तो यह संभव दिखाई नहीं देता है कि सरना धर्म से जुड़ा बिल संसद में आए और पास भी हो जाए.

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