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शोम्पेन जनजाति के अस्तित्व की चिंता और ग्रेट निकोबार में नए शहर बसाने की योजना

सरकार ने आश्वासन दिया है कि ग्रेट निकोबार से जुड़ी विकास परियोजना को लागू करते हुए शोम्पेन जनजाति को उजड़ने नहीं दिया जाएगा. यह जनजाति उन समुदायों में शामिल हैं जिनके अब गिने चुने लोग ही बचे हैं.

पिछले दो सालों से ग्रेट निकोबार द्वीप (Great Nicobar island) पर विकास की कई बड़ी परियोजनाओं पर तेज़ी से काम चल रहा है. जिसने पर्यावरणविदों, वैज्ञानिकों, वन्यजीव विशेषज्ञों और नागरिक समाज संगठनों को चिंता में डाल दिया है.

अब आदिवासी मामलों के मंत्रालय ने बताया है कि ग्रेट निकोबार द्वीप परियोजना के कारण आदिवासियों का विस्थापन नहीं होगा.

आदिवासी मामलों के मंत्रालय ने 29 मार्च को राज्य सभा को बताया कि 72 हजार करोड़ रूपये की ग्रेट निकोबार द्वीप परियोजना के लिए जनजातियों के विस्थापन की अनुमति नहीं दी जाएगी.

अंडमान और निकोबार द्वीप समूह एकीकृत विकास निगम (Andaman and Nicobar Islands Integrated Development Corporation – ANIIDCO) द्वारा कार्यान्वित की जा रही परियोजना में एक ट्रांसशिपमेंट बंदरगाह, एक हवाई अड्डा, एक बिजली संयंत्र और एक ग्रीनफील्ड टाउनशिप शामिल है.

तृणमूल कांग्रेस (TMC) की सांसद सुष्मिता देव के एक सवाल के जवाब में जनजातीय मामलों के राज्य मंत्री बिशेश्वर टुडू ने कहा कि कुल 7.114 वर्ग किलोमीटर परियोजना के लिए आदिवासी आरक्षित क्षेत्र का उपयोग किया जाएगा.

जनजातीय मामलों के मंत्रालय ने कहा कि आदिवासी आरक्षित क्षेत्र का उपयोग क्षेत्र में रहने वाले स्थानीय आदिवासियों के हितों के अधीन होगा. विशेष रूप से शोम्पेन जनजाति, जिसे विशेष रूप से कमजोर जनजातीय समूह (PVTG) के रूप में वर्गीकृत किया गया है.

अपने जवाब में सरकार ने कहा कि आदिवासी आरक्षित क्षेत्र का उपयोग इन शर्तों के अधीन होगा- “आदिवासी आबादी विशेष रूप से शोम्पेन, (विशेष रूप से कमजोर जनजातीय समूह) के हित को प्रभावित नहीं होने देंगे, शोम्पेन के हितों की रक्षा के लिए आदिवासी जनजाति संरक्षण (Protection of Aborigine Tribe) विनियमन के प्रावधानों का सख्ती से पालन किया जाएगा. आदिवासियों का विस्थापन नहीं होने देंगे और इको-टूरिज्म को प्रभावी तरीके से विनियमित किया जाएगा.”

इसके अलावा, सरकार ने कहा कि अंडमान और निकोबार द्वीप समूह के उपराज्यपाल ने पहले ही परियोजना के प्रभाव पर विचार और परामर्श प्राप्त करने के लिए एक एम्पावर्ड कमेटी का गठन किया था. जनजातीय मामलों के मंत्रालय ने कहा कि इस समिति में संबंधित सरकारी विभाग, एंथ्रोपोलॉजिस्ट और एक्सपर्ट शामिल हैं.

सरकार ने कहा है कि पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय की विशेषज्ञ मूल्यांकन समिति ने अगस्त 2022 में आयोजित अपनी 306वीं बैठक में “तय किया कि परियोजना की गतिविधियां शोम्पेन जनजाति और उनके आवास से छेड़छाड़ नहीं करेंगी.”

क्या है ग्रेटनिकोबार द्वीप विकास परियोजना

ग्रेट निकोबार द्वीप बंगाल की खाड़ी में अंडमान और निकोबार द्वीप समूह के दक्षिणी सिरे पर स्थित है. हाल ही में इस प्रोजेक्ट को लेकर दो महत्वपूर्ण मंजूरियां दी गईं है- पहले चरण (सैद्धांतिक रूप से) के लिए 27 अक्टूबर, 2022 को वन मंजूरी और 11 नवंबर को दी गई पर्यावरण मंजूरी. नीति आयोग पोर्ट ब्लेयर में स्थित परियोजना प्रस्तावक अंडमान और निकोबार द्वीप समूह एकीकृत विकास निगम (ANIIDCO) के साथ परियोजना का संचालन कर रहा है.

परियोजना का समर्थन करने वाले इसे “ग्रेट निकोबार द्वीप के समग्र विकास” के लिए महत्वपूर्ण बता रहे हैं, जिसमें द्वीप के दक्षिण-पूर्वी तट पर गैलाथिया खाड़ी में 35,000 करोड़ रुपये का ट्रांसशिपमेंट बंदरगाह बनाया जाना है. इसके अलावा द्वीप पर एक अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा, एक बिजली संयंत्र और 160 वर्ग किलोमीटर से ज्यादा क्षेत्र में एक ग्रीनफील्ड टाउनशिप की योजना भी है.

इसके लिए 130 वर्ग किलोमीटर लंबे प्राथमिक वन का डायवर्जन भी किया गया है. द्वीप का कुल क्षेत्रफल 900 वर्ग किलोमीटर से थोड़ा ज्यादा है. इसका लगभग 850 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र अंडमान और निकोबार आदिवासी जनजाति संरक्षण विनियमन, 1956 के तहत एक आदिवासी रिजर्व के रूप में नामित है. पारिस्थितिक रूप से समृद्ध द्वीप को 1989 में बायोस्फीयर रिजर्व घोषित किया गया और 2013 में यूनेस्को के मैन एंड बायोस्फीयर प्रोग्राम में शामिल किया गया था.

72 हजार करोड़ रुपये की यह परियोजना 30 वर्षों में पूरी की जाएगी और इस दौरान तीन लाख से ज्यादा लोगों को द्वीप पर लाने की उम्मीद है. जनसंख्या में यह बड़ी वृद्धि है. मोटे तौर पर देखें तो यह पूरे अंडमान और निकोबार द्वीप समूह की वर्तमान जनसंख्या के बराबर है. जहां तक ग्रेट निकोबार का सवाल है, इस द्वीप की वर्तमान आबादी लगभग 8 हजार है, जिसमें 4 हजार प्रतिशत की वृद्धि हो जाएगी.

इस परियोजना में लगभग दस लाख पेड़ों की कटाई भी शामिल है. इससे प्राचीन और अनछुए वर्षावन को भारी क्षति होगी.

पर्यावरण मंजूरी में हैं कई खामियां

ग्रेट निकोबार में एक बड़े बंदरगाह के निर्माण का विचार कई दशकों से चर्चा में रहा है लेकिन पिछले कुछ सालों में जिस तेजी के साथ इस पर काम हुआ है, उसे लेकर कई सवाल उठ रहे हैं. मौजूदा परियोजना को 2020 के आखिर में शुरू किया गया, जब कोविड-19 महामारी अपने चरम पर थी.

निवेश और परियोजना के आकार के आधार पर देखा जाए तो यह पहले प्रस्तावित किसी भी योजना की तुलना में काफी बड़ी है. इसकी शुरुआत सितंबर 2020 में नीति आयोग की तरफ से मास्टर प्लान तैयार करने के लिए रिक्वेस्ट फॉर प्रपोजल (RfP) जारी करने के साथ शुरू हुई थी.

फिर मार्च 2021 में गुरुग्राम स्थित एक परामर्श एजेंसी AECOM इंडिया प्राइवेट लिमिटेड ने 126-पेजों की प्री-फिजिबिलिटी रिपोर्ट (PFR) जारी की थी. इसके बाद MoEFCC की एक्सपर्ट अप्रेजल कमेटी (EAC)-इन्फ्रास्ट्रक्चर-1 ने अप्रैल में पर्यावरण मंजूरी लेने की प्रक्रिया शुरू की और परियोजना प्रस्तावक ने पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन (EIA) रिपोर्ट तैयार करने के लिए हैदराबाद स्थित विमता लैब्स को अनुबंधित कर लिया.

दिसंबर 2021 में मंत्रालय ने पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन रिपोर्ट के मसौदे को टिप्पणियों और चर्चा के लिए आम जनता के बीच रखा, जिसमें पहले चरण के पूरा होने का संकेत दिया गया था.

आरएफपी के जारी होने और ईआईए रिपोर्ट के मसौदे के प्रकाशन के बीच के 14 महीनों के दौरान क्लीयरेंस देने की प्रक्रिया को आसान बनाने के लिए काफी काम किया गया. सबसे पहले, जनवरी 2021 में नेशनल बोर्ड फॉर वाइल्डलाइफ (NBWL) की स्थायी समिति ने बंदरगाह और अन्य संबंधित बुनियादी ढांचे के निर्माण के लिए पूरे गैलाथिया बे वन्यजीव अभयारण्य को गैर-अधिसूचित कर दिया.

यह इस तथ्य के बावजूद था कि गैलाथिया की खाड़ी भारत में जायंट लेदरबैक कछुए के लिए प्रतिष्ठित नेस्टिंग साइट है, जो दुनिया के सबसे बड़े समुद्री कछुए के तौर पर जाना जाता है.

फरवरी 2021 को जारी की गई भारत की राष्ट्रीय समुद्री कछुआ कार्य योजना में “देश में महत्वपूर्ण समुद्री कछुआ आवास” की सूची में गैलाथिया खाड़ी का नाम भी शामिल है.

हालांकि इस एक्शन प्लान में तटीय क्षेत्रों में विकास के नाम पर बंदरगाहों, घाटों, रिसॉर्ट्स और उद्योगों के निर्माण को कछुओं की आबादी के लिए प्रमुख खतरों के रूप में रेखांकित किया गया था.

लेकिन NBWL और भारतीय वन्यजीव संस्थान (WII) ने इसकी परवाह नहीं की और आगे बढ़ते हुए बंदरगाह की अनुमति देने के लिए अभयारण्य को गैर-अधिसूचित कर दिया.

अधिसूचना रद्द करने के दो सप्ताह बाद एमओईएफसीसी ने गैलाथिया और कैंपबेल बे राष्ट्रीय उद्यानों को एक जीरो-एक्सटेंड इको-सेंसिटिव जोन घोषित कर दिया. इस तरह से परियोजना के लिए द्वीप के मध्य और दक्षिण-पूर्वी तट के साथ प्राचीन वन भूमि उपलब्ध कराई गई.

बाद में पता चला कि विमता लैब्स ने ईआईए रिपोर्ट के लिए दिसंबर 2020 में ही डेटा इकट्ठा करना शुरू कर दिया था, जिसके लिए उसे अभी तक अनुबंधित भी नहीं किया गया था.

वास्तव में उपरोक्त सभी घटनाक्रम मार्च 2021 में AECOM द्वारा अंतिम परियोजना प्रस्ताव जारी करने से पहले ही शुरू हो गए थे. यह सब कई खामियों की तरफ इशारा करता है.

तटीय शोधकर्ता आरती श्रीधर के मुताबिक, इसमें “क्लीयरेंस आउटपुट के लिए पूर्व-निर्णय और नियत प्रक्रिया का स्पष्ट उल्लंघन” दोनों शामिल थे.

ईआईए रिपोर्ट के मसौदे में भी कई समस्याएं हैं. देश भर के शोधकर्ताओं और गैर सरकारी संगठनों ने पारिस्थितिकी, स्वदेशी समुदायों के अधिकारों और द्वीप के उच्च जोखिम वाले भूकंपीय क्षेत्र में आने और पर्यावर्णीय आपदा से संबंधित लगभग 400 चिंताओं को उठाया है.

कई दस्तावेजों में महामारी के मुश्किल समय में इतनी बड़ी परियोजना को तेजी से आगे बढ़ाने पर भी सवाल उठाया गया था.

जनवरी 2022 में अनिवार्य जन सुनवाई ग्रेट निकोबार के प्रशासनिक मुख्यालय कैंपबेल खाड़ी में आयोजित की गई थी और विमता ने अंतिम ईआईए रिपोर्ट मार्च में प्रकाशित की थी. इसके बाद ईएसी की कई बैठकों में इस परियोजना पर चर्चा की गई, जिसने आखिरकार अगस्त 2022 में मंजूरी के लिए परियोजना की सिफारिश की.

मंत्रालय ने इस सिफारिशों को स्वीकार कर लिया और नवंबर में अपने प्रभाव आकलन प्रभाग के अमरदीप राजू के एक हस्ताक्षरित पत्र के जरिए अंतिम पर्यावरणीय मंजूरी दे दी गई.

वन मंजूरी में भी खामियां

जब यह सब हो रहा था, तब पहले चरण (सैद्धांतिक रूप से) में वन मंजूरी के लिए एमओईएफसीसी में एक समानांतर प्रक्रिया भी चल रही थी. 27 अक्टूबर को मंत्रालय के वन संरक्षण विभाग ने परियोजना के लिए 130.75 वर्ग किलोमीटर के प्राचीन वन के इस्तेमाल के लिए मंजूरी दे दी, जिस के बाद यह हाल के दिनों में किया गया सबसे बड़ा फॉरेस्ट डायवर्जन बन गया.

यह देश में पिछले तीन सालो में डायवर्ट की गई सभी वन भूमि का लगभग एक चौथाई है (जुलाई 2022 में लोकसभा में दी गई जानकारी के अनुसार 554 वर्ग किलोमीटर). 2015 से 2018 तक तीन सालों में 203 वर्ग किलोमीटर वन भूमि का 65 प्रतिशत डायवर्ट किया गया है.

वन मंजूरी विरोधाभासों और पारदर्शिता की कमी से भरी हुई है. अगर ध्यान से देखेंगे तो इसमें कई खामियां नजर आएंगी. क्लीयरेंस लेटर के मुताबिक, 7 अक्टूबर, 2020 को द्वीप प्रशासन के अनुरोध की “सावधानीपूर्वक जांच” और “वन सलाहकार समिति (Forest Advisory Committee) की सिफारिशों और मंत्रालय में सक्षम प्राधिकारी द्वारा इसकी स्वीकृति के आधार पर अनुमति दी गई थी.”

एमओईएफसीसी की वेबसाइट पर उन एफएसी बैठकों का विवरण नहीं है जहां संभवतः ये निर्णय लिए जाने थे. इस मंजूरी के संबंध में एफएसी सदस्यों को नवंबर में भेजे गए संचार (और रिमाइंडर) पर कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली है.

सूचना का अधिकार (RTI) याचिका अक्टूबर में दाखिल की गई थी, जिसमें प्रस्तावित प्रतिपूरक वनीकरण योजना सहित मंजूरी का विवरण मांगा गया था. लेकिन राज्य की सुरक्षा, रणनीतिक, वैज्ञानिक या आर्थिक हितों का हवाला देते हुए, इस याचिका को आरटीआई अधिनियम की धारा 8.1(ए) के तहत खारिज कर दिया गया.

गौरतलब है कि वन मंजूरी से संबंधित एक भी दस्तावेज आज तक मंत्रालय के परिवेश पोर्टल पर उपलब्ध नहीं कराया गया है. यह तथ्य पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव के हाल के उन दावों का खंडन करता है जिसमें कहा गया था कि “संपूर्ण वैज्ञानिक रिपोर्ट (परियोजना से संबंधित) और सभी विश्लेषण उपलब्ध हैं.”

मंजूरी पत्र में कहा गया है कि वन मंजूरी के लिए सबसे महत्वपूर्ण और जरूरी, प्रतिपूरक वनीकरण के लिए एक विस्तृत योजना का होना है, जिसे हरियाणा में लागू किया जाएगा.

दिलचस्प बात यह है कि अंतिम ईआईए रिपोर्ट में उल्लेख किया गया है कि मध्य प्रदेश में 260 वर्ग किलोमीटर पर प्रतिपूरक वनीकरण किया जाएगा और यहां तक कि इसमें अंडमान और निकोबार वन विभाग का एक पत्र भी शामिल है जो प्रमाणित करता है कि राज्य सरकार ने इसके लिए विवरण प्रस्तुत किया है.

इस बारे में कोई स्पष्टता नहीं है कि हरियाणा में इसे कैसे स्विच किया गया और अगर ऐसी कोई प्रक्रिया थी जिसका पालन किया गया, तो वह क्या थी.

आदिवासियों के अधिकारों की अनदेखी

एक अन्य प्रमुख चिंता यहां रहने वाले दो आदिवासी समुदायों के अधिकारों और आजीविका के संबंध में है. निकोबारी (लगभग 1 हजार लोग) और शोम्पेन (लगभग 200) आदिवासी समुदाय के लिए ग्रेट निकोबार हजारों वर्षों से उनका घर रहा है.

शोम्पेन को एक विशेष रूप से कमजोर जनजातीय समूह (PVTG) के रूप में वर्गीकृत किया गया है. यह एक शिकारी खानाबदोश समुदाय है जो जिंदा बने रहने के लिए द्वीप के जंगलों पर काफी ज्यादा निर्भर है.

इन समुदायों के प्रति उदासीनता और इनके अधिकारों को लेकर बेपरवाही जनजातीय कल्याण के लिए काम करने वाली संस्थाओं में साफतौर पर देखी जा सकती है. इसका एक उदाहरण अंडमान और निकोबार प्रशासन के जनजातीय कल्याण निदेशालय का अगस्त 2021 का लिखा एक पत्र है.

पत्र की शुरुआत कुछ इस तरह से होती है, “द्वीप प्रशासन आदिवासी लोगों के अधिकारों की रक्षा करेगा और फिर इसमें तुरंत जोड़ा जाता है कि “परियोजना के निष्पादन के लिए” किसी भी छूट की जरूरत होने पर सक्षम प्राधिकारी से आवश्यक छूट की मांग की जाएगी.”

राष्ट्रीय स्तर पर भी स्थिति ठीक ऐसी ही है. जनजातीय मामलों के मंत्रालय (MoTA) और नीति आयोग को इस मामले में अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ते हुए देखा जा सकता है.

ग्रेट निकोबार में आदिवासी मुद्दों पर हाल ही में एक आरटीआई याचिका दाखिल की गई थी. इसके जवाब में मंत्रालय के पीवीटीजी डिवीजन ने कहा कि उन्हें इस मामले पर कोई जानकारी नहीं है.

नीति आयोग और गृह मंत्रालय को क्वेरी भेज दी गई है. सिर्फ चार दिन बाद, 11 नवंबर को नीति आयोग ने पूछताछ को आगे की आवश्यक कार्रवाई के लिए इसे MoTA को वापस भेज दिया. पीवीटीजी डिवीजन ने 18 नवंबर को जवाब दिया, लेकिन यहां भी यही बात दोहराई गई कि उसके पास मामले पर कोई जानकारी नहीं है और इसे “आवेदक को सीधे जानकारी देने के लिए” गृह मंत्रालय के पास भेज दिया गया है.

15 नवंबर को भूपेंद्र यादव को लिखे पत्र में भारत सरकार के पूर्व सचिव ई.ए.एस. सरमा ने राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग (NCST) से परामर्श किए बिना परियोजना के लिए मंजूरी देने पर सवाल उठाया था. उन्होंने कहा कि केंद्र और राज्य के लिए अनुसूचित जनजातियों से संबंधित मामलों में आयोग से परामर्श लिया जाना जरूरी है.

कोयम्बटूर स्थित आदिवासी अधिकार शोधकर्ता और कार्यकर्ता सी.आर. बिजॉय ने वन अधिकार अधिनियम (FRA) की कई धाराओं का हवाला देते हुए कहा कि “इस जनजातीय रिजर्व की रक्षा, संरक्षण, विनियमन और प्रबंधन के लिए शोम्पेन एकमात्र कानूनी रूप से सशक्त अथॉरिटी हैं. हम ग्रेट निकोबार में जो देख रहे हैं वह आदिवासियों के अधिकारों का घोर उल्लंघन है. यह अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम का भी उल्लंघन है.”

आपदा आने का जोखिम ज्यादा

जमशेदजी टाटा स्कूल ऑफ डिजास्टर स्टडीज, टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज (टीआईएसएस), मुंबई में प्रोफेसर जानकी अंधारिया के अनुसार, मुख्य चिंता की वजह परियोजना के लिए चुनी गई जगह है. वह कहती हैं कि इससे होने वाले जोखिम पर उस अंतिम ईआईए रिपोर्ट में भी ध्यान नहीं दिया गया है, जिस पर मंत्रालय ने अपनी मंजूरी दी है.

ईआईए के मसौदे पर अपनी टिप्पणियों में अंधारिया और उनके सहयोगियों ने बताया था कि द्वीपों ने पिछले 10 सालों में लगभग 444 भूकंपों का सामना किया है. यहां शुरू किए जा रहे कंटेनर टर्मिनल की योजना पर “पुनर्विचार किए जाने की जरूरत है.

ग्रेट निकोबार इंडोनेशिया के बांदा अचेह से ज्यादा दूर नहीं है, जो दिसंबर 2004 में आए भूकंप और सुनामी का केंद्र था. इससे काफी नुकसान हुआ था. ग्रेट निकोबार की तटरेखा में लगभग चार मीटर का स्थायी धंसाव देखा गया था. इसका जीता-जागता उदाहरण इंदिरा प्वाइंट पर बना लाइट हाउस है, जो अब पानी से घिरा हुआ है.

जानकी अंधारिया के पास के इन द्वीपों पर आई आपदा के प्रभावों से निपटने का प्रत्यक्ष अनुभव है. वह 2004 की सूनामी के तत्काल बाद द्वीप समूह के सबसे बुरी तरह प्रभावित समुदायों तक पहुंचने के लिए यहां आई थीं. वह द्वीप प्रशासन के साथ साझेदारी में चार साल के ऑन-द-ग्राउंड TISS प्रयास का नेतृत्व कर रही थीं.

परियोजना अधिकारियों की ईआईए रिपोर्ट के मसौदे पर उनकी टिप्पणियों पर दी गई प्रतिक्रिया के बारे में उन्होंने कहा, “यह कहना कि ‘निर्माण मानकों और नियमों का पालन किया जाएगा, अपर्याप्त है.”

वह आगे कहती हैं, “इस संदर्भ में ‘एक संरचना को भूकंपरोधी बनाने’ के अर्थ पर फिर से विचार करने की जरूरत है. यह एक घर को वॉटरप्रूफ करने जैसी नहीं हो सकता है क्योंकि पोस्ट-फेक्टो डिजास्टर योजना किसी आपदा को होने से नहीं रोक पाएगी.”

अंडमान निकोबार द्वीप समूह में विकास बनाम आदिवासी अधिकार भारत ही नहीं बल्कि दुनिया भर में बहस का विषय रहा है. इसकी सबसे बड़ी वजह है कि यहाँ पर निकोबारी समुदाय को छोड़ दें तो बाक़ी सभी समुदाय विलुप्त होने के क़रीब हैं.

सरकार के दावों पर अभी भी कई विशेषज्ञ सवाल कर रहे हैं, इन सवालों के जवाब सरकार को ज़रूर सार्वजनिक तौर पर देने चाहिएँ .

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