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क्या झारखंड राष्ट्रीय स्तर पर आदिवासी राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है

लोकसभा की देश भर में कुल 47 सीटें आदिवासियों के लिए आरक्षित हैं. इनमें से 5 अकेले झारखंड में हैं. ऐसा लगता है कि इस बार झारखंड में आदिवासियत चुनाव में चर्चा का केंद्र है.

झारखंड देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 2.42 प्रतिशत और कुल जनसंख्या का 2.77 प्रतिशत है. फिर भी प्रतिनिधित्व के मामले में 543 सदस्यीय लोकसभा में इसकी 14 सीटें यानी 2.5 फीसदी हिस्सेदारी है.

ऐसा राज्य राष्ट्रीय राजनीति में प्रासंगिक क्यों है? इसका जवाब है, आदिवासी आबादी…क्योंकि राष्ट्रीय स्तर पर अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित 47 सीटों में से पांच सीटें झारखंड के पास हैं.

भाजपा, कांग्रेस और यहां तक ​​कि क्षेत्रीय दलों के लिए भी ये सीटें मायने रखती हैं.

झारखंड में बीजेपी ने लोकसभा चुनावों में अपने प्रदर्शन में लगातार सुधार किया है. 2004 में एक सीट से भाजपा ने 2014 में 14 में से 12 सीटें जीतीं और 2019 में आजसू पार्टी को साथ लेकर इस संख्या को बरकरार रखा.

दूसरी तरफ़ विपक्ष कहानी कुछ और ही रही है. 2009 में सीपीआई और आरजेडी का सफाया हो गया, जबकि कांग्रेस को एक सीट से संतोष करना पड़ा. 2014 में कांग्रेस एक भी सीट नहीं जीत पाई लेकिन 2019 में एक सीट के साथ फिर से उभरी.

हालांकि, झामुमो ने इन सभी चुनावों में भगवा पार्टी को कम से कम एक सीट बरकरार रखते हुए कई सीटों पर कड़ी टक्कर दी.

इस साल हो रहे लोकसभा चुनाव इस साल के अंत में होने वाले विधानसभा चुनावों के लिए भी भूमिका तैयार करेंगे.

झारखंड की आदिवासी आबादी में मुख्य रूप से संथाल, उरांव, मुंडा और हो समुदाय शामिल हैं. 2011 की जनगणना के मुताबिक राज्य की 3.2 करोड़ आबादी का 26.21 फीसदी हिस्सा आदिवासी हैं. आगामी जनगणना में यह संख्या और अधिक होने की उम्मीद है.

राज्य में मौजूदा गैर-भाजपा सरकार, झामुमो-कांग्रेस-राजद गठबंधन, 2019 में सत्ता में आने के बाद से ही केंद्र और राज्य के बीच बजट आवंटन को लेकर मतभेद रहे हैं. इसके अलावा राज्य सरकार का आरोप है कि केंद्रीय एजेंसियों का उपयोग करके उसे अस्थिर किया जा रहा है.

इस साल की शुरुआत में कथित भूमि हड़पने के आरोप में ईडी द्वारा आदिवासी पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की गिरफ्तारी को ‘आदिवासी अस्मिता’ और ‘संवैधानिक निकायों के दुरुपयोग’ की लड़ाई के रूप में पेश किया जा रहा है.

झारखंड के आदिवासी इलाकों में हेमंत सोरेन की ग़िरफ्तारी से ज़्यादातर लोग नाराज़ हैं. ख़ासतौर से विधानसभा में चंपई सोरेन के विशावसमत के दौरान हेमंत सोरेन के भाषण ने उनके प्रति सहानुभूति तैयार करने में भूमिका निभाई है.

अपने भाषण में उन्होंने कहा था बीजेपी की केंद्र सरकार ने उन्हें निशाना बनाया है क्योंकि वे आदिवासी हैं.

हमने झारखंड के राँची, दुमका और चाईबासा के कई गांवों में लोगों से बातचीत की तो यह पाया कि आदिवासी हेमंत सोरेन की ग़िरफ़्तारी से आहत है.

इंडिया गठबंधन की तरफ से जहां भी चुनाव सभा होती है हेमंत सोरेन की पत्नी कल्पना सोरेन एक ही नारा लगवाती हैं, “जेल का ताला टूटेगा, हेमंत सोरेन छूटेगा”.

इंडिया गठबंधन के नेता राहुल गांधी भी अपने भाषण में हेमंत सोरेन की ग़िरफ़्तारी का ज़िक्र ज़रूर करते हैं.

झारखंड की राजनीतिक के दिग्गज यह मानते हैं कि यह लोकसभा का चुनाव काफ़ी हद तक इस बात का टेस्ट भी है कि क्या आदिवासी वाक़ई में हेमंत सोरेन को ग़िरफ़्तारी को बीजेपी की साज़िश मानता है.

2014 में गैर-आदिवासी रघुबर दास को सीएम चुनने के लिए आलोचना झेलने वाली भाजपा अगला विधानसभा चुनाव हार गई. इसके तुरंत बाद राज्य के पहले सीएम बाबूलाल मरांडी को झारखंड में पार्टी का नेतृत्व करने के लिए वापस लाया गया.

भाजपा ने राज्य में अपने ‘आदिवासियों के प्रति प्रेम’ को प्रदर्शित करने के लिए सावधानी से काम किया है लेकिन स्थानीय दलों ने भी इसे चुनौती दी है.

हालांकि, 2014 से 2019 के बीच सीएनटी और एसपीटी अधिनियमों में संशोधन के असफल प्रयासों और रघुवर दास के कार्यकाल के दौरान विवादास्पद धर्मांतरण विरोधी विधेयक की शुरूआत ने एक ऐसी धारणा को बढ़ावा दिया है जो अभी भी कायम है कि भाजपा एक ‘आदिवासी विरोधी’ पार्टी है.

पिछले 5 साल में बीजेपी ने इस धारणा को तोड़ने की भरसक कोशिश की है. इस क्रम में बीजेपी ने बिरसा मुंडा जयंति यानि 15 नवंबर को जनजातीय गौरव दिवस घोषित किया.

इसके अलावा प्रधानमंत्री जनमन यानि पीवीटीजी समुदायों के लिए 24000 करोड़ रुपये के विकास मिशन की घोषणा भी नरेन्द्र मोदी ने बिरसा मुंडा की जन्मस्थली से ही की थी.

लोकसभा चुनाव 2024 के आखिरी चरण में 1 जून को झारखंड की दो आदिवासी आरक्षित सीटें – राजमहल और दुमका सीट पर मतदान होगा.

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