HomeAdivasi Dailyगुजरात में आदिवासी मुद्दों पर कतराती आम आदमी पार्टी

गुजरात में आदिवासी मुद्दों पर कतराती आम आदमी पार्टी

आम आदमी पार्टी गुजरात में आदिवासी आबादी के असली मसलों को उठाने से बच रही है. यहाँ तक की उसने अपने उम्मीदवारों चुनाव प्रचार में नर्मदा-पार-तापी लिंक प्रोजेक्ट आंदोलन में हुई आदिवासियों की जीत का ज़िक्र ना करने की हिदायत दी है.

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 2014 में गुजरात छोड़ दिया और वो बीजेपी के राष्ट्रीय चेहरा बन गए. राष्ट्रीय राजनीति में मोदी को स्थापित करने में विकास के गुजरात मॉडल की भी बड़ी भूमिका मानी जाती है.

बीजेपी के राज में गुजरात में विकास के बड़े बड़े दावों के बावजूद आज भी वहाँ पर पार्टी अपनी सरकार के काम पर कम और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के चेहरे पर ज़्यादा निर्भर करती है.

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी बेशक अपनी सरकार के प्रदर्शन की तारीफ़ करते हैं. लेकिन उनकी असली ख़ूबी विपक्ष की धज्जियाँ उड़ा देना है. जब प्रधानमंत्री विपक्ष की आलोचना करते हैं तो वे वर्तमान पर नहीं रूकते, वो 1947 तक जाते हैं. 

इस बार यानि गुजरात विधान सभा चुनाव 2022 में एक बार फिर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी बीजेपी के चुनाव प्रचार का नेतृत्व कर रहे हैं. इस बार बीजेपी के चुनाव प्रचार में बीजेपी का काफ़ी ज़ोर आदिवासी इलाक़ों में है. 

इसकी एक वजह तो बिलकुल साफ़ है कि गुजरात में कुल आबादी का 15 फीसदी आदिवासी है. इसके अलावा गुजरात विधान सभा की 27 सीटें आदिवासियों के लिए आरक्षित हैं. इन सीटों के अलावा भी आदिवासी मतदाता कई सीटों पर सीधा सीधा निर्णायक भूमिका में होता है. 

वैसे अगर 2019 के लोकसभा चुनाव का प्रदर्शन देखा जाए तो बीजेपी को आदिवासी वोटर की तरफ़ से ज़्यादा चिंतित नहीं होना चाहिए. क्योंकि देश भर में आदिवासी वोटर ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और बीजेपी के लिए खुले दिल से वोट किया था. 

सीएसडीएस (CSDS) के आँकड़ों के अनुसार पिछले लोकसभा चुनाव में बीजेपी को कुल आदिवासी वोटों का क़रीब 52 प्रतिशत वोट मिला था. 

लेकिन 2017 के विधानसभा चुनावों में बीजेपी ने अनुसूचित जनजाति (Scheduled Tribes) के लिए आरक्षित 27 सीटों में से सिर्फ नौ पर जीत हासिल की थी. भारतीय ट्राइबल पार्टी (Bharatiya Tribal Party) ने 2 सीटे जीतीं थीं. बाकी सीटों पर कांग्रेस को कामायाबी मिली थी.

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी

इस बार के चुनाव में आम आदमी पार्टी भी मैदान में है और काफ़ी ज़ोर-शोर के साथ चुनाव लड़ रही है. बीजेपी वैसे भी चुनाव को कभी हल्के में नहीं लेती है. लेकिन गुजरात में हार का मतलब मोदी मैजिक पर सवाल उठना हो सकता है. इसलिए बीजेपी और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी दोनों ही कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते हैं. 

गुजरात की कुल 182 सीटों में पर आदिवासी वोटर कम ज़्यादा असर ज़रूर रखता है. इसलिए बीजेपी इस बड़े वोटबैंक को नज़र अंदाज़ नहीं कर सकती, ख़ासतौर से उस समय जब आम आदमी पार्टी उसे शहरी क्षेत्रों में कड़ी टक्कर दे सकती है.

आदिवासी वोटर को लुभाने के लिए गुजरात में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और बीजेपी के पास कोई बहुत कारगर दावा या वादा नहीं हो सकता है. बल्कि नरेन्द्र मोदी के मुख्यमंत्री काल से ले कर आज तक बीजेपी की सरकार पर गुजरात में आदिवासी के ख़िलाफ़ काम करने का आरोप लगता रहा है.

सरदार वल्लभ भाई पटेल की मूर्ति के लगाने के लिए  ज़मीन लेने से लेकर हाल ही में नर्मदा पार तापी लिंक प्रोजेक्ट तक बीजेपी और आदिवासी आमने सामने रहे हैं. 

इसके अलावा पेसा क़ानून या फिर अनुसूची 5 के प्रावधानों को आदिवासी इलाक़ों में लागू करने का सवाल हो गुजरात का रिकॉर्ड शानदार तो नहीं कहा जा सकता है. बल्कि आदिवासी संगठन यह कहते हैं कि गुजरात इस मामले में बहुत पीछे है.

लेकिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी प्रतिकूल परिस्थितियों में भी चुनाव जीताने की क्षमता साबित कर चुके हैं. नरेन्द्र मोदी सरकार कृषि बिलों पर किसानों से हार गए थे. लेकिन किसान आंदोलन की जीत के बावजूद यूपी में बीजेपी ने शानदार वापसी की थी.

क्या गुजरात में भी एक बार फिर वो यह साबित कर देंगे कि एक सरकार जो आंदोलन के सामने घुटने टेक देती है फिर भी चुनाव जीत सकती है. इस सवाल का जवाब तो अभी नहीं दिया जा सकता है.

लेकिन उन्होंने इतना तो साबित कर ही दिया है कि आंदोलन की जीत को चुनाव में मुद्दा नहीं बनाया जा सकता है. गुजरात के धोराजी में उन्होंने एक सभा को संबोधित करते हुए कहा नर्मदा बचाओ आंदोलन की नेता और कांग्रेस दोनों पर हमला बोलते हुए मेधा पाटकर को गुजरात के विकास का विरोधी बताया था.

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी गुजरात की अस्मिता और तथाकथित विकास मॉडल को कैसे इस्तेमाल करते हैं इसका अंदाज़ा मुझे हाल ही में हुआ. गुजरात में केंद्र सरकार की नदी जोड़ो योजना के तहत पार-तापी-नर्मदा लिंक परियोजना पर सरकार को पीछे हटना पड़ा.

इस मसले गुजरात में आदिवासियों का ज़बरदस्त विरोध सामने आया था. इस आंदोलन में शामिल एक नौजवान आदिवासी नेता फ़िलहाल आम आदमी पार्टी के उम्मीदवार हैं. हाल क़रीब दो हफ़्ते पहले मेरी उनसे अनौपचारिक बात हो रही थी. 

इस बातचीत में उन्होंने बताया कि पार्टी ने उन्हें फ़िलहाल नर्मदा-पार-तापी या फिर केवड़िया आंदोलन का ज़िक्र ना करने की हिदायत दी है. आम आदमी पार्टी को यह डर है कि कहीं नरेन्द्र मोदी उन्हें भी कांग्रेस के साथ साथ गुजरात के विकास मॉडल का विरोधी करार ना दे दें. 

नर्मदा पार तापी लिंक प्रोजेक्ट आंदोलन के बारे में कहा जाता है कि कांग्रेस पार्टी ही इसको दिशा और संसाधन दे रही थी. लेकिन इस चुनाव में कांग्रेस पार्टी भी इस मुद्दे को या फिर आदिवासियों से जुड़े किसी और मुद्दे को केंद्रीय मुद्दा बना रही है ऐसा भी नहीं है. 

2017 में गुजरात में कांग्रेस पार्टी को आदिवासी इलाक़ों में सबसे अधिक सीट मिली थीं. इसलिए कांग्रेस के पास यह मान लेने का कोई कारण नहीं है कि आदिवासी उसकी बात पर कम और मोदी की बात पर ज़्यादा विश्वास करेगा. 

लेकिन इसके बावजूद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी गुजरात चुनाव में आदिवासी मुद्दों पर आम आदमी पार्टी को पूरी तरह से और कांग्रेस पार्टी को काफ़ी हद तक बचाव की मुद्रा में धकेल चुके हैं. 

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