झारखंड (Jharkhand) की राजधानी रांची में रहने वाले आदिवासी साहित्यकार (Tribal litterateur) और रंगकर्मी महादेव टोप्पो को साहित्य अकादमी (Sahitya Akademi) के कार्यकारिणी समिति के सदस्य के रूप में नियुक्त किया गया है. महादेव टोप्पो को 5 साल के लिए सदस्य चु्ना गया है. उनका कार्यकाल मार्च 2023 से शुरू होगा.
इससे पहले आदिवासियों का प्रतिनिधित्व करने वाली सुलक्षणा टोप्पो भी साहित्य अकादेमी का सदस्य रही हैं. वर्ष 2022 में उनकी सदस्यता की अवधि समाप्त हो गई.
नियुक्ति की जानकारी मिलते ही महादेव टोप्पो ने साहित्य अकादमी के प्रति अपना आभार प्रकट किया. उन्होंने कहा कि वे आश्चर्यचकित हैं, उन्होंने कभी नहीं सोचा था कि उन्हें साहित्य अकादमी की कार्यकारिणी में सदस्य बनने का मौका मिलेगा.
महादेव टोप्पो झारखंड के रचनाकारों के बीच एक जाना-पहचाना नाम है. 1954 में बिहार (अब झारखंड) के रांची में एक उरांव आदिवासी परिवार में जन्मे महादेव टोप्पो की पहचान अग्रणी साहित्यकार के रूप में है. उन्होंने हिन्दी और अपनी मातृभाषा कुड़ुख में कविताएं, कहानियां, लघु कहानियां व नाटकों की रचना की है. लेखन के अलावा उन्होंने नागपुरिया फिल्म ‘बाहा’, कुरूख भाषा में बनी लघु फिल्म ‘पहाडा’ और ‘एडपा काना’ (घर जाते हुए) में अभिनेता के रूप में भी हाथ आजमाया. उनकी प्रकाशित रचनाओं में ‘जंगल पहाड़ के पथ’ (काव्य संग्रह) उल्लेखनीय रही हैं.
उनकी कविताएं देश के लगभग सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं. उनकी कविताओं ने झारखंड आंदोलन में भी अहम भूमिका निभाई है. महादेव ने धर्मयुग, समकालीन जनमत, समयांतर, अरावली उद्घोष, परिकथा, नया ज्ञानोदय, आदिवासी साहित्य आदि पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं लिखीं हैं. उनकी कविताएं जर्मनी, मराठी, असमिया संथाली भाषा में भी प्रकाशित हुईं हैं.
साहित्य अकादमी में अपनी भूमिका के सवाल पर महादेव कहते हैं कि वे एक सदस्य के रूप में वृहद झारखंड की बातों को उठाएंगे. यह कोशिश होगी कि वृहद झारखंड और नॉर्थ ईस्ट में साहित्य के लिए बेहतर माहौल बने.
आदिवासी समाज और जीवन से मिली प्रेरणा
महादेव टोप्पो ने कहा कि आदिवासी समाज में जो दिन मैंने देखे हैं, वहां पढ़ाई-लिखाई न के बराबर थी, बस शराब और हो हल्ला था. उस माहौल में मुझे खाने की भूख से ज्यादा पढ़ाई की भूख थी. यह आज भी है और इसी भूख ने मुझे यहां तक लाकर खड़ा किया है.
महादेव टोप्पो बताते है कि जब वो मिडिल स्कूल में थे तो अपने स्कूल की लाइब्रेरी से प्रेमचंद से लेकर महादेवी वर्मा तक को उन्होंने पढ़ा. तब ही उन्हें हरिवंश राय बच्चन की कई कविताएं जुबानी हो गई थीं, कई उपन्यास वो पढ़ चुके थे.
कुड़ुख और हिंदी से शुरुआत
महादेव बताते है कि उनमें लिखने के लिए ललक तब जगी, जब उन्होंने बचपन में कहीं पढ़ा था कि लिखने से आप लेखक बन सकते हैं. बस वहीं से एक चिनगारी उनके अंदर फूटी. उन्होंने अपने आसपास आदिवासी समाज के भाई-बहनों की हालत देखी, तो उस स्थिति ने इस चिनगारी में घी का काम किया. उन्होंने अपनी भावनाओं को कुड़ुख और हिंदी में लिखना शुरू किया.
महादेव कहते हैं,”आदिवासियों को विकास विरोधी कहा जाता है. यह बात चुभती थी मुझे. बल्कि बताऊं, आदिवासी परंपरा है कि पानी में जाने से पहले पानी को हिलाते थे. ताकि आराम कर रहे पानी को अचानक न जगना पड़े. कहने का मतलब कि आदिवासी इतने संवेदनशील होते हैं. आखिर ऐसे संवेदनशील समाज को विकास विरोधी कैसे कहा जा सकता है. यही सारी बातें और अनुभव मैंने अपनी कविताओं में उकेरी हैं.”