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जंगल जाने दो साहब, नहीं तो मर जाएँगे – मयूरभंज के हिल खड़िया

उन्होंने अपना नाम अंगद देवरी बताया था. मैंने उनसे सीधा सवाल किया, “आपने जंगल में आग क्यों लगाई थी ?” इस पर अंगद बोले, “नहीं सर, हमने जंगल में आग नहीं लगाई है, हम जंगल में आग क्यों लगाएँगे?” मैंने उनकी बात ख़त्म होने से पहले ही दूसरा सवाल दाग दिया, “ फ़ॉरेस्ट डिपार्टमेंट कहता है कि आग आपने ही लगाई है.” इस सवाल के जवाब में अंगद देवरी भावुक होते हुए बोले थे,” सर जंगल में आग लगाएँगे तो हमें भूखे मरना होगा, हमारे बच्चे भूखे मर जाएँगे.”

ओडिशा के मयूरभंज ज़िले के उदला ब्लॉक में गाँव गोथा साही (Gotha Sahi) है. यह गाँव सिमलीपाल टाइगर रिज़र्व फ़ॉरेस्ट के किनारे पर बसा है. हम सुबह क़रीब 7.30 बजे इस गाँव में पहुँचे.

जब हम यहाँ पहुँचे तो देखा कि ज़्यादातर लोग गाँव में ही मौजूद हैं. औरतें घरों में सुबह के काम निपटाने में लगी थीं. एक दो परिवारों के मर्द घरों के छप्पर बदलने में जुटे थे. बाक़ी ज़्यादातर लोग मानो सुबह से ही टाइम पास करने की मुद्रा में हैं. 

जंगल में बसे इस गाँव में सुबह 7.30 बजे सभी लोग गाँव में ही मौजूद हैं, यह बात हमें हैरान क्यों कर रहा था ? यह बात हमें इसलिए हैरान कर रही थी कि किसी और गाँव में इस वक़्त गिन चुने लोग ही आपको नज़र आएँगे.

क्योंकि यह महुआ झड़ने का सीज़न है. जंगलों में बसे आदिवासी गाँवों के लोग इस सीज़न में सूरज निकलने से पहले ही जंगल में पहुँच जाते हैं और महुआ जमा करते हैं. इस काम में औरतें और मर्द दोनों ही शामिल होते हैं. 

जब हम गाँव के बीच एक चौकनुमा जगह पर पहुँचे तो कुछ लोग हमारे आस-पास आ गए. मैंने उन लोगों से पूछा कि वो सभी लोग गाँव में क्या कर रहे हैं ?जंगल नहीं गए ? पहली बार में उन्होंने मेरी बात को अनसुना सा कर दिया था.

मैंने फिर से अपनी बात दोहराई तो एक बुजुर्ग आदमी बोले, “डिपार्टमेंट जंगल नहीं घुसने दे रहा है.’ 

अंगद देवरी, गोथा साही गाँव के हिल खड़िया आदिवासी

उसके बाद कई लोग एक साथ बोल पड़े, कौन क्या कह रहा था समझना मुश्किल था. मैंने उनसे एक-एक कर बोलने का आग्रह किया. उसके बाद हम एक पेड़ के नीचे इत्मिनान से बैठ गए. सबसे पहले बात हुई उन्हीं बुजुर्ग से जो सबसे पहले बोले थे. 

उन्होंने अपना नाम अंगद देवरी बताया था. मैंने उनसे सीधा सवाल किया, “आपने जंगल में आग क्यों लगाई थी ?” इस पर अंगद बोले, “नहीं सर, हमने जंगल में आग नहीं लगाई है, हम जंगल में आग क्यों लगाएँगे?”

मैंने उनकी बात ख़त्म होने से पहले ही दूसरा सवाल दाग दिया, “ फ़ॉरेस्ट डिपार्टमेंट कहता है कि आग आपने ही लगाई है.” इस सवाल के जवाब में अंगद देवरी भावुक होते हुए बोले थे,” सर जंगल में आग लगाएँगे तो हमें भूखे मरना होगा, हमारे बच्चे भूखे मर जाएँगे.” 

उन्होंने बताया था कि उनके पास तो रोज़ी रोज़गार का कोई और साधन नहीं है. जंगल से ही किसी तरह से गुज़र बसर होता है. 

इसके बाद एक लड़के से बात हुई जिसने अपना नाम अभिमन्यु पाणिपात्रो बताया था. इससे पहले की मैं उनसे कुछ पूछ पाता उन्होंने मुझसे पूछ दिया, “ आपने हमारे गाँव के आस-पास का जंगल देखा है?”

मैंने कहा हाँ देखा है ना. फिर उसने पूछा “क्या आपने देखा कि हमारे जंगल में कहीं भी आग नहीं लगी है.?” बात तो उसकी एक सही थी.

गाँव के आस-पास के जंगल में कहीं आग नहीं लगी थी. उसके बाद जब मैंने उससे पूछा कि अगर आग उन्होंने नहीं लगाई है तो फिर आग लगी कैसे? तो उस लड़के ने भड़कते हुए कहा कि यह सवाल तो फ़ॉरेस्ट डिपार्टमेंट से ही पूछा जाना चाहिए. 

अभिमन्यु पाणीपात्रो, हिल खडिया आदिवासी, गोथा साही गाँव

इसके बाद इस लड़के ने बताया कि फ़ॉरेस्ट डिपार्टमेंट ने अब उनके जंगल में जाने पर पूरी तरह से पाबंदी लगा रखी है. जिसकी वजह से उनका जीना मुश्किल होता जा रहा है. 

इसी गाँव के एक और लड़के मोहन मार्ली से बातचीत हुई तो उन्होंने भी ज़ोर दे कर कहा कि उनके गाँव के लोग जंगल में आग लगा ही नहीं सकते हैं. उन्होंने कहा कि आप ही बताएँ हम जंगल में आग लगा देगें तो ख़ुद ही भूखे नहीं मर जाएँगे.

उनका कहना था कि जंगल से जलावन की लकड़ी, फल, फूल और कांदे के अलावा ये आदिवासी शहद जमा करते हैं. उन्होंने मुझसे ही पूछ दिया था, “ आप ही बताएँ अगर हम जंगल में आग लगा देंगे तो मोहू (शहद) कैसे मिलेगा?”

इसके बाद हम इन लोगों से विदा ले कर थोड़ा आगे बढ़े, थोड़ी दूर चलने के बाद ही गाँव ख़त्म हो गया और घना जंगल शुरू हो रहा था. हम वहीं रूक गए और आपस में गप्प लगाने लगे.

5-10 मिनट वहाँ खड़े रहे थे और फिर लौट पड़े. लेकिन कुछ कदम चले थे कि हमने देखा 4-5 लोग हाथ में एक बड़ा पतीला, डंडा और एक लंबा रस्सा गोल बांध कर कंधे पर लटकाए हमारी तरफ़ चले आए थे. 

जब वो हमारे क़रीब पहुँचे तो हमने उन्हें रोक लिया. उन्होंने बताया कि वो शहद की तलाश में जंगल जा रहे हैं. मैंने उनसे पूछा कि अभी तो गाँव के लोग बता रहे थे कि फ़ॉरेस्ट डिपार्टमेंट उन्हें जंगल नहीं जाने देता है.

इस पर उन्होंने कहा कि गाँव के लोग ठीक कह रहे हैं. फ़ॉरेस्ट डिपार्टमेंट रिज़र्व फ़ॉरेस्ट में आदिवासियों को नहीं घुसने दे रहा है.

उन्होंने बताया कि यह तो पूरा ही जंगल का इलाक़ा है, लेकिन गाँवों के आस-पास के जंगल में मधुमक्खी का छत्ता कम ही मिलता है. मैंने उनसे पूछा कि क्या हम उनके साथ जंगल जा सकते थे. उन्होंने तुरंत हाँ भर दी थी.

जंगल में शहद तलाश करते आदिवासी

रास्ते में उनसे काफ़ी बातचीत हुई थी. उन्होंने बताया कि मयूरभंज में हिल खड़िया आदिवासी ही शहद जमा करने में माहिर हैं. वैसे तो सभी आदिवासी अपनी ज़रूरत के लिए कभी कभी छत्ता तोड़ लेते हैं.

लेकिन हिल खड़िया आदिवासियों के लिए यह रोज़ी रोटी है. उन्होंने बताया कि घने जंगल में कई बार एक छत्ते से 10-15 किलो तक शहद भी मिल जाता है. 

रास्ते में बातचीत में एक ने हंसते हुए कहा कि हमने सुना है कि आप लोग तो शहर में बाबा का शहद खाते हैं चीनी की मिलावट वाला. ख़ैर यूँ ही बातचीत का सिलसिला चलता रहा और हम कई किलोमीटर पैदल चलते रहे थे.

रास्ते में एक नदी पड़ी जिसमें पानी काफ़ी कम था. उसे पार करने के बाद एक पेड़ के पास ये लोग रूक गए. उसके बाद हमने दिखाया कि पेड़ पर छोटे-बड़े 4 छत्ते लगे थे.

इसके बाद ये आपस में बात करने लगे. मुझे लगा कि ये तय कर रहे हैं कि पहले कौन सा छत्ता तोड़ा जाए. लेकिन कुछ देर बाद मैंने महसूस किया कि ये लोग तो कुछ चितंत लग रहे हैं.

जब मैंने उनसे पूछा कि हुआ क्या है, तो उन्होंने पूरा मामला समझाया. उन्होंने कहा कि एक पेड़ पर 4 छत्ते हैं, एक को तोड़ने के लिए धुआँ करेंगे तो बाक़ी के छत्तों की मक्खी भी उड़ जाएँगी. तो ? मेरे मुँह से निकल गया.

आपके लिए तो अच्छा है. इस पर उन्होंने जवाब दिया देते हुए बताया कि उनके लिए तो अच्छा है पर पास में ही तो गाँव है. अगर अभी इन छत्तों को तोड़ा जाएगा तो मधुमक्खी गाँव पर हमला कर देंगी. 

अफ़सोस कि छत्ता शहद से भरा था लेकिन तोड़ नहीं पाए

इन लोगों ने अंदाज़ा लगाया कि चारों छत्तों को मिला कर कम से कम 10 किलो शहद मिल जाता. लेकिन इन लोगों ने तय किया कि ये छत्ता नहीं तोड़ेंगे. इसके बाद आस-पास के जंगल में काफ़ी देर भटकते रहे लेकिन कोई छत्ता नज़र नहीं आया. ये आदिवासी ख़ाली हाथ लौट पड़े. 

लौटते हुए मैंने उनसे पूछा कि मधुमक्खी उड़ाने के लिए वो आग जला कर धुआँ करते हैं. इससे भी तो जंगल में आग लग सकती है. इस पर उन्होंने कहा कि वो धुआँ करने और शहद तोड़ लेने के बाद आग सावधानी से बुझाते हैं.

उन्होंने धीमी आवाज़ में कहा कि दरअसल मयूरभंज में तो संथाल सबसे बड़ा आदिवासी समुदाय है. जंगल पर भी उस समुदाय के लोगों का क़ब्ज़ा ज़्यादा है.

लेकिन फ़ॉरेस्ट डिपार्टमेंट की हिम्मत नहीं है कि उन्हें रोक दे या उन्हें आग लगाने के लिए ज़िम्मेदार ठहरा दे. हमेशा हिल खड़िया या मांकडिया जैसे समुदायों को ही टार्गेट कर लिया जाता है. 

हिल खडिया आदिवासियों के साथ श्याम सुंदर

मयूरभंज में एक सामाजिक कार्यकर्ता से बातचीत हुई तो उन्होंने कहा कि आदिवासी जंगल में आग लगाते हैं यह पूरी तरह से सच नहीं है, लेकिन पूरी तरह से झूठ भी नहीं है.

उन्होंने बताया कि दरअसल वो ख़ुद एक समय में आदिवासी गाँवों में जंगल में आग लगाने के नुक़सान को समझाने के लिए किए गए जनजागरण अभियान में शामिल थे.

वो कहते हैं कि पतझड़ के मौसम में जंगल सूखे पत्तों और घास से भर जाता है. एक चिंगारी भी पूरे जंगल को भट्ठी बना देती है.

उन्होंने बताया कि पतझड़ के बाद महुआ झड़ना शुरू होता है. सूखे पत्तों में महुआ ढूँढना पड़ता है तो समय ख़राब होता है. इसलिए कई बार आदिवासी इन सूखे पत्तों में आग लगा देते हैं. इन कार्यकर्ता ने अपना नाम ना छापने का आग्रह किया था. 

इस सिलसिले में हमने जंगल के कई बड़े अधिकारियों से मिलने की कोशिश की, पर सभी टाल गए. जंगल में आग किसने लगाई, यह शायद ही कभी पता लग पाएगा. लेकिन आग लगने के बाद वन विभाग ने हिल खड़िया आदिवासियों के जंगल पर जाने में जो पाबंदी लगाई है, उससे इस समुदाय की रोज़ी और ज़िंदगी पर सीधा और बेहद ख़राब असर हो रहा है. 

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