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हो भाषा साहित्य की कविताओं में प्रगतिशीलता

भारत में लम्बे समय तक आदिवासी समाज पिछड़ेपन और शोषण का शिकार रहा है. इस वजह से कई प्रकार की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक समस्याओं के प्रति साहित्यकारों ने अपने संवेदनाओं की अभिव्यक्ति कविताओं के माध्यम से दी. संवेदनशील रचनाकार मानवीय पीड़ा को कागजों में बयान करने का प्रयास करता है. ऐसी ही कविताओं में कमल लोचन कोड़ा कि ‘इटा बटा नला बसा’, सचिन्द्र बिरूवा की ‘बोदोल’, साधुचरण देवगम की ‘हुसियारेन पे बुरदुडको’ आदि कविताओं को लिया जा सकता है. इन कविताओं में रोजगार के लिए पलायन करते, जल.जंगल.जमीन से वंचित होते आदिवासियों का दर्द छिपा हुआ है.

हो भाषा आस्ट्रोएशियाटिक परिवार की भाषा है. इस भाषा को बोलने वालों को भी हो आदिवासी ही कहा जाता है. हो जनजाति के लोगों की जनसंख्या, वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार पूरे भारत में दस लाख से ज्यादा है.

इनका  निवास झारखण्ड के पश्चिमी सिंहभूम, पूर्वी सिंहभूम, सरायकेला, खरसवाँ, उड़ीसा के मयूरभंज, क्योंझर, सुन्दरगढ़ जिलों में मुख्य तौर पर है. इनका प्रजातीय तत्व प्रोटो.आस्ट्रेलॉयड है.

ये सामाजिक रूप से कई वहिर्विवाही कीलियों (गोत्रों) में विभक्त हैं. उदाहरणतः बोदरा, बांकिरा, अंगारिया, कुदादा, बुड़िउलि, समड, सिंकु बिरूवा, पिंगुवा, गागराई, हेम्ब्रम, बानरा, हाईबुरू, बोयपाई, बारी, केराई, देवगम, सुम्बरूई आदि उनके गोत्रों के नाम हैं. 

इनमें पितृ.वंशीय एवं पितृ.सत्तात्मक परिवार पाये जाते हैं जिसमें एक परिवार में माता.पिता और बच्चे एक छत के नीचे रहते हैं. परिवार के बुजुर्ग किसी एक बेटे के साथ रहते हैं.

हो जनजाति के लोग मुख्यतः खेती किसानी करते हैं, लेकिन अब इस समुदाय के लोग अपनी आर्थिक जरूरतों को पूरा करने के लिए रोजगार की तलाश में शहरों, खनन एवं  औद्योगिक क्षेत्रों की ओर इनका लगातार पलायन हो रहा है. 

गांवों में खेती करने के अलावा जंगल से वनोत्पादों के सहारे ये जीवन यापन करते हैं. चावल, दाल, साग.सब्जी, मुर्गा, बत्तख, मछली, भेड़, सुअर आदि इनके भोजन का मुख्य हिस्सा है. इस समुदाय में भी लोग हंड़िया  यानि राइस बीयर नामक पेय पीते हैं.

जैसे ही खलिहान से धान घरों के अंदर लाया जाता है और माघ महीने की शुरूआत हो जाती है तो हो जनजातीय गांवो में बड़े ही हर्षोल्लास के साथ मागे पर्व मनाया जाता है जो इनका सबसे बड़ा पर्व है. इस पर्व के अवसर पर इनके गांव का सामाजिक पुरोहित, पूरे गांव के भले के लिए सिङबोंगा (सर्वोच्च देवता) की पूजा करता है. 

इस अवसर पर वह सिंहबोंगा को सफेद मुर्गे, देशाउलि यानि ग्रामदेवता को लाल मुर्गे की बलि देकर पूजा.अर्चना करता है. इस अवसर पर प्रत्येक घर में हाम हो, दूम हो (पूर्वज) की भी पूजा अर्चना की जाती है. इस समुदाय में पूर्वजों को अदिङ (रसोईघर का एक हिस्सा ) में स्थापित माना जाता है. 

हो भाषा – साहित्य में आधुनिक प्रवृतियों के अनुरूप कुछ रचनाएं देखने को मिलती हैं. हो भाषा का अधिकांश लेखन देवनागरी लिपि में ही किया गया है. इन कविताओं में हिन्दी के छायावाद एवं छायावादोत्तर कविताओं का प्रभाव भी देखने को मिलता है. 

लेकिन कुछ कविताओं में यथार्थवादी चित्रण भी हुआ है. इन कविताओं में सामाजिक समस्याओं, उलझनों, शोषण, विषमता आदि को विषय बनाकर रचनाएँ की गई हैं. कुछ कविताओं में आदर्शवादी प्रवृतियाँ भी देखने को मिलती हैं.

हिन्दी भाषा – साहित्य के विद्वान डॉ० राम विलास शर्मा ने कहा है कि प्रगतिशील साहित्य वह है जो समाज को आगे बढ़ाता है, मनुष्य के विकास में सहायक होता है. हो भाषा साहित्य में भी प्रगतिशीलता की भावनाएँ कई कविताओं के माध्यम से व्यक्त हुई हैं. 

भारत की आजादी के पुर्व झारखण्ड क्षेत्र में हो आदिवासी समुदाय को अंग्रेजों सहित अन्य आक्रमणकारियों का सामना करना पड़ा जिनके शोषण एवं अत्याचार से हो समुदाय भी पीड़ित रहा.

उपनिवेशवादी शक्तियों के विरूद्ध हो जनजाति ने सन् 1820-21 में हो विद्रोह, सन् 1831-32 में कोल विद्रोह, सन् 1836-37 का सेरेंसिया घाटी विद्रोह, सन् 1857 ई० के भारतीय स्वतंत्रता संग्राम एवं सन् 1895-1900 ई० के बीच चले बिरसा मुण्डा उलगुलान (आन्दोलन) में सक्रियता से भाग लिया.

भारत में लम्बे समय तक आदिवासी समाज पिछड़ेपन और शोषण का शिकार रहा है. इस वजह से कई प्रकार की सामाजिक,आर्थिक,राजनीतिक समस्याओं के प्रति साहित्यकारों ने अपने संवेदनाओं की अभिव्यक्ति कविताओं के माध्यम से दी.

 हालांकि हो भाषा-साहित्य में प्रचुर लेखन का अभाव  रहा है तथापि कुछ संवेदनशील  कवियों ने अपनी रचनाओं में प्रगतिशीलता का परिचय दिया है.

सन् 1950 ई० के पहले हो-भाषा साहित्य के गीत लेखन में कवि सतीश कुमार कोड़ा द्वारा रचित काव्य पुस्तक ‘‘सतीश याः रूमुल’’ (1940) में ‘विद्या’, ‘रूमुल नङेन’ एवं ‘आदिवासी दमा’ शीर्षक कविताओं के माध्यम से उन्होंने पिछड़ेपन के शिकार आदिवासी समाज को जगाने का प्रयास किया है. 

इन काव्यों के माध्यम से समय, काल एवं परिस्थितियों के अनुरूप आदिवासी भाई-बहनों से आगे बढ़कर सामाजिक.राजनीतिक जागरूकता का आह्वान किया गया है.

‘विद्या’ (1940) शीर्षक कविता के माध्यम से कवि सतीश कुमार कोड़ा कहते हैं-

‘‘हजार लेका सिंगि तुरोः

लाख लेका चण्डु मुलुः

विद्या बनोः दिसुम दो हेन्दे नुबः गे।’’

अर्थात अंधकार में जी रहे समाज में यदि हजारों सूर्य ही क्यों न उदित हों या फिर लाखों चन्द्रमाओं का प्रकाश ही क्यों न फैल जाये, यदि उनमें विद्या रूपि रोशनी का प्रसार नहीं होगा तो वह समाज अंधेरों के बीच ही अज्ञानी बन कर रहेगा।

‘रूमुल नङेन’ (1940) शीर्षक कविता में कवि सतीश कुमार कोड़ा सेरेंसिया घाटी की विद्रोह का उदाहरण देते हुए लोगों को जगाने का प्रयास करते हैं-

‘‘सेरेंसिया अबुंकपि

दुरूण्डा लड़ई रेयाः रूमुल

दिसुम एंगा लगिड् मिसा ‘रूमुल‘ रूड़ालेम।’’

अर्थात् परतंत्रता की जंजीरों में जकड़ी मातृभूमि को दासता से मुक्त करने के लिए जिस प्रकार सेरेंसिया विद्रोह में हमारे वीर पूर्वज शहीद हुए ठीक उसी तरह के त्याग और बलिदान की जरूरत आज आ पड़ी है।

कवि सतीश कुमार कोड़ा ‘आदिवासी दमा‘ (1940) नामक कविता में लोगों का आह्वान करते हुए कहते हैं-

‘‘रूयाबू आदिवासी दमा

उटायाबू जाति ताबू

जपिड दुड़ुमेते, जपिड दुड़ुमेते।’’

अर्थात्- आओ साथियों समाज को जागृत करने के लिए नगाड़ों को बजाओ और सोये पड़े लोगों को विकास के रास्ते पर लाने का प्रयास करो.

रोजगार की खोज में पलायन करते आदिवासी की समस्याओं को रेखांकित करते हुए हो साहित्य के प्रमुख कवि कमल लोचन कोड़ाह अपनी गीतमय काव्य रचना ‘इटा बटा नला बसा’ (1990) में कहते हैं-

‘‘इटा बटा एटेः ए जन

कोआ.कुइको सेनोः तन

टका पोएसा सिके रेको बेमा लेन तन।।

करकना को उंकुड़ु लेन

सेपेड हपानुम को सेनोः तन

टका पोएसा सिके रेको बेमालेन तन।।

सेनोः तनम चाय बगन्

हतु.बसा असम दिसुम्

अमः जोनोम दिसुम बगे पोएसा लगिडते।।

उत्तर पोरदेस, पंजाब, कलकता

इटा बटा को सेनोः तन

टका पोएसा सिके रेको बेमालेन तन।।’’

अर्थात् ईंट.भट्ठों को लोग रोजगार के लिए पलायन कर रहे हैं। लोग.बाग कारखानों में कामों की खोज के लिए गांवों को छोड़ रहे हैं। रोजी.रोटी कमाने के लिए लोग असम के चाय बगानों में जाकर बस गये हैं। अपनी माटी की सोंधी महक को छोड़ लोग कामकाज की खोज में उत्तर प्रदेश, पंजाब और कोलकाता की ओर रूख कर रहे हैं.

कवि सागु समड ‘तुर्तुङ’ नामक स्मारिका में ‘दिसुम मुचड चि सेटेर तना’ शीर्षक कविता में कहते हैं-

‘‘नोते नाम-नामते बुरूबु नुजाड़ तन,

नोते नाम.नामते बुरूबु नुजाड़ तन।

बुरू नुजाड़ तनते दरू मुचड तना,

बुरू नुजाड़ तानते दरू मुचड तना।।

दारू मुचाडडे तनेते होयो बिसि तन,

दारू मुचाडडे तनेते होयो बिसि तन।।’’

अर्थात्- आज दुनिया में जंगलों की कटाई जारी है जिसके चलते पेड़-पौधे कम हो रहे हैं और प्राणवायु विषाक्त हो रही है और पर्यावरण में प्रदूषण बढ़ गया है और परिस्थिति भी असंतुलित हो गई है. यहाँ पर्यावरण प्रदूषण के प्रति चिन्ता जतायी गई है.

विस्थापन के लिए आदिवासियों को उजाड़े जाने पर जो विरोध के स्वर कविता के रूप में सामने आये। उन्हीं में से एक गीतमय कविता कवि राईमन कुदादा की ‘जोनोम दिसुम’ (2012) में मातृभूमि के लिए मर.मिटने का आह्वान किया गया है-

‘‘सेंगेल लेकाम मेडा´ रेयो,

गुडु गुडु तनेम नेलि´ रेयो,

जोनोम दिसुम मेता´ रेदो,

कारे´ मेतामा।

मयोम गड़ा हड़िन रेयो,

होटोः सेरोम ओड्डोः रेयो,

जानेम दिसुम लगिड.ए दो,

एया´ मेतामा।’’

अर्थात् मुझे अपनी माटी से इतना प्रेम है कि यदि तुम मुझे जबरदस्ती मेरी जमीन मांगोगे तो भी मैं उसे तुम्हे नहीं दूँगा. अगर मातृभूमि की रक्षा करते-करते मेरी जान भी चली जाये तो मैं हंसते.हंसते अपनी बलि दे दूँगा.

‘दांणी’ (2009) शीर्षक कविता में कवि सचिन्द्र बिरूवा कहते हैं-

‘‘बइ केडा सरकार अइन तबु,

काबू कोवाबू डाइन को आबु,

नुतुम तेडेको डायन प्रथा प्रतिषेध अधिनियम,

अलम गोन्देया, अलम चेन्टः

जाइयो दांणि मेनते

ओता डटोब मेयाको, जेल मेयाको’’

अर्थात् सरकार ने अब डायन प्रथा प्रतिषेध अधिनियम बना दिया है. इसके बावजूद यदि आदिवासी भाई डायन जैसी अंधविश्वास को पाले रखेंगे तो उनमें इसकी वजह से हत्यायें होती रहेंगी और सामाजिक तनाव जारी रहेगा. दरअसल झारखण्ड राज्य में आदिवासी हो समाज में डायन जैसी कुप्रथा जारी है जिसके चलते कई स्त्रियों की हत्यायें होती हैं और इसके जुर्म में कई लोगों को जेल भी जाना पड़ता है.

उपरोक्त गीत और कविताओं में काव्य की प्रगतिशिलता का चित्रण अच्छी तरह से हुआ है. मौखिक परंपरा के साहित्य में भी समय के साथ समाज और देश को दिशा देने वाली रचनात्मकता की झलक देखने की मिलती है. 

चूँकि संक्रमण काल से गुजरे रहे हो जनजातीय समुदाय के लिए वर्तमान में अपनी सांस्कृतिक अस्तित्व को बनाये रखना बहुत बड़ी चुनौती है. स्थायी कृषि प्रकार की अर्थव्यवस्था में बढ़ती जनसंख्या के दबाव ने उन्हें भारत के सुदूर क्षेत्रों में रोजगार हेतु प्रवास करने पर मजबूर किया है.

ऐसी परिस्थितियों में संवेदनशील रचनाकार मानवीय पीड़ा को कागजों में बयान करने का प्रयास करता है. ऐसी ही कविताओं में कमल लोचन कोड़ा कि ‘इटा बटा नला बसा’, सचिन्द्र बिरूवा की ‘बोदोल’, साधुचरण देवगम की ‘हुसियारेन पे बुरदुडको’ आदि कविताओं को लिया जा सकता है. इन कविताओं में रोजगार के लिए पलायन करते, जल.जंगल.जमीन से वंचित होते आदिवासियों का दर्द छिपा हुआ है.

(लेखक जवाहरलाल बंकिरा कवि और हो भाषा-साहित्य के जानकार हैं. वे हो आदिवासी समुदाय से ही आते हैं.)

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