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भीमा नायक के शाहदत दिवस पर सोचिए कि क्या आदिवासियों के साथ इंसाफ़ हुआ है

जंगल से उन्हें बेदख़ली आज़ादी के बाद भी आदिवासी को परेशान करती रही. अंततः 2006 में वन अधिकार क़ानून बना कर इस ऐतिहासिक नाइंसाफ़ी को समाप्त किया गया.

जनजातीय योद्धा भीमा नायक का आज बलिदान दिवस है. उन्होंने 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेज़ों के विरुद्ध संघर्ष किया था.

अंग्रेज सरकार द्वारा उनके खिलाफ दोष सिद्ध होने पर उन्हें पोर्ट ब्लेयर व निकोबार में रखा गया था. भीमा नायक की मृत्यु 29 दिसंबर 1876 को पोर्ट ब्लेयर में हुई थी.

देश आज़ादी के 75 वर्ष पूरे होने पर आज़ादी का अमृत महोत्सव मना रहा है. इस महोत्सव में देश की आज़ादी में भूमिका निभाने वाले आदिवासी नायकों की भी चर्चा हो रही है.

इस सिलसिले में यह कोशिश भी हो रही है कि आदिवासी नायकों पर पर्याप्त किताबें और दूसरी सामग्री उपलब्ध कराई जा सके. सरकार ने आदिवासी नायकों से जुड़े स्मारक भी बनाए जा रहे हैं.

इस सिलसिले में राजस्थान और गुजरात की सीमा पर मानगढ़ धाम को ख़ुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने राष्ट्रीय स्मारक घोषित किया है. मानगढ़ धाम भील आदिवासियों की क़ुर्बानी की निशानी है.

आज़ादी के अमृत महोत्सव में आदिवासी नायकों और उनके योगदान को याद करना और उसका प्रचार करना एक बेहद सकारात्मक कदम है. इस कदम की जितनी तारीफ़ की जाए उतनी कम है.

लेकिन आदिवासी नायकों के योगदान को याद करते हुए यह भी समझने की ज़रूरत है कि आदिवासी के लिए जल, जंगल और ज़मीन एक बड़ा मुद्दा था, जिसकी वजह से वह ब्रिटिश सत्ता से टकरा रहा था.

इसके अलावा उसकी स्वशासन की व्यवस्था भी उसे बहुत प्यारी रही है. तो आज़ादी के अमृत महोत्सव में यह भी ध्यान रखना होगा और बताना होगा कि देश की आज़ादी के समय जो वायदे आदिवासियों से किये गए थे क्या वो पूरे हुए.

आदिवासी विद्रोह और स्वशासन का सवाल

ब्रिटिश शासन के बढ़ते उत्पीड़न, बेगारी, सूदखोरी, वनों से बेदखली, राजस्व वसूली, आदिवासियों पर लगाये जा रहे नये-नये करों को समाप्त करने और अपनी पुरानी स्व- शासन व्यवस्था बहाली के लिए आदिवासियों ने ब्रिटिश सत्ता के ख़िलाफ़ कई विद्रोह किये. 

इन विद्रोह का सिलसिला 1771 में तिलका मांझी के नेतृत्व में शुरू हुआ. यह विद्रोह 13 जनवरी 1785 यानि तब तक चलता रहा जब तक अंग्रेजों द्वारा तिलका माँझी को फाँसी पर नहीं चढ़ा दिया गया. 

अंग्रेजी शासन का विस्तार जैसे-जैसे बढ़ता गया, वैसे-वैसे देश के विभिन्न क्षेत्रों में फैले आदिवासियों पर भी उन्होंने नियंत्रण पाने की कोशिश की थी. आदिवासी समुदायों ने इस नियंत्रण के खिलाफ पूरे देश में जगह-जगह विद्रोह शुरू कर दिया. 

जुआर विद्रोह 1776, तमाड़ विद्रोह 1795, चेरों का विद्रोह 1795, रामोसी विद्रोह 1822, कोल विद्रोह 1831, भूमिज विद्रोह 1832, खोड़ विद्रोह, 1837, संथाल विद्रोह 1855, कोली विद्रोह 1873, रम्पा विद्रोह 1879, कुम्बियों का विद्रोह 1879, गौड़ विद्रोह 1891, मुण्डा विद्रोह 1894-1900, टाना भगत आंदोलन 1912, भील विद्रोह 1913. ये भारत में आदिवासियों द्वारा अंग्रेजों के खिलाफ किए गए कुछ प्रमुख विद्रोह थे.  अपनी स्वायत्तता, स्वतंत्रता, जंगल और खेती बचाने के लिए हजारों-हजार आदिवासियों ने कुर्बानी दी. 

आदिवासियों के द्वारा किये जा रहे प्रबल विरोध और विद्रोह के कारण अंग्रेजों ने 1831 में कोल विद्रोह के बाद पहली बार आदिवासियों की शर्तों को मानते हुए 1833 में जंगल महल जिले में बंगाल के सामान्य कानून को हटा कर नान-रेगुलेशन प्रांत के रूप में संगठित किया और बाद में दक्षिण पश्चिम सीमा एजेंसी का नाम दिया. 

आदिवासियों द्वारा लगातार किये जा रहे विद्रोह से ब्रिटिश हुकूमत यह समझ गयी कि आदिवासियों के सहयोग के बैगर उनके ऊपर सीधे शासन नही किया जा सकता है.

इसलिए 1837 में गवर्नर जनरल के एजेंट विलकिंसन ने कोल्हान क्षेत्र के मुण्डाओ (गांव के मुखिया) के साथ समझौता किया. इस समझौते के तहत अलग कोल्हान एस्टेट की घोषणा की गई. इसके अलावा चाईबासा को उसका मुख्यालय बनाया.  

मुण्डा समुदाय में पहले से चली आ रही मुण्डा- मानकी की परम्परागत स्व-शासन व्यवस्था को मान्यता देते हुए उसे बहाल कर दिया.  मुण्डाओं को जागीरदार और न्यायिक अधिकारी का सम्मान दिया और गांव के विवाद को गांव में ही सुलझाने का अधिकार दे दिया गया. 

अंग्रेजों ने कोल्हान क्षेत्र में आदिवासी समुदाय की परम्परागत स्व-शासन व्यवस्था कायम की और इसके लिए 31 नियम बनाए. जो विलकिंसन रूल्स के नाम से जाने जाते है. विलकिंसन रूल्स की मुख्य बातें निम्न थी –

मुण्डा-मानिकी व्यवस्थाकी बहाली. 

मुण्डा-मानिकी का पद वंशनुगत ही रहेगा. 

मुण्डा को मालगुजारी वसूलने तथा सिविल मामले के फ़ैसले करने का अधिकार. 

मानकी को डकैती और हत्या को छोड़कर बाकी सभी अपराधिक (फौजदारी) मामलों के फ़ैसले करने तथा मुण्डाओं द्वारा वसूली गयी मालगुजारी को सरकारी खजाने में जमा करने का अधिकार 

वसूले गये करों में से मुंडा-मानकी को विकास कार्यों के लिए हिस्सा. 

गवर्नर जनरल के एजेंट की अनुमति के बिना भूमि की किसी भी प्रकार की बिक्री, हस्तांतरण, नीलामी, बंधक या मालगुजारी अदायगी पर रोक.

आदिवासी के अधिकार और नाइंसाफी

संविधान में आदिवासियों की विशिष्ट जीवन शैली, संस्कृति, परंपरा और संसाधनों के संरक्षण के लिए कई प्रावधान किये गये. लेकिन उसके बावजूद देश के आदिवासियों के साथ नाइंसाफ़ी होती रही.

ख़ासतौर से जंगल से उन्हें बेदख़ली आज़ादी के बाद भी आदिवासी को परेशान करती रही. अंततः 2006 में वन अधिकार क़ानून बना कर इस ऐतिहासिक नाइंसाफ़ी को समाप्त किया गया.

इस क़ानून को पास करते हुए यह माना गया कि आज़ादी के बाद भी लंबे समय तक आदिवासियों के साथ नाइंसाफ़ी चलती रही. लेकिन अफ़सोस की बात है कि ज़्यादातर राज्यों में इस क़ानून के तहत अभी भी लाखों आदिवासियों को ज़मीन का अधिकार नहीं मिला है.

वन अधिकार क़ानून 2006 को लागू करने में राज्य सरकारों की रुचि का पता तब चला जब 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने लाखों आदिवासी परिवारों को जंगल से बेदख़ल करने का आदेश दे दिया.

इस मामले में पता चला कि वन्य जीवों और पर्यावरण के लिए काम करने वाली एक ग़ैर सरकारी संस्था ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका लगाई थी. इस याचिका में माँग की गई थी कि जंगल में रहने वाले जिन परिवारों के पास अधिकृत दस्तावेज़ नहीं हैं उन्हें जंगल से बाहर कर दिया जाना चाहिए.

इस मामले में आदिवासियों का या राज्य सरकारों का पक्ष रखने के लिए कोई वकील उपस्थिति ही नहीं हुआ. इसका परिणाम यह हुआ कि सुप्रीम कोर्ट ने यह फ़ैसला दे दिया कि आदिवासियों का जंगल की ज़मीन पर क़ब्ज़ा अवैध है और उनसे यह ज़मीन ख़ाली कराई जाए.

इस आदेश के बाद सारे देश में हड़कंप मचा तो केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से अपने ही आदेश पर रोक लगाने की गुहार लगाई. सुप्रीम कोर्ट ने आदिवासियों को राहत देने के लिए केंद्र सरकार की अपील को मान लिया और इस आदेश पर रोक लग गई.

लेकिन उसके बावजूद अभी तक वन अधिकार क़ानून के तहत आदिवासियों के लाखों दावे लंबित हैं.

1996 में संसद ने पेसा क़ानून पास किया. यह क़ानून आदिवासी इलाक़ों में पंचायती राज को लागू करने के बारे में अलग प्रावधान करता है.

यह क़ानून प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन का अधिकार देता है. यह क़ानून ग्राम सभाओं का सशक्तिकरण करता है. इस क़ानून को लागू हुए अब 25 साल हो चुके हैं.

लेकिन हाल ही में एक रिपोर्ट बताती है कि एक दो राज्य को छोड़ दें तो ज़्यादातर राज्यों में पेसा के प्रावधानों को लागू नहीं किया गया है.

बल्कि जब आज़ादी के अमृत महोत्सव में आदिवासी नायकों को सम्मान देने की बात की जा रही है, दूसरी तरफ़ उनके अधिकारों को हड़पने की कोशिशें भी नज़र आ रही है.

इस काम में ना तो राज्य सरकारें पीछे हैं और ना ही केंद्र सरकार के हाथ साफ़ हैं. लोकतंत्र में राजनीतिक दल एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा में अलग अलग वर्गों को लुभाने की कोशिश करते हैं.

लेकिन इस रेस में यह नहीं भूलना चाहिए कि एक सच्चा लोकतंत्र अपने कमज़ोर और वंचित तबकों के अधिकारों को सुरक्षित रखता है.

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