झारखंड के नावाडीह ब्लॉक के एक छोटे से गाँव छोटीकुड़ी गाँव के बारे में एक हिंदी अख़बार में ख़बर छपी. ख़बर थी की गाँव में बिजली गिरने से झुलसे एक युवक का गोबर से उपचार किया जा रहा है.
ख़बर में कहा गया है कि युवक को अस्पताल ले जाने की बजाए उसको गोबर में दबा कर रख दिया गया.
इस युवक को पूरा दिन गोबर में दबा कर रखा गया. उसकी हालात में सुधार ना होने के बावजूद उसके परिवार ने उसे अस्पताल ले जाने का कोई इरादा नहीं दिखाया.
दरअसल ये युवक अपने दो साथियों के साथ जंगल में ढोर चराने गया था. इन तीनों के नाम हीरालाल किस्कू, बुधन मुर्मू और बहाराम मुर्मू बताया गया है. इनमें से दो ज़्यादा नहीं झुलसे, लेकिन हीरालाल काफ़ी गंभीर रूप से जल गए.
पहली ही नज़र में यह अंधविश्वास का मामला नज़र आता है. जो भी इस घटना के बारे में सुनेगा वो यही कहेगा कि यह अंधविश्वास है. मैं भी कहता हूँ कि यह अंधविश्वास है. लेकिन इसके अलावा भी मैं कुछ औेर बातें कहना चाहता हूँ.
यह तो एक दुर्घटना से जुड़ी ख़बर है जिसका यहाँ हमने ज़िक्र किया. इस तरह की दुर्घटनाओं और बीमारी में अस्पताल जाने की बजाए जंगल की जड़ी बूटियों के अलावा तंत्र-मंत्र का सहारा लेने की के समाचार छपते ही रहते हैं.
लेकिन आदिवासियों में अंधविश्वास और भ्रम की कुछ और ख़बरें लगातार आ रही हैं. ये ख़बरें आज की तारीख़ में काफ़ी चिंतित करने वाली हैं. ये ख़बरें कोविड की दूसरी लहर से मच रहे कोहराम से जुड़ी हैं.
ये ख़बर है कि आदिवासी कोरोना की वैक्सीन लेने से झिझक रहे हैं. कोरोना के टेस्ट के संबंध में भी इसी तरह की ख़बरें हैं कि आदिवासी कोरोना टेस्ट नहीं करवाना चाहते हैं. इस बारे में अलग अलग तरह के भ्रम आदिवासियों में पाए जा रहे हैं.
वैक्सीन के बारे में आदिवासी इलाक़ों में एक बड़ा भ्रम बताया जा रहा वैक्सीन के बाद कई दिन बीमार पड़ने और बुख़ार आने का है. इसके अलावा कुछ आदिवासी इलाक़ों में वैक्सीन से मौत का भी डर आदिवासियों में बताया गया है.
इस बारे में छपी ख़बरें यह भी बताती हैं कि जब इन आदिवासी इलाक़ों में वैक्सीन देने की कोशिश की जाती है तो ये आदिवासी जंगल में भाग जाते हैं.
वैक्सीन के अलावा कोविड टेस्ट के बारे में भी आदिवासियों में कई भ्रम बताए जा रहे हैं. ख़बरों के अनुसार आदिवासियों को लगता है कि अगर उनका कोविड टेस्ट पॉज़िटिव आता है तो उन्हें अस्पताल में ले जाएँगे.
इसके अलावा कुछ ऐसी ख़बरें भी छपीं कि आदिवासी कोविड से अपने गाँव को बचाने के लिए जंगल में जा कर अपने देवताओं और पुरखों की पूजा की है.
इन ख़बरों से जुड़े तथ्यों से मेरी कोई आपत्ति नहीं है. बल्कि आदिवासी भारत में कुछ साल से घूमने और रिपोर्टिंग करने के बाद में उन ख़बरों के तथ्यों और दुर्घटना या घटनाओं की सच्चाई का समर्थन कर सकता हूँ.
लेकिन इसके बावजूद इन ख़बरों में मुझे कुछ अधूरा लगा, इस तरह की हर ख़बर में लगा कि ख़बर में कुछ छूट रहा है. मसलन जिस छोटुकुड़ी गाँव में गोबर लेपेट कर झुलसे हुए लड़के का इलाज़ किया जा रहा था, वहाँ से अस्पताल कितनी दूर है.
जिस परिवार का यह लड़का था उसकी आर्थिक हालत क्या है. गाँव में कितने लोग पढ़े लिखे हैं. इलाज के अलावा भी इस गाँव लोग बाक़ी ज़रूरतों के लिए कितनी बार शहर जाते हैं.
इसके अलावा यह भी जानना ज़रूरी है कि क्या इस गाँव में कोई प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र है. इसके अलावा अगर यह भी पता लगाया जाता कि क्या आयुष्मान भारत या फिर किसी और योजना के तहत उन्हें स्वास्थ्य सेवाओं की गारंटी मिली है.
अब आप कह सकते हैं कि यह मामला अंधविश्वास और अज्ञानता से जुड़ा है तो इन सवालों का क्या मतलब है. मैं भी मानता हूँ कि यह मामला अंधविश्वास और अज्ञानता से जुड़ा है. लेकिन यह मामला पैसे, पहुँच और भरोसे से भी जुड़ा है.
इस तरह का अंधविश्वास और अज्ञानता लगभग पूरे ग्रामीण भारत में ही देखी जा सकती है. आदिवासियों में यह ज़्यादा नज़र आती है. इसकी पहली वजह है कि ज़्यादातर ग्रामीण और आदिवासी इलाक़ों से अच्छे अस्पताल आमतौर पर दूर हैं.
ख़ासतौर से आदिवासी इलाक़ों से बीमार को अस्पताल तक पहुँचाना बेहद मुश्किल काम होता है.
इसके बाद दूसरा मसला आता है इलाज पर होने वाला ख़र्च. इस सबके अलावा आदिवासी आबादी के लिए भरोसा भी एक बड़ा मसला है.
आदिवासी समुदाय आसानी से ग़ैर आदिवासी समुदाय पर भरोसा नहीं कर पाता है. उसकी वजह बहुत साफ़ है, जिस नज़र से ग़ैर आदिवासी आदिवासियों को देखते हैं वो अच्छी तो कम ही होती है.
इसलिए ग्रामीण भारत और ख़ासतौर से आदिवासी भारत में बीमारी के इलाज के लिए टोटके किए जाते हैं. काफ़ी हद तक टोटके करने वालों को पता होता है कि यह काम नहीं करेगा.
इसी तरह से कोविड वैक्सीन के बारे में जो भ्रम आदिवासी इलाक़ों में है उनसे जुड़ी ख़बरें भी सही हैं. लेकिन इन ख़बरों से जुड़े भी मेरे कुछ सवाल हैं.
मसलन पिछले एक साल में कोविड और कोविड वैक्सीन के बारे में कितने जागरूकता अभियान आदिवासी इलाक़ों में चलाए गए. क्या आदिवासी भाषाओं में कोई ऐसी कोशिश की गई.
इसके अलावा सबसे ज़रूरी सवाल कि कितने आदिवासी इलाक़ों में कोविड टेस्टिंग या फिर वैक्सीन के लिए केंद्र स्थापित किए गए. क्या किसी राज्य सरकार ने ऐसा कोई आँकड़ा जारी किया है. इन ख़बरों में ऐसा कोई आँकड़ा नहीं मिलता है.
इस मामले में केरल, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश और तमिलनाडु से जुड़ी कुछ ख़बरें ज़रूर मिलीं. मसलन तमिलनाडु के नीलगीरी ज़िले में आदिवासियों की भाषा में जागरूकता अभियान चलाया गया.
केरल के आदिवासी बहुल ज़िले वायनाड में 60 साल के उपर के 76 प्रतिशत लोगों को कोरोना वैक्सीन दी जा चुकी है. लेकिन बाक़ी राज्यों से ऐसी किसी ख़बर पर अभी तक तो मेरी नज़र नहीं पड़ी.
आदिवासी आबादी के बारे में जब हम बात करते हैं तो हमें यह ध्यान रखना होगा कि हमारे देश में 700 से ज़्यादा आदिवासी समूह हैं. इन आदिवासी समूहों की आबादी और जीवन स्तर में काफ़ी फ़र्क़ भी है.
जहां कुछ आदिवासी समूह अब मुख्यधारा कहे जाने वाले समाज के साथ रोज़मर्रा के संपर्क में हैं, वहीं कुछ आदिवासी समूह अभी भी काफ़ी हद तक अलग थलग हैं.
वैक्सीन के बारे में जो भ्रम आदिवासियों में हैं वही भ्रम मुख्यधारा कहे जाने वाले समाज में भी तो देखने को मिले थे. इसलिए यह बेहद ज़रूरी था कि वैक्सीन के बारे में आदिवासियों का भ्रम दूर किया जाए.
आदिवासी परंपरागत तौर फसल बोने से लेकर फ़सल काटने के बाद, प्रकृति और अपने पूर्वजों का धन्यवाद करते हैं. इसी तरह से बीमारियों और प्राकृतिक आपदाओं से बचने के लिए भी बलि और पूजा की परंपरा है.
लेकिन क्या मुख्यधारा कहे जाने वाले समाज में यज्ञ और शंख बजा कर कोरोना से मुक्ति के आडंबर नहीं किये गए.
लेकिन ज़्यादातर राज्यों में ऐसा कोई बड़ा प्रयास किया नहीं किया गया.
दरअसल कोविड-19 महामारी के प्रबंधन में जिस तरह की ग़ैर ज़िम्मेदारी दिखाई गई है, वह आपराधिक है. इस लापरवाही और ग़ैर ज़िम्मेदारी का शिकार ग्रामीण और आदिवासी भारत भी हुआ है.
आदिवासी भारत में वैक्सीन के बारे में जितना भ्रम फैला है उससे बड़ा भ्रम ‘सिस्टम’ ने आदिवासी भारत और कोविड के बारे में फैलाया.
आज भी लगातार आदिवासी इलाक़ों के बारे में ख़बरें छप रही हैं कि कोविड आदिवासियों का कुछ नहीं बिगाड़ सकता है. आदिवासी जीवनशैली की तारीफ़ों के पुल बांधे जा रहे हैं.
इस सिलसिले में मार्च 2020 में मैंने लिखा था कि आदिवासी भारत में ग़रीबी, कुपोषण और स्वास्थ्य सेवाओं का जो हाल है, यहाँ कोविड बेहद ख़तरनाक होगा.
इसके साथ ही मैंने आदिवासी भारत में अपने अनुभव के आधार पर यह भी बताने की कोशिश की थी कि कोविड को आदिवासी भारत में घुसने से रोकना शायद संभव नहीं होगा.
क्योंकि एक भी आदिवासी समूह अब ऐसा नहीं है जो पूरी तरह से बाहरी दुनिया से कटा हो. कम ही सही पर बाहरी दुनिया से उसका संपर्क है.
यह तथाकथित सिस्टम आदिवासी भारत में कोविड-19 के मामले में कितना गंभीर है, इसका अंदाज़ा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि केन्द्र सरकार की तरफ़ से 16 मई 2021 को आदिवासी इलाक़ों के लिए गाइडलाइन जारी की गई हैं.
अफ़सोस की बात ये है कि जब दूसरी लहर ने शहरी भारत में लाखों लोगों की जान ले ली, तब भी कुछ समय था कि आदिवासी भारत में बेहतर प्रबंधन किया जा सकता था.
लेकिन सरकार यहाँ अंधविश्वास, भ्रम और टोटकों की ख़बरों की आड़ में अपना पल्ला झाड़ कर आदिवासियों को ही दोषी बताने में जुटी है.