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‘हिंदू उत्तराधिकार क़ानून’ आदिवासियों पर लागू किया जाए – सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने आदिवासी बेटियों को पिता की संपत्ति में हक़ दिलाने के लिए जो सुझाव दिया है, वह समाधान से ज़्यादा समस्या पैदा करता है. यह सुझाव एक तरफ़ बराबरी की बात करता है, दूसरी तरफ़ आदिवासी पहचान को नष्ट कर देने ख़तरा पैदा करता है.

सुप्रीम कोर्ट ने आदिवासियों (अनुसूचित जनजातियों) को हिंदू उत्तराधिकारी क़ानून (Hindu Succession Act) के दायरे में लाने के लिए इस क़ानून में संशोधन की ज़रूरत पर बल दिया है. सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि आदिवासी समुदायों में बेटी को पिता की संपत्ति में हिस्सा नहीं दिया जाता है. 

पिता की संपत्ति में बेटी को हिस्सा ना दिया जाना बराबरी के अधिकार का उल्लंघन है. लेकिन क़ानून प्रावधान ना होने की वजह से कोर्ट भी आदिवासी समुदाय में बेटियों को पिता की संपत्ति में हिस्सा नहीं दिला पाते हैं.

सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि आदिवासी परिवारों में पिता की संपत्ति में बेटे को तो हिस्सा मिलता है लेकिन बेटी को हिस्सा नहीं दिया जाता है. 

सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस एमआर शाह (Justice MR Shah) और सीटी रविकुमार ओडिशा हाईकोर्ट के एक फ़ैसले के ख़िलाफ़ अपील पर सुनाईं कर रहे थे. ओडिशा हाईकोर्ट ने एक पिता की ज़मीन के अधिग्रहण के मुआवज़े में बेटी को हिस्सा देने की माँग को ठुकरा दिया था. 

आदिवासी बेटियों को पिता की संपत्ति में हक़ का सवाल महत्वपूर्ण है

ओडिशा हाईकोर्ट ने कहा था जिस ज़मीन का अधिग्रहण हुआ है उसका मालिक एक आदिवासी है. इसलिए इस ज़मीन के अधिग्रहण के बदले में परिवार को जो पैसा मिला है उसमें बेटी का हिस्सा नहीं होगा. 

ओडिशा हाईकोर्ट ने अपने फ़ैसले में कहा था कि हिन्दू उत्तराधिकार क़ानून आदिवासी समुदायों पर लागू नहीं होता है. 

इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ अपील पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह मामला आदिवासी बेटी और एक ग़ैर आदिवासी बेटी के बीच भेदभाव का है. सुप्रीम कोर्ट

 ने कहा, “आदिवासी समुदाय की महिला को ख़ुद को ज़िंदा रखने के हक़ है और इस हक़ को किसी भी तर्क से नकारा नहीं जा सकता है.” 

कोर्ट आगे कहता है, “जब एक ग़ैर आदिवासी परिवार की बेटी को पिता की संपत्ति में हक़ हासिल है तो फिर एक आदिवासी पिता की बेटी को यह हक़ क्यों नहीं मिलना चाहिए. 

कोर्ट ने कहा कि अगर कोई किसी व्यक्ति की मौत हो जाती है और वह अपनी ज़मीन की वसीयत नहीं करके गया है तो फिर संपत्ति में पुरूष या महिला सदस्यों को बराबर का हक़ मिलना चाहिए.

जस्टिस शाह ने इस मामले में फ़ैसला लिखते हुए कहा है कि यह एक गंभीर मामला है. संविधान लागू होने के 70 साल बाद भी आदिवासी समुदायों में बेटी को संपत्ति में हिस्सा नहीं दिया जाता है. 

जस्टिस शाह लिखते हैं कि एक लोकतांत्रिक देश में बराबरी का हक़ बेहद महत्वपूर्ण ज़रूरत है और संविधान इसकी गारंटी देता है.

जस्टिस शाह ने अपने फ़ैसले में कहा है कि अब समय आ गया है और सरकार को इस मामले में बिना देरी किये विचार करना चाहिए. उन्होंने कहा है कि अगर ज़रूरत पड़े तो सरकार हिंदू उत्तराधिकार क़ानून में संशोधन करे और इसे आदिवासी समुदायों पर भी लागू करे.

इस बात में कोई दो राय नहीं है कि आदिवासी समुदायों में बेटियों को संपत्ति में बराबर का हक़ ना दिये जाने का सवाल गंभीर है. आदिवासी समुदायों में लड़कियों को सिर्फ़ संपत्ति का हक़ नहीं मिलता है, ऐसा नहीं है. 

देश के ज़्यादातर आदिवासी समुदायों में महिलाओं को समाज के फ़ैसले करने वाली ज़्यादातर संस्थाओं से बाहर रखा जाता है. उत्तर-पूर्व के कई राज्यों में ख़ासतौर से नागा समुदाय में महिलाओं को चुनी हुई संस्थाओं में हिस्सा लेने की इजाज़त नहीं दी जाती है.

इसलिए सुप्रीम कोर्ट का सवाल उठाया है. इस सवाल पर सरकार को संजीदगी से सोचना होगा. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने आदिवासी समुदायों पर हिंदू उत्तराधिकारी क़ानून लागू करने की सलाह दे कर कई और सवाल छेड़ दिये हैं. क्योंकि आदिवासी पहले से ही अपनी पहचान की लड़ाई लड़ रहा है.

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