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येरवा आदिवासी: वन अधिकार कानून 2006 के तहत ज़मीन मिलने के बाद भी आर्थिक सामाजिक संकट से गुज़रता समुदाय

येरवा समुदाय के समूह फानी येरवा को वन अधिकार कानून 2006 के तहत ज़मीन के पट्टे मिले हैं. इसके बावजूद यह समूह सामाजिक और आर्थिक संकट से गुज़र रहा है. इस समूह को बचाने के लिए आर्थिक और सामाजिक दोनों ही मोर्चों पर काम करने की ज़रूरत है.

देश के पश्चिमी घाटों के कर्नाटक वाले भाग में सदाबहार हरेभरे जंगल काफ़ी हद तक अनछुए हैं. इन्हीं जंगलों में येरवा आदिवासी समुदाय के लोग भी रहते हैं. इस समुदाय का एक एक उपसमूह  फानी येरवा (Phani Yerava) है. 

ये आदिवासी समूह आर्थिक और सामाजिक संकट से गुज़र रहा है. कर्नाटक के कोडागु ज़िले (Kodagu District) में पड़ने वाले जगंल के विरजपेट तालुका की बेतोली ग्राम पंचायत के गांव मकुता में  येरवा समुदाय के कुल 19 परिवार हैं. 

साल 2021 में इन सभी परिवारों ने वन अधिकार कानून 2006 के तहत ज़मीन के पट्टे हासिल कर लिये थे. इन पट्टों को हासिल करना आसान नहीं था. लेकिन फिर भी उन्होंने किसी तरह से 135 एकड़ भूमि का पट्टा हासिल कर लिया.

इसके अलावा जंगल में मिलने वाले अन्य उत्पादों को जमा करने का अधिकार तो उन्हें वन अधिकार कानून के तहत हासिल है. यह उम्मीद की जानी चाहिए थी कि ज़मीन का पट्टा मिलने के बाद उनकी आर्थिक स्थिति में बदलाव आना चाहिए था.

लेकिन अफ़सोस कि उनकी स्थिति सुधरने की बजाए बिगड़ रही है. ऐसा क्यों हुआ कि ज़मीन का हक हासिल करने के बाद भी उनकी स्थिति में सुधार नहीं हुआ है. इस बारे में यहां के गांव के लोग कहते हैं कि इस ज़मीन पर फ़सल पैदा करने में जितनी मेहनत और पैसा लगता है उससे अच्छा तो शहर जा कर मज़दूरी करना है.

एक वक्त में पूरी तरह से जंगल पर निर्भर इस समुदाय के लोग अब जंगल में उत्पाद जमा करने भी कम ही जाते हैं. इस समूह के लोग आमतौर पर जंगल से शहद और शिकाकाई जैसी चीजे़ जमा करते थे. 

इस बारे में यहां के लोग कहते हैं कि अब जंगल में ये चीजें कम हो रही हैं. कुछ परिवार अभी भी जंगल में जाते हैं लेकिन सिर्फ जंगल में मिलने वाली चीज़ों के भरोसे परिवार पालना नामुमकिन है.

इसलिए ज़्यादातर लोग पास में केरल के कासरगोड़ ज़िले में मजदूरी के लिए चले जाते हैं. यहां रहने वाले लोग मलायालम ना सिर्फ़ समझते हैं बल्कि बोल भी लेते हैं. इसलिए उनके लिए केरल में काम करना आसान है.

केरन में मजदूरी का पैसा भी अच्छा मिलता है और समय मिल भी जाता है. इस गांव में ही नहीं बल्कि आसपास के अन्य गांवों के आदिवासियों के लिए भी दैनिक मजदूरी ही अब जीने का मुख्य साधन है.

नशा एक बड़ी समस्या बन रही है

येरवा समूह में नशा एक बड़ी समस्या बन रही है. भारतीय सामाजिक विज्ञान शोध परिषद नई दिल्ली (Indian Council of Social Science REsearch, New Delhi) की तरफ से कराई गई एक स्टडी में यह पाया गया है.

इस स्टडी से जुड़े लोगों ने बताया है कि जब वे यहां के आदिवासियों में वन अधिकार 2006 के बारे में लोगों से बात कर रहे थे तो उन्होंने पाया कि परिवार के लगभग सभी पुरूष नशे में थे. यहां तक कि गांव के कम उम्र के लड़कों में भी नशे की लत मिल रही है.

ऐसा लगता है कि एक समाज के तौर पर यह समुदाय काफी ख़तरे में है. इस इलाके में काम करने वाली ग़ैर सरकारी संस्थाओं के लोग यह कहते हैं कि जब से आदिवासी दैनिक मजदूरी करने के लिए शहरों में जाने लगे हैं उनके बीच नशे की लत बढ़ी है. 

यह कहा जाता है कि दैनिक मज़दूरी करने वाले लोग शाम को थकान मिटाने को शराब पीते हैं. यह आदत उन मजदूरों के बीच काम करने वाले आदिवासियों को भी पड़ गई है.

यह चुनौती सिर्फ येरवा समुदाय की नहीं है इस इलाके में रहने वाले अन्य आदिवासी समुदायों में पाई जाती है. यहां रहने वाले हसलारु, जेनु कुरुबा और गोवडालु समुदाय के लोग यहां पर रहते हैं.

इस स्टडी में यह पाया गया है कि जो समुदाय संख्या में अधिक हैं और अपने अधिकारों के बारे में चिंतित रहते हैं उनको वन अधिकार कानून का फ़ायदा मिला है. लेकिन येरवा समुदाय जैसे आदिवासी समुदायों के कई समूह हैं जो इस ऐतिहासिक कानून के बावजूद संकट में डूब रहे हैं.

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