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राजस्थान की राजनीति में ‘आदिवासी’ का कद बड़ा है

राजस्थान में आदिवासियों की करीब 14 फीसदी आबादी है. राजस्थान के आदिवासी देश भर के आदिवासी समाज की तरह आज भी बहुत पिछड़े हुए हैं. यह मुख्य तौर पर दक्षिणी राजस्थान के बांसवाड़ा, डूंगरपुर, उदयपुर और प्रतापगढ़ ज़िले में रहते हैं. इन इलाकों में आदिवासियों की 50 फीसदी से ज़्यादा आबादी है.

लोकसभा चुनाव 2024 का आगाज हो चुका है. लोकसभा चुनाव के पहले चरण का मतदान 19 अप्रैल को हुआ. इस चरण में 21 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों की 102 सीटों पर वोटिंग हुई.

देशभर में लोकसभा की 543 लोकसभा सीटों में से 47 सीटें आदिवासियों के लिए आरक्षित हैं. इनमें से 8 सीटों पर पहले चरण में मतदान हुआ. जिसमें छत्तीसगढ़ की बस्तर सीट, मध्य प्रदेश की शहडोल और मंडला सीट, महाराष्ट्र का गढ़चिरौली, पश्चिम बंगाल का अलीपुरद्वार, राजस्थान की दौसा सीट, मिज़ोरम की एकमात्र सीट मिज़ोरम और मणिपुर के आउटर मणिपुर सीट के कुछ विधानसभा क्षेत्र शामिल है.

आज हम अपने लोकसभा चुनाव की एसटी आरक्षित सीट सीरीज में बात करेंगे राजस्थान के आदिवासियों के लिए आरक्षित सीटों की.. राजस्थान में पहले चरण में 12 लोकसभा सीटों पर 19 अप्रैल को पहले फेज में मतदान हुआ. जिसमें श्रीगंगानगर, बीकानेर, चूरू, झुंझुनूं, सीकर, जयपुर ग्रामीण, जयपुर शहर, अलवर, भरतपुर, करौली धौलपुर, दौसा और नागौर लोकसभा सीटें शामिल हैं.

राजस्थान में लोकसभा की 25 सीटों में से 3 सीटें – दौसा, उदयपुर और बांसवाड़ा अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित है.

पहले चरण में 19 अप्रैल को आदिवासियों के लिए आरक्षित दौसा सीट पर वोटिंग हो गई है. जबकि दूसरे चरण में 26 अप्रैल को उदयपुर और बांसवाड़ा निर्वाचन क्षेत्र के लिए मतदान होगा.

दौसा लोकसभा सीट

राजेश पायलट के समय से कांग्रेस का गढ़ रही आदिवासी बहुल दौसा संसदीय सीट पर अब बीजेपी का कब्जा है. यहां से बीजेपी के हरीष मीणा 2014 में तो जसकौर मीणा 2019 में सांसद बने थे.

जयपुर की दो, अलवर की एक और दौसा की पांच विधानसभा सीटों को मिलाकर बनी इस लोकसभा क्षेत्र में 5 विधायक बीजेपी के है. वहीं बाकी तीन विधानसभा सीटों पर कांग्रेस काबिज है.

इस लोकसभा सीट पर पहला लोकसभा चुनाव 1952 में हुआ था. उस समय कांग्रेस के राज बहादुर सांसद चुने गए थे. फिर अगले चुनाव में भी कांग्रेस की जीत हुई और जीडी सोमानी सांसद चुने गए. फिर 1962 में तीसरा चुनाव हुआ तो स्वतंत्र पार्टी के पृथ्वीराज और 67 के चुनाव में इसी पार्टी के आरसी गनपत सांसद चुने गए थे.

1968 के चुनाव में कांग्रेस ने एक बार इस सीट को कब्जाई और नवल किशोर शर्मा लगातार दो चुनाव जीते. 1977 में हुए चुनाव में जनता पार्टी के नाथू सिंह गुर्जर यहां से चुने गए थे लेकिन 1980 के चुनाव में एक बार फिर कांग्रेस के नवल किशोर शर्मा को विजयश्री मिल गई.

1984 में राजेश पायलट ने पहली बार यहां से पर्चा भरा और चुनाव जीत गए. लेकिन 89 के चुनाव में बीजेपी के नाथू सिंह गुर्जर ने उन्हें पटखनी दे दी. इसके बाद 1991 में हुए चुनाव में कांग्रेस के राजेश पायलट ने वापसी की और वो सांसद चुने गए. वह लगातार 91, 96, 98 और 99 के चुनाव जीते.

फिर 2000 में हुए उपचुनाव में रामा पायलट यहां से सांसद बनी और 2004 में सचिन पायलट ने इस सीट का नेतृत्व किया.

वहीं 2009 में यह सीट अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हो गई. ऐसे में यह सीट स्वतंत्र उम्मीदवार किरोड़ी लाल मीणा ने जीत ली. हालांकि 2014 के बाद से यह सीट बीजेपी के पास है.  

2024 के चुनाव में बीजेपी और कांग्रेस दोनों ही दलों ने दिग्गज नेताओं को चुनाव मैदान में उतारा है. भाजपा ने चार बार के पूर्व विधायक कन्हैयालाल मीणा को प्रत्याशी बनाया है. उधर कांग्रेस ने मुरारीलाल मीणा को चुनाव मैदान में उतारा है.

उदयपुर लोकसभा सीट

झीलों के शहर उदयपुर में जैसे पर्यटक हमेशा आते और जाते रहते हैं. ठीक उसी तरह से यह सीट किसी नेता या पार्टी को भी सिर पर पर नहीं बैठाता. यही वजह है कि हर चुनाव में जीतने वाले प्रत्याशी की या तो पार्टी बदल जाती है या वह खुद बदल जाता है. हालांकि 2014 के चुनावों के बाद से इस सीट पर बीजेपी के अर्जुन लाल मीणा लगातार काबिज हैं.

उदयपुर की अर्थव्यवस्था मुख्य रूप से कृषि और पर्यटन पर निर्भर है. यहां 61.7 फीसदी लोग खेती करते हैं. हर साल लाखों की संख्या में यहां पयर्टक आते हैं. झीलों का यह शहर अब तो वीआईपी के शादियों के लिए खास डेस्टिनेशन बन रहा है. बावजूद इसके 2006 में पंचायती राज मंत्रालय ने इस जिले को देश के 250 सबसे पिछड़े जिलों में शामिल किया था.

खनिज संसाधनों में समृद्ध इस जिले में तांबा, सीसा, जस्ता और चांदी के भंडार हैं. इसी प्रकार यहां गैर धातुओं में खनिज रॉक फॉस्फेट, अभ्रक, चूना पत्थर और संगमरमर भी बहुतायत में हैं.

इस लोकसभा सीट के 81 फीसदी वोटर ग्रामीण हैं. वहीं शहरी मतदाताओं की संख्या 19 फीसदी है.

आजादी के बाद उदयपुर में पहला लोकसभा चुनाव साल 1952 में हुआ था. उस समय कांग्रेस के बलवंत सिंह मेहता सांसद चुने गए थे. हालांकि 1957 के चुनाव में कांग्रेस पार्टी ने प्रत्याशी बदलकर दीनबंधु परमार को मैदान में उतारा और वो विजयी हुए.

इसके बाद 1962 और 1967 के चुनाव में कांग्रेस ने फिर प्रत्याशी बदला और धुलेश्वर मीणा को सांसद बनाया. 1971 में पहली बार भारतीय जनसंघ ने यहां से खाता खोला और लालजी भाई मीणा यहां से सांसद चुने गए.

फिर 1977 के चुनाव में जनता पार्टी के टिकट पर भानु कुमार शास्त्री और 1980 के चुनाव में कांग्रेस के मोहनलाल सुखड़िया यहां से सांसद चुने गए थे. फिर 1984 का चुनाव हुआ तो कांग्रेस के ही इंदुबाला सुखड़िया और 1989 के चुनाव में भाजपा के गुलाब चंद कटारिया को संसद जाने का मौका मिला.

इसके बाद 1991 में कांग्रेस के गिरिजा ब्यास को उदयपुर से सांसद चुना गया और यहां की जनता ने उन्हें दोबारा 1996 में भी संसद भेजा. फिर 1998 में चुनाव हुआ तो भाजपा के शांतिलाल चपलोट और 1999 के चुनाव में कांग्रेस के गिरिजा ब्यास ने जीत हासिल की.

2004 में यहां से भाजपा की किरन महेश्वरी और 2009 में कांग्रेस के रघुवीर मीणा सांसद बने. उसके बाद से भाजपा के अर्जुनलाल मीणा यहां से सांसद हैं.

बांसवाड़ा लोकसभा सीट

राजस्थान में बांसवाड़ा लोकसभा सीट वैसे तो कांग्रेस का गढ़ रही है लेकिन यह सीट भी हर चुनाव में नए चेहरे पर दाव लगाती आई है. 2014 के बाद यहां दो बार से  बीजेपी को जीत मिल रही है लेकिन दोनों बार प्रत्याशी नए रहे.

यहां अब तक लोकसभा के कुल 17 चुनाव हुए हैं. इनमें से सबसे ज्यादा बार यानी 12 बार जीतने वाली कांग्रेस ने भी हर बार प्रत्याशी बदल कर ही विजय हासिल की है.यही स्थिति बीजेपी की भी रही है.

बांसवाड़ा लोकसभा सीट पर पहला चुनाव 1952 में हुआ. उस समय कांग्रेस के भीखाभाई चुने गए थे. उसके बाद 1957 में कांग्रेस ने भोगीलाल पाडिया, 1962 में रतनलाल, 1967 में हीरजी भाई और 1971 में हीरालाल डोडा को मैदान में उतारा. ये सभी चुनाव जीतते रहे.

हालांकि 1977 के चुनाव में जनता पार्टी के हीरा भाई ने कांग्रेस का विजय रथ थाम तो लिया, लेकिन 1980 में हुए अगले चुनाव में ही एक बार फिर से कांग्रेस के भीखाभाई ने यह सीट पार्टी की झोली में डाल दी.

अगले चुनाव में कांग्रेस ने प्रभुलाल रावत को मैदान में उतारा और वो सांसद बने. हालांकि 1989 में एक बार फिर हीराभाई जनता दल के टिकट पर चुनाव जीत कर संसद पहुंच गए. 1991 में यह सीट वापस कांग्रेस की झोली में पहुंच गई. इस बार यहां से प्रभुलाल रावत सांसद बने.

1996 में कांग्रेस के ताराचंद भगोरा, 1998 में कांग्रेस के ही महेंद्रजीत सिंह मालवीय और 1999 के चुनाव में फिर कांग्रेस के ताराचंद भगोरा यहां से चुने गए.

2004 के चुनाव में बीजेपी ने यहां से धनसिंह रावत को लड़ाकर सांसद बनाया. फिर 2009 में कांग्रेस के ताराचंद भगोरा को यहां से संसद जाने का मौका मिला. इसके बाद 2014 में भाजपा के मानशंकर निनामा और 2019 में भाजपा के ही कनकलाल कटारा यहां से चुने गए.

इस लोकसभा क्षेत्र के 81 फीसदी वोटर गांवों में रहते हैं. वहीं शेष 19 फीसदी शहरी वोटर हैं.

राजस्थान की राजनीति में बाप

वैसे राजस्थान की राजनीति में दो ही पार्टियां – बीजेपी और कांग्रेस प्रमुख हैं. राजस्थान की जनता हर पांच साल में इन दोनों ही पार्टियों को बारी-बारी से मौका देती है. एक बार कांग्रेस तो एक बार बीजेपी सत्ता में आती है. लेकिन अब राजस्थान की राजनीति में तीसरी पार्टी की एंट्री हुई है जो आदिवासी इलाकों में अपनी पैठ बना रही है.

देशभर के आदिवासी समाज के कार्यकर्ताओं, संस्कृतिकर्मियों, भाषाविदों, शिक्षाविद, छात्र, इतिहासकारों और असंगठित क्षेत्र से जुड़े आदिवासियों ने राजनीतिक तौर पर एकजुट होने का निर्णय लिया. एक अखिल भारतीय पहचान को ध्यान में रखते हुए ‘भारत आदिवासी पार्टी’ का गठन हुआ.

भारत आदिवासी पार्टी ने स्थापना के मात्र ढाई महीने बाद होने वाले राजस्थान और मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव 2023 में 35 निर्वाचन क्षेत्रों (27 राजस्थान और 8 मध्य प्रदेश) में चुनाव लड़कर 4 सीटों पर जीत हासिल की.

डूंगरपुर की चौरासी विधानसभा से राजकुमार रौत, आसपुर से उमेश डामोर, धरियावाद से थावरचंद मीणा और मध्य प्रदेश के रतलाम ज़िले की सैलाना सीट से कमलेश्वर डोडियार ने विधानसभा चुनाव जीता था.

इस पार्टी ने लगभग 11 लाख वोट हासिल किए, और इसके 4 उम्मीदवार दूसरे स्थान पर और 16 तीसरे स्थान पर रहे.

भारत आदिवासी पार्टी अपना पहला चुनाव राजस्थान में ऐसी स्थिति में लड़ रही थी कि केंद्र में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा का शासन था और राज्य में कांग्रेस थी. दोनों के धनबल और बाहुबल के सामने बिना संसाधनों के भारत आदिवासी उम्मीदवार चुनाव लड़ रहे थे. लेकिन इसके बावजूद इस पार्टी ने अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करायी.

वर्तमान में लोकसभा चुनाव 2024 की प्रक्रिया चल रही है. राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश, दादरा नागर हवेली, महाराष्ट्र, झारखंड, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश और असम की लगभग 28 लोकसभा सीटों पर पार्टी अपने उम्मीदवार उतारे हैं.

वहीं आदिवासियों के राजनीतिक नेतृत्व को एकजुट करते हुए भारतीय ट्राइबल पार्टी के संस्थापक, संरक्षक और गुजरात से 6 बार के विधायक छोटूभाई वसावा भारत आदिवासी पार्टी में शामिल हो गए हैं.

राजस्थान के आदिवासियों के मुद्दे

राजस्थान में आदिवासियों की करीब 14 फीसदी आबादी है. राजस्थान के आदिवासी देश भर के आदिवासी समाज की तरह आज भी बहुत पिछड़े हुए हैं. यह मुख्य तौर पर दक्षिणी राजस्थान के बांसवाड़ा, डूंगरपुर, उदयपुर और प्रतापगढ़ ज़िले में रहते हैं. इन इलाकों में आदिवासियों की 50 फीसदी से ज़्यादा आबादी है.

राजस्थान के आदिवासी ज़्यादातर खेती और मज़दूरी पर निर्भर हैं. सरकारी क्षेत्र में आरक्षण होने के बावजूद अपने पिछड़ेपन की वजह से वह नौकरियाँ नहीं पा पाते हैं. जानकारों की माने तो ऐसा इसीलिए है क्योंकि जनजाति कोटे में ही आने वाले मीणा उनसे ज़्यादा समृद्ध हैं और कोटे का फायदा उन्हें मिल जाता है.

आदिवासियों के मुख्य मुद्दे हैं ज़मीन के पट्टे न मिलना और बढ़ती बेरोगारी. राज्य में आदिवासी छोटी जमीनों पर खेती करते हैं और इसमें से बड़ा हिस्सा जंगल की जमीन का है.

सितंबर 2005 के बाद सरकार ने एक कमेटी बनाई थी जिसने यह निर्णय लिया था कि जो भी आदिवासी जंगलों की ज़मीन पर खेती करते हैं उन्हें खेती की ज़मीन दी जाएगी. इस तरह के 76 हज़ार ज़मीनों के पट्टों के क्लेम सरकार के पास गए थे. इसमें से 36 हज़ार जमीनों के पट्टे उन्हें मिले तो लेकिन यह भी ढंग से नहीं किया गया.

जैसे जमीन है 5 पाँच बीघा है तो पट्टा मिला आधा बीघा का. बाकी जगह जमीन ही नहीं दी गई. 2013 में सत्ता में आने के लिए बीजेपी ने यह पट्टे देने का वादा किया था लेकिन दिए नहीं. वन विभाग के लोग कई जगहों पर आदिवासियों की खड़ी हुई खेती को ध्वस्त कर देते हैं.

आदिवासी इलाकों में उनके पास जमीन न होने की वजह से उन्हें बैंकों से कृषि लोन नहीं मिलता. ऐसे में आदिवासी साहूकारों से लोन लेते हैं और उसी कर्ज़ के चक्र में फंस जाते हैं

वहीं काम न मिलने कि वजह से इस इलाके के लोग गुजरात और मध्य प्रदेश जा रहे हैं. बांसवाड़ा जिले की 50 फीसदी से ज्यादा आबादी गुजरात और मध्य प्रदेश जैसे पड़ोसी राज्यों में प्रवास करती है. कई गांवों में 90 प्रतिशत घरों से कोई न कोई सदस्य गुजरात में मजदूरी करता है.

राजस्थान के अन्य हिस्सों के विपरीत जहां आम तौर पर एक परिवार के पुरुष अकेले प्रवास करते हैं, बांसवाड़ा जिले में पूरा परिवार आजीविका के लिए पलायन करता है. वे ज्यादातर अकुशल मौसमी प्रवासी हैं जो निर्माण स्थलों, कारखानों, ईंट बनाने, कृषि क्षेत्र आदि में काम करते हैं.

इन समुदायों में अंतर-राज्य संकट प्रवासन (crisis migration) के पीछे प्रमुख कारण गरीबी, रोजगार के अवसरों की कमी और प्राकृतिक संसाधनों की कमी है.

इसके अलावा आदिवासी इलाकों में सड़कों और बाकी सुविधाओं की स्थिति राज्य में बेहद खराब है.

अब देखना है कि इस बार के लोकसभा चुनाव में राजनीतिक पार्टियां और राजनेता राजस्थान के आदिवासियों के इन मुद्दों पर कितना ध्यान देते हैं.

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