HomeIdentity & Lifeहाथी बचाने वाला आदिवासी खुद मर रहा है?

हाथी बचाने वाला आदिवासी खुद मर रहा है?

पीएम नरेंद्र मोदी ने इस महीने की शुरुआत में मुदुमलाई टाइगर रिजर्व का दौरा किया था और ऑस्कर विनिंग डॉक्यूमेंट्री 'द एलिफेंट व्हिस्परर्स' के सितारों बोमन और बेली से मुलाकात की थी. बोम्मन और बेली कट्टुनायकन समुदाय से हैं. डॉक्यूमेंट्री में आदिवासियों और हाथियों के बीच के रिश्ते को दिखाया गया है. अफ़सोस कि आदिवासियों का विस्थापन, जीविका का संकट, कुपोषण और अवसाद जैसे मुद्दे प्रधानमंत्री की नज़र में नहीं आ पाए. 

तमिलनाडु (Tamil Nadu) में मुदुमलाई टाइगर रिजर्व (Mudumalai Tiger Reserve) विशाल और खूबसूरत जंगल है. इस जंगल में पक्षियों और जानवरों की कई प्रजातियों मिलती हैं.

यह नीलगिरी बायोस्फीयर रिजर्व (Nilgiris biosphere reserve) का हिस्सा है जो केरल, कर्नाटक और तमिलनाडु के साथ सीमाओं को साझा करने वाले जंगलों का एक इकोसिस्टम है.

लेकिन कम से कम चार आदिवासी समुदाय  पिछले 1000 साल से ज़्यादा समय से इस क्षेत्र में रहते रहे हैं. इस बात के प्रमाण मौजूद हैं.  ये समुदाय माउंडदान चेट्टी (Moundadan Chettys), पनियां (Paniyans), कट्टुनायकन (Kattunayakans) और कुरुंबा (Kurumbas) हैं.

इन समुदायों के लिए एक पुनर्वास प्रक्रिया 2017 से चल रही है. हालांकि, स्थानीय लोगों का आरोप है कि बिचौलियों और वन विभाग के कर्मचारियों ने आदिवासी समुदायों के लिए निर्धारित ज्यादातर धन यानि मुआवजे को हड़प लिया है.

माउंडदान (उच्चारण माउंट-अदान) चेट्टी को आदिवासी के रूप में नामित नहीं किया गया है. उन्हें तमिलनाडु राज्य पिछड़ा वर्ग सूची में सबसे पिछड़े समुदाय (Most Backward Communities) के रूप में वर्गीकृत किया गया है.

समुदाय चेट्टी नाम की एक स्थानीय द्रविड़ भाषा बोलता है. इसकी कोई लिपि नहीं है और यह तमिल, कन्नड़ और मलयालम का मिश्रण है. चार समुदायों में से सिर्फ माउंडदान चेट्टी के पास ही मुदुमलाई टाइगर रिजर्व के अंदर पट्टा है.

आदिवासियों की तुलना में चेट्टी बेहतर शिक्षित हैं और इस मुद्दे के लिए अदालत जाने की संभावना से डरते नहीं हैं. यह माउंडदान चेट्टी ही थे जिन्होंने 1998 में जंगल के बाहर पुनर्वास के लिए पहली बार अदालत का दरवाजा खटखटाया था.

2007 हाईकोर्ट का फैसला

1998 में माउंडदान चेट्टी समुदाय के एक सदस्य ने मद्रास हाई कोर्ट में एक रिट याचिका (WP 18531) दायर की थी. याचिकाकर्ता ने मांग की कि अदालत राज्य सरकार को मुदुमलाई वन्यजीव अभयारण्य के निवासियों को पुनर्वास प्रदान करने का निर्देश दे.

उन्होंने तर्क दिया कि 1954 में वन्यजीव अभ्यारण्य घोषित किए जाने के बाद से जंगल के अंदर विकास कार्य नहीं किए गए थे. बंदूक लाइसेंस का नवीनीकरण नहीं किया गया और निवासी जंगली जानवरों से खुद को या अपनी फसलों को नहीं बचा सकते. बाघों और हाथियों से भी जान को खतरा था. वे नीलगिरि जिले के एक गांव अय्यनकोल्ली में स्थानांतरित होना चाहते थे लेकिन जंगल की सीमा के बाहर. राज्य सरकार ने भी इस  कदमों का विरोध नहीं किया.

वन्य प्राणी संरक्षण के मद्देनजर राज्य सरकार और वन विभाग ने हाईकोर्ट में याचिका का समर्थन किया. 19 फरवरी, 2007 को मद्रास हाई कोर्ट ने राज्य सरकार को एक साल के भीतर पुनर्वास प्रक्रिया पूरी करने का आदेश दिया.

कुछ महीने बाद संयोग से जंगल को टाइगर रिजर्व घोषित कर दिया गया. याचिकाकर्ताओं ने सोचा कि वे जीत गए हैं, उन्हें पुनर्वास कर दिया जाएगा और उनकी परीक्षा समाप्त हो जाएगी.

हालांकि, पुनर्वास का पहला चरण दस साल बाद 2017 में हुआ और वो भी सही ढंग से नहीं हुआ. समुदाय के सदस्यों का कहना है कि पहले चरण में 235 चेट्टी परिवारों को पुनर्वास किया गया था.  

हालांकि, पुनर्वास किए गए आदिवासी परिवारों की संख्या के बारे में कोई डेटा उपलब्ध नहीं है. उनका कहना है कि इसे जानबूझकर छुपाया गया क्योंकि बिचौलियों, अधिवक्ताओं और वन विभाग के अधिकारियों के एक समूह ने आदिवासी परिवारों के लिए निर्धारित मुआवजे की राशि का गबन कर लिया.

NTCA दिशानिर्देश

राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (National Tiger Conservation Authority) के दिशानिर्देशों के मुताबिक मुख्य वन के बाहर पुनर्वास होने की इच्छा रखने वाले निवासियों के लिए दो विकल्प हैं.

पहला विकल्प प्रति परिवार 10 लाख रुपये के पूरे पैकेज का भुगतान है. दूसरा वन विभाग द्वारा संरक्षित क्षेत्र के बाहर पुनर्वास और प्रति परिवार दो हेक्टेयर कृषि भूमि सहित मुआवजा पैकेज है.

दोनों ही मामलों में जिला कलेक्टर को संपत्ति का मूल्यांकन पूरा करना होगा ताकि लाभार्थियों को उन पेड़ों और फसलों की भरपाई की जा सके जिन्हें वे पीछे छोड़ देंगे.

इसके अलावा विकल्प 2 के मामले में वन विभाग को पुनर्वास के लिए एक वैकल्पिक स्थल की पहचान करनी होगी और आवास निर्माण के लिए मुआवजा देना होगा. जिन परिवारों के पास पट्टा (भू-स्वामित्व) है, वे जंगल के बाहर भूमि प्राप्त करने के हकदार हैं.

2017 में पुनर्वास का पहला चरण

पुनर्वास प्रक्रिया के पहले चरण में आदिवासियों और चेट्टी समुदाय को आम पुनर्वास कॉलोनियों में नहीं रखा गया था. इसके बजाय उन्हें अलग कर दिया गया और अलग-अलग कॉलोनियों में बेतरतीब ढंग से बसा दिया गया.

जैसे इस जंगल के किनारे पलपल्ली बस्ती में कट्टुनायकन (जिन्हें कट्टुनायकर के नाम से भी जाना जाता है) आदिवासियों का एक समूह रहता है. 

वे पहले जंगल के अंदर बेन्नई गांव में रहते थे. नई जगह जहां वो रह रहे हैं वो सीमा के करीब है और उन्हें रोजाना हाथियों का सामना करना पड़ता है. छह साल बाद वे गांव छोड़ने के अपने फैसले पर पछताते हैं.

सरकार ने उनके लिए पालपल्ली पुनर्वास कालोनी में घर बनवाए हैं. लेकिन छह साल बीत जाने के बाद भी उनके घरों में पाइप से पानी नहीं पहुंचा है.

उनके पास बिजली है ज़रूरी पहुंची है और ज्यादातर घरों में टीवी भी है. उनका कहना है कि उन्हें मुआवजे के रूप में 7 लाख रुपये का भुगतान किया गया था, जिसमें से वन विभाग के अधिकारियों ने उन्हें 5 लाख रुपये उनके घर के लिए देने को कहा है.

3 लाख रुपये की शेष राशि फिक्स्ड डिपॉजिट अकाउंट में मानी जाती है. एनटीसीए के नियमों के मुताबिक, इसे तीन साल के बाद वापस लिया जाना था और उनके बचत खाते या किसी ऐसे व्यक्ति के खाते में स्थानांतरित किया जाना था जो जमीन बेचने के लिए सहमत हो.

इस इलाके में ज़्यादातर आदिवासी अशिक्षित हैं. कट्टुनायकन कॉलोनी में सबसे ज्यादा पढ़ी-लिखी लड़की 11वीं पास है. लेकिन उसने भी पढ़ाई छोड़ दी और अपनी शिक्षा पूरी नहीं की.

आदिवासी मुन्नेत्र संगम (Adivasi Munnetra Sangam) नाम के एक संगठन द्वारा पेश किए गए एक वकील के साथ आदिवासी संपर्क में हैं.

हाथियों से मुठभेड़ और काम की कमी के कारण वे जगंल में बेन्नई में अपने घर लौटने की योजना बना रहे हैं. यहां दिहाड़ी मजदूर के रूप में उन्हें नौ-दस दिन का ही काम मिलता है.

उनका राशन कार्ड ही एकमात्र जरिया है जिसकी वजह से वे रोजाना भोजन कर पा रहे हैं. लेकिन उन्हें निकटतम राशन की दुकान तक पहुंचने के लिए ऑटोरिक्शा के लिए 200 रुपये खर्च करने पड़ते हैं.

आदिवासियों को जो बात सबसे ज्यादा आहत करती है वो यह है कि फॉरेस्ट गार्ड उन्हें वन उपज इकट्ठा करने या अपने देवताओं की पूजा करने के लिए जंगल में लौटने की अनुमति नहीं देते हैं.

जो बात उनकी स्थिति को और भी कमजोर बनाती है वो यह है कि उन्हें उनके नए घरों के लिए पट्टा नहीं दिया गया था. ऐसे में वे घरों को बेचकर किसी दूसरी जगह पर नहीं जा सकते.

मकानों में अभी से सड़न के लक्षण दिखने लगे हैं. बरसात के दिनों में छत टपकने लगती है तो कुछ परिवारों ने बारिश के पानी से बचने के लिए छत के नीचे प्लास्टिक की चादर बांध दी है.

आदिवासियों का कहना है कि घरों की दिवारों और छत को नुकासन तब हुआ जब हाथियों ने भोजन की तलाश में उनके घरों में घुसने की कोशिश की.

2018 में पुनर्वास का दूसरा चरण

यहां के एक और आदिवासी समुदाय पनिया (जिसे कट्टू पनियार के नाम से भी जाना जाता है) को जंगल के अंदर मंदाकेरी गांव से जंगल की सीमा के ठीक बाहर बेचनकोली नाम की एक बस्ती में बसाया गया है.

आदिवासियों का यह समूह 2018 में पुनर्वास के दूसरे चरण का हिस्सा था. इस आदिवासी बस्ति में रहने वाले लोग शिकायत करते हैं कि उनके साथ धोखा हो गया है.

उन्हें लगा था कि जंगल से बाहर की आधुनिक बस्तियों में उन्हें बिजली, पानी और दूसरी सुविधाएं मिलेंगी. वन विभाग ने उन्हें 10 लाख रूपये देने का वादा भी किया था.

आदिवासी परिवारों को उम्मीद थी कि वे एक बेहतर जिंदगी जीने का फैसला ले रहे हैं. इसलिए उन्होंने जंगल से बाहर आने की सहमति दे दी. लेकिन अब उन्हें अहससा हो रहा है कि जंगल में उनके पास जो भोजन और जीविका के साधन थे वो उनसे छीन गए हैं.

क्योकि अब वे लोग जंगल में नहीं घुस सकते हैं. उन्हें जंगल की सीमा पर जो ज़मीन मिली है उसमें खेती नहीं हो पा रही है. 

इन आदिवासियों को जो नकद पैसा मिला वो घर बनाने और ब्याह शादियों में ख़र्च हो गया है. अब वे दो वक्त की रोटी के लिए संघर्ष कर रहे हैं.

यह स्पष्ट नहीं है कि सरकार इन आदिवासियों को कोई सहायता दे सकती है या नहीं. यह एक आधिकारिक पुनर्वास कॉलोनी नहीं है. वन विभाग के अधिकारियों और उनकी भाषा बोलने वाले बिचौलियों ने उन्हें यहां जमीन खरीदने के लिए मनाया था.

इस कॉलोनी में जो सड़क है वो संकरा है. यह चलने लायक भी चौड़ा नहीं है तो इस पर किसी वाहन का चलना दूर की बात है. मुख्य सड़क तक पहुंचने के लिए बुजुर्ग लोगों को आधा किलोमीटर ढोना पड़ता है. उनका कहना है कि उनके पास महीने में दो-तीन दिन ही काम होता है.

यहां के स्थानीय लोग बताते हैं कि आदिवासी पुरुष अपना ज्यादातर दिन खाली बैठकर या शराब पीकर बिताते हैं. कुपोषण के कारण वे इतने कमजोर हैं कि रोजाना खेतों में काम नहीं कर पाते. आदिवासियों के इस समूह को लगभग कोई भी खेत मालिक काम पर नहीं रखता है. 

मुदुगुली गांव में माउंडदान चेट्टी

मुदुगुली गांव में ऐसे लोग रहते हैं जो अभी भी यह तय नहीं कर पाए हैं कि जंगल छोड़ा जाए या नहीं. यह मुदुमलाई टाइगर रिजर्व की सीमा के भीतर स्थित एक छोटा सा गांव है.

यहां कई माउंडदान चेट्टी परिवार हैं. इनका मुख्य पेशा खेती है. उनके आसपास के क्षेत्र में सिर्फ एक प्राथमिक विद्यालय है और यह 5वीं कक्षा तक एक तमिल-माध्यम सरकारी स्कूल है.

 उन्हें नजदीकी स्वास्थ्य केंद्र या राशन की दुकान तक पहुंचने के लिए चार सो पांच किलोमीटर ऊबड़-खाबड़ रास्ते से होकर जाना पड़ता है.

यहां की एक सामाजिक कार्यकर्ता बताती हैं, “जिन परिवारों के पास जीप नहीं है उन्हें मरीज़ को एक स्ट्रेचर पर ले जाना और चेक पोस्ट तक चलना पड़ता है. यहां कोई उचित सड़कें नहीं हैं इसलिए एंबुलेंस इस क्षेत्र तक नहीं पहुंच सकती हैं. मेडिकल स्टाफ की भी कमी है. मैं पांच गांवों की अकेली चिकित्साकर्मी हूं. इसके अलावा मुझे सिर्फ प्रोत्साहन राशि मिलती है इसलिए मेरी औसत कमाई 2 हजार प्रतिमाह से ज्यादा नहीं है. पुनर्वास प्रक्रिया के चलते जनसंख्या कम हो गई है और गर्भधारण की संख्या भी कम हो गई है.”

पीएम नरेंद्र मोदी ने इस महीने की शुरुआत में मुदुमलाई टाइगर रिजर्व का दौरा किया था और ऑस्कर विनिंग डॉक्यूमेंट्री ‘द एलिफेंट व्हिस्परर्स’ के सितारों बोमन और बेली से मुलाकात की थी. बोम्मन और बेली कट्टुनायकन समुदाय से हैं. डॉक्यूमेंट्री में आदिवासियों और हाथियों के बीच के रिश्ते को दिखाया गया है.

लेकिन अफ़सोस कि आदिवासियों का विस्थापन, जीविका का संकट, कुपोषण और अवसाद जैसे मुद्दे प्रधानमंत्री की नज़र में नहीं आ पाए. 

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