छत्तीसगढ़ में आरक्षण को लेकर असमंजस की स्थिति अभी भी बनी हुई है. एक तरफ राज्य में 76 फीसदी आरक्षण के विधेयकों पर राज्यपाल ने हस्ताक्षर नहीं किए है.
वहीं राजनीतिक तौर पर बेहद संवेदनशील इस मसले पर हाईकोर्ट में भी सुनवाई चल रही है. अब राज्य के उच्च न्यायालय में एक और याचिका दायर कर दी गई है.
आदिवासी नेता संतकुमार नेताम की तरफ दायर याचिका में संविधान के अनुच्छेद 200 की शक्ति और विधेयक को रोकने की व्याख्या पर सवाल उठाया गया है.
इस याचिका में राज्य शासन और केंद्र सरकार को पक्षकार बनाया गया है. हालांकि शुक्रवार को इस प्रकरण की सुनवाई नहीं हो पाई. अब हाईकोर्ट इस मामले की सुनवाई 1 मार्च को करेगा.
वहीं आरक्षण को लेकर राज्यपाल सचिवालय को दिए गए नोटिस की वैधानिकता पर हाईकोर्ट ने शुक्रवार को फैसला सुरक्षित रख लिया है. दरअसल, राज्य शासन की याचिका पर राजभवन को नोटिस जारी होने के बाद इसकी संवैधानिकता पर अब बहस चल रही है.
दरअसल इसी महीने आरक्षण के मुद्दे पर सामाजिक कार्यकर्ता व एडवोकेट हिमांक सलूजा के साथ ही राज्य सरकार ने भी हाईकोर्ट में याचिका दायर की थी.
इस याचिका पर सुनवाई करते हुए कोर्ट ने राज्यपाल सचिवालय को नोटिस जारी कर दो सप्ताह में जवाब देने को कहा था.
राज्य शासन की तरफ से याचिका में कहा गया था कि विधानसभा में विधेयक पारित होने के बाद राज्यपाल सिर्फ सहमति या असहमति दे सकते हैं. लेकिन, बिना किसी वजह के बिल को इस तरह से लंबे समय तक रोका नहीं जा सकता.
इस याचिका में कहा गया है कि राज्यपाल ने अपने संवैधानिक अधिकारों का दुरुपयोग किया है.
इस याचिका पर नोटिस मिलने के बाद राज्यपाल सचिवालय की तरफ से हाईकोर्ट में आवेदन पेश किया गया.जिसमें राजभवन को पक्षकार बनाने और हाईकोर्ट के नोटिस को चुनौती दी गई थी.
राज्यपाल सचिवालय के आवेदन पर राजभवन को अंतरिम राहत देते हुए हाई कोर्ट ने इस नोटिस पर स्टे लगा दिया था.
राज्यपाल सचिवालय की तरफ से पूर्व असिस्टेंट सॉलिसिटर जनरल और सीबीआई और एनआईए के विशेष लोक अभियोजक बी गोपा कुमार ने तर्क देते हुए बताया कि संविधान के अनुच्छेद 361 में राष्ट्रपति और राज्यपाल को अपने कार्यालय की शक्तियों और काम को लेकर विशेषाधिकार है. इन शक्तियों के तहत राष्ट्रपति और राज्यपाल किसी भी न्यायालय में जवाबदेह नहीं है.
इसके मुताबिक हाईकोर्ट को राजभवन को नोटिस जारी करने का अधिकार नहीं है. बी गोपा कुमार ने कहा कि आरक्षण विधेयक बिल को राज्यपाल के पास भेजा गया है. लेकिन, इसमें समय सीमा तय नहीं है कि, कितने दिन में बिल को निर्णय लेना है.
वहीं शुक्रवार को शासन की तरफ से पूर्व केंद्रीय मंत्री और सुप्रीम कोर्ट के सीनियर एडवोकेट कपिल सिब्बल ने तर्क देते हुए कहा कि धारा 361, विवेकाधिकार के प्रयोग पर लागू होता है. विवेकाधीन शक्तियों में यह मामला लागू नहीं होता. उन्होंने कहा कि ऐसे मामलों में कोर्ट नोटिस जारी कर सकती है.
जिसके बाद दोनों पक्षों और उनके तर्कों को सुनने के बाद हाईकोर्ट की जज जस्टिस रजनी दुबे ने फैसला सुरक्षित रख लिया है.
राजभवन में लंबित विधेयक
राज्य सरकार ने दो महीने पहले विधानसभा के विशेष सत्र में आम राय से दो विधेयक पारित किए गए थे. जिनके लागू होने के बाद राज्य की सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में कुल आरक्षण 76 प्रतिशत हो जाएगा.
इन विधेयकों के मुताबिक राज्य में एसटी (ST) को 32 प्रतिशत, ओबीसी (OBC) को 27 प्रतिशत, एससी (SC) को 13 प्रतिशत और ईडब्ल्यूएस (EWS) को 4 प्रतिशत आरक्षण दिया जाएगा.
विधानसभा से पारित होने के बाद इन विधेयकों को राज्यपाल के पास भेजा गया था. लेकिन तब राज्यपाल अनुसुईया उइके ने इन पर हस्ताक्षर करने के बजाए राज्य सरकार को 10 सवालों की सूची पकड़ा दी थी. तब राज्यपाल ने कहा था कि सभी सवालों के जवाब मिलने के बाद ही वो हस्ताक्षर करेंगी.
हालांकि राज्यपाल की इस मांग पर राज्य की भूपेश बघेल सरकार ने सभी 10 सवालों के जवाब राजभवन भेज दिए थे. लेकिन उसके बावजूद भी ये विधेयक राजभवन में लंबित पड़े रहे. ऐसे में ये मामला हाई कोर्ट में पहुंच गया है.
हालांकि इस बीच राज्य में अनुसुईया उइके की जगह नए राज्यपाल की नियुक्ति हो गई है. अब राज्य में नव नियुक्त राज्यपाल विश्व भूषण हरिचंदन ने शपथ ली है. अब प्रदेश के नए राज्यपाल क्या फैसला लेंगे इस पर सबकी नजरें टिकी हुई है.
पहले भी हाईकोर्ट में फंसा था पेंच
राज्य में भूपेश बघेल सरकार के कार्यकाल के दौरान आरक्षण का मामला हाई कोर्ट में पहुंच गया है. लेकिन ऐसा पहली बार नहीं हुआ है. राज्य में आरक्षण एक संवेदनशील मुद्दा है. बीजेपी और कांग्रेस, दोनों पार्टियां इसे चुनावी मुद्दे के तौर पर भी भुनाना चाहती रही है.
साल 2012 में, रमन सिंह के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार ने आरक्षण को बढ़ाकर 58 प्रतिशत कर दिया था. तब एसटी के लिए कोटा बढ़ाकर 32 प्रतिशत कर दिया गया वहीं एससी के लिए इसे 16 से घटाकर 12 प्रतिशत कर दिया और ओबीसी कोटे को 14 प्रतिशत पर बरकरार रखा गया. यानी कुल मिलाकर आदिवासी समुदायों को लाभ पहुंचाने की कोशिश की गई.
तब रमन सिंह सरकार ने दावा किया कि आरक्षण सीमा बढ़ाने का ये फैसला 2011 की जनगणना के आधार पर किया गया था. हालांकि तब राज्य में सबसे प्रमुख और राजनीतिक रूप से शक्तिशाली एससी समुदाय में शामिल सतनामी समुदाय ने इस फैसले को हाईकोर्ट में चुनौती दी.
इस पर सुनवाई के बाद सितंबर 2022 में हाईकोर्ट ने एक आदेश पारित कर 58 प्रतिशत आरक्षण को यह कहते हुए रद्द कर दिया कि ये उच्चतम न्यायालय द्वारा निर्धारित 50 प्रतिशत की सीमा का उल्लंघन करता है.
भूपेश बघेल सरकार का बड़ा दांव
हाईकोर्ट के फैसले के बाद प्रदेश के जनजातीय समुहों में नाराजगी फैल गई. उन्होंने बड़े पैमाने पर विरोध शुरू कर दिया. जिसके बाद भूपेश बघेल के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने कड़ी प्रतिक्रिया देते हुए हाईकोर्ट के आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी. साथ ही 1 और 2 दिसंबर को विधानसभा का विशेष सत्र बुलाया. जिसमें 2 विधेयक पारित किए गए, जिसमें आरक्षण को 76 प्रतिशत तक बढ़ा दिया गया.
इसके साथ ही जनजातियों के लिए कोटा को 32 प्रतिशत पर बहाल कर दिया गया. वहीं अनुसूचित जाति के लिए इसे मामूली रूप से बढ़ाकर 13 प्रतिशत कर दिया और ओबीसी के लिए आरक्षण को भी बढ़ाकर 27 प्रतिशत कर दिया इतना ही नहीं इसने आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों (ईडब्ल्यूएस) के लिए चार प्रतिशत कोटा भी जोड़ दिया.
क्या आरक्षण है बड़ा चुनावी मुद्दा?
छत्तीसगढ़ में इस साल विधानसभा के चुनाव होने है. ऐसे में इस साल राज्य में आरक्षण का मु्द्दा लगातार सुर्खियों में है. इस साल बढ़े हुए आरक्षण से विधानसभा चुनावों में लाभ मिल सकता है, लेकिन एक पेंच है- कुछ समूहों के लिए अधिक आरक्षण प्रतिशत कुछ अन्य की कीमत पर आते हैं, जिससे मामला जटिल हो जाता है. इस मुद्दे का असर ओबीसी समर्थन पर भी पड़ता है, जिसे कांग्रेस और भाजपा दोनों कुछ वर्षों से लुभाने की कोशिश कर रहे हैं.
हालांकि अधिकांश आरक्षित समुदाय नए विधेयकों से संतुष्ट हैं. आदिवासियों के लिहाज से देखे तो राज्य में कुल 90 विधानसभा सीटें है. इनमें से 29 सीटें अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित है.
यहां की आबादी में आदिवासियों का हिस्सा करीब 30.62 प्रतिशत है. इसलिए बेशक यह मसला राजनीतिक तौर पर संवेदनशील मुद्दा है. राज्य में सत्ताधारी कांग्रेस पार्टी चाहेगी कि चुनाव से पहले वह राज्य में आदिवासियों के आरक्षण को बढ़ा सके.
वहीं बीजेपी की कोशिश है कि यह मामला उलझा रहे. इसलिए राजभवन बिना कोई कारण बताए बिलों को मंजूर नहीं दे रहा है.
छत्तीसगढ़ के सत्ताधारी दल कांग्रेस और बीजेपी के इस संघर्ष में अंतत: नुकसान आदिवासी समुदायों का है. क्योंकि जब तक यह मामला तय नहीं हो जाता है शिक्षण संस्थानों में दाखिले से लेकर नौकरियों की भर्ती तक में असमंजस बना रहेगा.