HomeColumnsआदिवासी इलाक़ों में बीजेपी और कांग्रेस पर AAP भारी पड़ सकती है

आदिवासी इलाक़ों में बीजेपी और कांग्रेस पर AAP भारी पड़ सकती है

आदिवासी मुद्दों को नज़रअंदाज़ करना बीजेपी और कांग्रेस दोनों को ही भारी पड़ सकता है. उधर आम आदमी पार्टी आदिवासी मसलों पर स्पष्ट वादे कर रही है. आदिवासी नौजवानों में आप के प्रति आकर्षण बढ़ रहा है.

गुजरात भारत की राजनीति में एक अहम भूमिका निभाने वाला राज्य है. यह सामाजिक, धार्मिक और भौगोलिक रूप से विविधता से भरा राज्य भी है. यहां कई जाति-धर्म के लोग रहते हैं. गुजरात में जैसे-जैसे विधानसभा चुनाव नजदीक हैं, हर राजनीतिक दल जाति और धर्म के आधार पर मतदाताओं को लुभाने से बाज़ नहीं आ रहे है. 

इस बार बीजेपी, कांग्रेस, बीटीपी ( भारतीय ट्राईबल पार्टी) के अलावा आम आदमी पार्टी ने गुजरात के चुनाव में प्रवेश किया है. गुजरात में आम आदमी पार्टी उसी एजेंडे के साथ चुनाव में उतरी है जिस तरह आम आदमी पार्टी दिल्ली में कामयाब हुई है. आम आदमी पार्टी की एंट्री के साथ ही गुजरात में 2022 के विधानसभा चुनाव एक अलग ही रूप ले रहे हैं. 

अगर हम गुजरात में जाति/धर्म आधारित जनसांख्यिकीय संरचना को समझने की कोशिश करते हैं. गुजरात में सबसे बड़ी आबादी अन्य पिछड़ी जातियों की है. गुजरात में अन्य पिछड़ी जातियों की संख्या 40% है. उसके बाद आदिवासियों का नंबर आता है. गुजरात में आदिवासी आबादी लगभग 15% है.  यानी गुजरात में आदिवासियों की आबादी लगभग एक करोड़ होने का अनुमान है. 

स्वाभाविक रूप से गुजरात के हर राजनीतिक दल की नजर आदिवासी वोटरों पर भी है. अब तक के हर चुनाव में राजनीतिक दल जनसंख्या के आधार पर मतदाताओं को लुभाने की कोशिश करते हैं. 

गुजरात में 2022 का चुनाव बीजेपी के अलावा कांग्रेस, बीटीपी, आम आदमी पार्टी के अलावा औवेसी की पार्टी एआईएमआईएम भी गुजरात में चुनाव लड़ने पर विचार कर रही है. गुजरात में अभी तक चुनाव की औपचारिक घोषणा नहीं हुई है. लेकिन सभी दल अपने अलग-अलग एजेंडे, मुद्दों से मतदाताओं को आकर्षित करने में लगे हैं. 

लेकिन यह बात अब बिलकुल साफ़ नज़र आ रही है कि गुजरात के इस चुनाव में आम आदमी पार्टी चर्चा में आ गई है. इसके साथ ही आदिवासी इलाकों में भी आम आदमी पार्टी चर्चा का विषय बन गई है. आदिवासी समुदाय के कई जाने पहचाने चहेरे आम आदमी पार्टी में शामिल हो चुके हैं. 

आम आदमी पार्टी ने भारतीय ट्राइबल पार्टी से गठबंधन की कोशिश भी की थी

गुजरात में आदिवासी महाराष्ट्र की सीमा से लेकर मध्य प्रदेश, राजस्थान की सीमा तक फैले हुए हैं. एक अनुमान के अनुकाल हर सातवां  गुजराती आदिवासी है. आदिवासियों की इतनी बड़ी आबादी के बावजूद, आदिवासियों का बहुत विकास नहीं हुआ है. आदिवासी आज भी मूलभूत सुविधाओं के लिए संघर्ष कर रहे हैं. 

क्योंकि आदिवासी जंगल और पहाड़ी इलाके में रहते हैं. लेकिन आदिवासी के विकास ना होने की बड़ी वजह है कि यहां के राजनीतिक दलों ने आदिवासियों के मुद्दे को गंभीरता से नहीं लिया है. 

इसलिए आदिवासी हर राजनीतिक दल से नाखुश हैं. यहां के आदिवासी लंबे समय से अपने हक की लड़ाई लड़ रहे हैं और उसके कई संघर्ष राष्ट्रीय स्तर पर भी चर्चा में आए हैं. आज विकास के नाम पर आदिवासियों को उनके जल, जंगल और जमीन से बेदखल किया जा रहा है. जंगल के बिना आदिवासियों के जीवन की कल्पना करना भी मुश्किल है.  

इसलिए आदिवासियों को जंगल से विस्थापित करना अगर प्रत्यक्ष तो अप्रत्यक्ष रूप से उन्हें तबाह करना है. आज जब दुनिया भर में ग्लोबल वार्मिंग के ख़तरे की चर्चा की जा रही है, गुजरात में सरकार जंगल और प्रकृति को नष्ट करने पर आमादा है. मेंआदिवासी नदी, पहाड़ और जंगल को बचाने की लड़ाई लड़ने को मजबूर है.  

गुजरात में विभिन्न परियोजनाओं जैसे तापी पर लिंक, जिंक परियोजना, भारतमाला, तेंदुआ सफ़ारी, इको सेंसिटिव जोन के तहत अधिसूचित क्षेत्र, स्टैच्यू ऑफ यूनिटी आदि के नाम पर आदिवासी को विस्थापित किया गया है, या फिर यह ख़तरा उन पर लगातार बना हुआ है.

गुजरात के सभी आदिवासी एकजुट होकर इन परियोजनाओं का लगातार विरोध कर रहे हैं. जिसके परिणामस्वरूप तापी पार लिंक की परियोजना पर  सत्तारूढ़ दल बीजेपी को पीछे हटना पड़ा. फिलहाल आदिवासियों पर इस इलाके में मंडरा रहा एक बड़ा ख़तरा टल गया है. लेकिन आदिवासी क्षेत्र में अन्य परियोजनाओं को रद्द नहीं किया गया है.

इसलिए यह नहीं कहा जा सकता है कि आदिवासी और उसका जंगल सुरक्षित है. स्वतंत्रता के बाद भारत में पिछड़े और दलित वर्गों के लिए संविधान में एक अलग प्रावधान किया गया है. आदिवासी समुदायों के लिए पांचवीं अनुसूची का प्रावधान किया गया था. इसके अलावा वन अधिकार कानून और पेसा अधिनियम आदिवासियों के अधिकारों को सुरक्षित करने के लिए लाए गए थे. लेकिन अफ़सोस कि आजादी के 75 साल बाद भी गुजरात के आदिवासी इलाकों में ये प्रावधान प्रभावी तरीके से लागू नहीं है.

आदिवासी क्षेत्रों में पांचवीं अनुसूची और पेसा अधिनियम को लागू करने के लिए यहां के आदिवासी सत्ताधारी दल से लगातार गुहार लगाते रहे हैं. वहीं भरूच जिले के कई गांवों ने धरना-प्रदर्शन करते हुए इस मुद्दे को सरकार तक पहुंचाने का प्रयास भी किया है.लेकिन सरकार की ओर से कोई कार्रवाई नहीं की गई. 

दूसरी ओर, आदिवासियों से संबंधित वन अधिनियम है जिसके माध्यम से आदिवासियों को जंगल पर अधिकार दिया गया है. यह कानूनी भी प्रभावी तरीके से लागू नहीं किया गया है. जंगल आदिवासियों के लिए धड़कते दिल की तरह है. इसलिए दक्षिण गुजरात के आदिवासियों और वन विभाग के कर्मचारियों के बीच जंगल तक पहुंच को लेकर विवाद  होता रहता है. यहां के आदिवासी भी वन विभाग के अत्याचारों का शिकार हो चुके हैं.

यहाँ के आदिवासियों की एक और गंभीर समस्या है, झूठे आदिवासी प्रमाण पत्र बनाकर अन्य समुदायों के लोग आदिवासियों के अधिकारों का उपयोग कर रहे हैं.  इस मसले पर यहाँ के आदिवासियों ने गंघीनगर में डेरा डाला. आदिवासियों ने सरकार से मांग की थी कि इस मामले मे सरकार सख़त कदम उठाए. लेकिन इस पक्ष पर भी ने अभी तक कुछ ख़ास नहीं किया है.

राज्य में सत्तारूढ़ पार्टी ने इस मुद्दे पर छोटे-बड़े विरोध विरोध दर्ज करने की खानापूर्ती ही की है. कुल मिला कर इस मसले का कोई समाधान नहीं हुआ है. 

केवड़िया में आदिवासी विस्थापन के खिलाफ़ लंबे समय से आंदोलन कर रहे हैं. लेकिन अभी तक उन्हें न्याय नहीं मिला है. उकाई और नर्मदा का पानी सौराष्ट्र से कच्छ तक पहुंच रहा है, लेकिन स्थानीय आदिवासी के खेत के लिए पानी नहीं मिला है. इसके अलावा आदिवासियों को शिकायत है कि आदिवासियों पर होने वाले अत्याचार के निवारण कानूनों का पालन सख़्ती से नहीं किया जाता है. 

इन सब मसलों पर सत्ताधारी दल बीजेपी से आदिवासी बहुत नाराज़ हैं. पिछले चुनाव के परिणामों में यह बात बिलकुल साफ़ भी हो गई थी कि आदिवासी बीजेपी से नाराज़ है. पिछले चुनाव में बीजेपी का विकल्प कांग्रेस या फिर कुछ सीटों पर बीटीपी थी. लेकिन इस बार आम आदमी पार्टी ने एक नया विकल्प पेश किया है. 

दक्षिण गुजरात को आदिवासी आबादी का गढ़ माना जाता है. यहां आम आदमी पार्टी इस क्षेत्र में बहुत तेजी से विस्तार कर रही है. यह देखा गया है कि आज आदिवासियों के भीतरी गांवों में भी बहस चल रही है.  इस बहस के केंद्र में अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी ही है. 

आदिवासी युवा भी आम आदमी पार्टी के एजेंडे में दिलचस्पी ले रहे हैं.यह कहना बिलकुल ग़लत नहीं होगा कि आम आदमी पार्टी युवाओं को भी आकर्षित करने में सफल रही है. उस समय आदिवासियों को भी कुछ हद तक यह लग रहा है कि अगर आम आदमी पार्टी सत्ता में आई तो उनकी लंबित समस्याओं का समाधान हो जाएगा. क्योंकि आम आदमी पार्टी के अलावा किसी अन्य राजनीतिक दल ने आदिवासी मुद्दे को गंभीरता से नहीं लिया और न ही कोई दिलचस्पी दिखाई.

आम आदमी पार्टी ने आदिवासी समुदाय के लिए कुछ मुद्दों की गारंटी भी दी है. ये गारंटी ये हैं (1) संविधान की पांचवीं अनुसूची और पेसा अधिनियम का कड़ाई से कार्यान्वयन, और यह कि आदिवासी सलाहकार समिति का अध्यक्ष आदिवासी होगा। (2) आदिवासी बच्चों की शिक्षा के लिए प्रत्येक जिले में आवासीय सुविधाओं के साथ आधुनिक स्कूलों की स्थापना, आदिवासी इतिहास, भाषा, संस्कृति और सभ्यता पर अध्ययन और शोध के लिए आदिवासी विश्वविद्यालय।(3) दिल्ली जैसे आदिवासी क्षेत्रों में आधुनिक मोहल्ला क्लीनिक और अस्पतालों का प्रावधान, सिकल सेल एनीमिया, थैलेसीमिया जैसी बीमारियों का उचित और सस्ता इलाज। (4) सभी बेघर आदिवासी परिवारों को आवास (5) मुख्य सड़क को हर आदिवासी गाँव से जोड़ने वाली पक्की सड़क और सरकारी परिवहन सुविधा. 

साथ ही आम आदमी पार्टी मुफ्त बिजली और युवाओं को रोजगार की गारंटी जैसे मुद्दों से आदिवासी मतदाताओं को लुभाने की कोशिश कर रही है.

वैसे भाजपा भी अब अलग अलग योजनाओं के माध्यम से आदिवासी क्षेत्रों में विकास की बात कर रही है. आदिवासियों के लिए बनाई गई विभिन्न योजनाओं और आदिवासियों के जीवन स्तर में बदलाव जैसे एजेंडे के साथ चुनाव प्रचार भी कर रही है. 

जबकि विपक्षी पार्टी कांग्रेस इस चुनाव में पता नहीं क्या सोच कर बैठी है. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और बीजेपी ने आदिवासियों से जुड़े मुख्य मुद्दे को अर्बन नक्सल जैसे अन्य मुद्दों की चर्चा में उलझाने की कोशिश की है. इसके अलावा लुभावने वादों के विज्ञापनों की भरमार कर दी गई है. 

आदिवासी वोटबैंक के लिए भगवान बिरसा मुंडा गौरव यात्रा की जा रही है. फिर इस चुनाव में आदिवासी सभी राजनीतिक दलों से नाखुशही नज़र आता हैं क्योंकि उनके जीवन से जुड़े विभिन्न लंबित मुद्दों का समाधान नहीं हो रहा है. आदिवासी आम आदमी पार्टी को उम्मीद की किरण के रूप में अच्छी प्रतिक्रिया देते नजर आ रहे हैं.

यह वह पार्टी है जिसने आदिवासी क्षेत्रों में पांचवीं अनुसूची और पेसा अधिनियम लागू करने का वादा किया है. जबकि गुजरात की सत्ताधारी पार्टी और विपक्ष ने अभी भी आदिवासी मुद्दे को गंभीरता से नहीं लिया है. फ़िलहाल तो गुजरात चुनाव में कम से कम आदिवासी इलाकों में बीजेपी को आम आदमी पार्टी से चुनौती मिलती नज़र आ रही है. 

अभी चुनाव की औपचारिक घोषणा नहीं हुई है और बीजेपी एक संगठित और सत्ता में बैठी पार्टी है. इसलिए उससे मुकाबला आसान नहीं होगा. लेकिन आम आदमी पार्टी की शुरुआत को ख़राब नहीं कहा जा सकता, बल्कि इस शुरुआत को मजबूत कहा जाएगा. 

(अंजू गामित आदिवासी समुदाय से आती हैं और फ़िलहाल गुजरात यूनिवर्सिटी अहमदाबाद में PhD स्कॉलर हैं. )

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