जगदलपुर से क़रीब 25-30 किलोमीटर दूर नानगुर गाँव में शुक्रवार को बाज़ार लगता है. इस दिन इस गाँव के क़रीब 20 किलोमीटर के दायरे में गाँव ख़ाली हो जाते हैं.
क्योंकि लगभग हर गाँव के लोग इस बाज़ार में पहुँचते हैं. आदिवासी इलाक़ों में अभी भी गाँवों में दुकानों का चलन नहीं हुआ है. अपनी ज़रूरतों के लिए आदिवासी अभी भी साप्ताहिक हाट पर ही निर्भर करता है.
इसलिए लगभग हर परिवार के लोग इस बाज़ार में पहुँचते हैं. इस बाज़ार में वो अपने खेतों की फसल और जंगल से जमा किया हुआ सामान लेकर पहुँचते हैं.
अपना सामान बेचकर ये आदिवासी घर की ज़रूरत की चीजें ख़रीदते हैं. इस बाज़ार में दुकानें आदिवासी औरतें ज़्यादा लगाती हैं. जंगली फल, सब्ज़ी और महुआ जैसी चीजें ये औरतें इस बाज़ार में बेचती हैं.
इस बाज़ार में ग़ैर आदिवासी लोग भी दुकान लगाते हैं. मसलन तेल-मसाले, बर्तन, औज़ार और मिठाई की दुकानें ग़ैर आदिवासी ही लगाते हैं. इसके अलावा आदिवासियों की फसल ख़रीदने के लिए कई आढ़ती भी यहाँ पहुँचते हैं.
इस हाट में आपको कई आदिवासी भाषा बोलने वाले लोग मिलते हैं. मसलन मैदानी इलाक़े के शहरी लोग छत्तीसगढ़ी में बात करते हैं. वहीं आदिवासी गोंडी, हल्बी और भत्तरी भाषा बोलते मिलते हैं.
इस हाट में जा कर आप इस इलाक़े के आदिवासियों को क़रीब से देख समझ सकते हैं. पूरा एपिसोड देखने के लिए उपर के लिंक को क्लिक करें.