HomeIdentity & Lifeआदिवासी डिलिस्टिंग और धर्मांतरण की बहस के मायने क्या हैं

आदिवासी डिलिस्टिंग और धर्मांतरण की बहस के मायने क्या हैं

शुक्रवार यानि 4 फ़रवरी 2023 को सुप्रीम कोर्ट ने Religious Freedoms Act की वैधता को चुनौती देने वाली याचिका पर 7 राज्यों से जवाब मांगा है.

दरअसल कोर्ट के सामने एक याचिका है जिसमें कहा गया है कि देश के कम से कम 7 राज्यों के हाईकोर्टों में इस कानून से जुड़ी याचिकाएं लंबित हैं.

इस याचिका में सुप्रीम कोर्ट से आग्रह किया गया है कि इन सभी याचिकाओं को सुप्रीम कोर्ट अपने पास ट्रांसफर कर ले. 

अगर संक्षेप में इस पूरे मसले को समझने की कोशिश करें तो देश के सात राज्यों हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश, गुजरात, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, कर्नाटक और झारखंड में धर्म परिवर्तन को रोकने के लिए बनाए गए क़ानूनों को वहाँ के हाईकोर्टों में चुनौती दी गई है. 

इन क़ानूनों का मक़सद क्या है और आदिवासियों से इन क़ानूनों का क्या लेना-देना है

देश के अलग अलग राज्यों में धर्म परिवर्तन को रोकने के लिए बनाए गए क़ानूनों के मकसद और आदिवासियों से इन क़ानूनों का क्या लेना देना है, यह समझने से पहले आईए उन राज्यों की सूची देखते हैं जहां ये क़ानून बनाए गए हैं.

ये राज्य ओड़िशा -(1967), मध्य प्रदेश (1968), अरुणाचल प्रदेश (1978), छत्तीसगढ़ (2000-2006), गुजरात (2003), हिमाचल प्रदेश (2006-2019), झारखंड (2017), और उत्तराखंड (2018) हैं. 

देश के अलग अलग राज्यों में बने इन क़ानूनों का मक़सद डरा-धमका कर या किसी तरह का लालच या प्रलोभन दे कर धर्म परिवर्तन पर पाबंदी लगाना है.

यह हम मोटेतौर पर कह सकते हैं इन क़ानूनों के मक़सद के बारे में. लेकिन पिछले कुछ सालों में कई राज्यों ने धर्म परिवर्तन से जुड़े क़ानूनों में दो धर्म के लोगों के बीच शादी के फ़ैसले को भी इन क़ानूनों का हिस्सा बना दिया है.

जिन 7 राज्यों के बारे में हमने शुरू में बताया है वहाँ पर दो धर्म के लोग अगर आपसे में शादी करना चाहते हैं तो उन्हें प्रशासन से अनुमति लेनी पड़ेगी.

अन्यथा उनकी शादी को मान्यता नहीं मिलेगी. इतना ही नहीं इस तरह के मामले में जेल और जुर्माना का प्रावधान भी रखा गया है. जी हाँ आप सही समझ रहे हैं….तथाकथित लव जिहाद को रोकना भी इन क़ानूनों का एक मक़सद बताया गया है. 

अब यह सवाल मन में आना लाज़मी है कि लव जिहाद तो हिन्दू मुसलमानों का मामला है, इसमें आदिवासी कहां से आ गए. वैसे तो आजकल तथाकथित लव जिहाद को आदिवासी भारत में भी मुद्दा बनाने की कोशिश हो रही है.

लेकिन इन क़ानूनों से आदिवासियों से सबसे ज़्यादा लेना देना है. इसको समझने के लिए एक बार फिर से उन राज्यों की सूची देखिए जहां ये क़ानून बनाए गए हैं, जब आप इस सूची को देखेंगे तो आप पाएँगे कि इन राज्यों में से ओडिशा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, झारखंड वे राज्य हैं जहां अनुसूची 5 के क्षेत्र हैं.

यानि इन राज्यों में कई आदिवासी बहुल क्षेत्र मौजूद हैं. 

Delisting को मुद्दा बनाने की कोशिश

गुजरात में दो महीने पहले हुए विधान सभा चुनाव में बीजेपी ने आदिवासियों के लिए आरक्षित 27 सीटों में से 23 सीटें जीत ली. कांग्रेस और भारतीय ट्राइबल पार्टी जैसे संगठनों के गढ़ को दखल करना बेशक बीजेपी के लिए बड़ी बात है.

लेकिन आज हम जिस मसले पर बातचीत कर रहे हैं, उसको समझने के लिए गुजरात के चुनाव से कुछ समय पहले आदिवासियों और गुजरात के मुख्यमंत्री के बीच हुई एक बैठक का ज़िक्र ज़रूरी है.

जून 2022 को गुजरात के डांग और तापी ज़िले के कुछ आदिवासी नेता मुख्यमंत्री भूपेन्द्र पटेल से मिले थे. मुख्यमंत्री से मिलने वाले इन ये नेता ईसाई आदिवासी समुदाय से थे.

इन नेताओं को मुख्यमंत्री ने आश्वासन दिया कि उन्हें राज्य में डिलिस्ट नहीं किया जाएगा….यानि उन्हें scheduled tribes को मिलने वाले आरक्षण के लाभ से वंचित नहीं किया जाएगा.

ये आदिवासी नेता इसलिए मुख्यमंत्री से मिले थे क्योंकि राज्य के कई बड़े बीजेपी नेता ईसाई धर्म अपनाने वाले आदिवासियों को आरक्षण के लाभ से वंचित करने की बात कर रहे थे.

यह बात सिर्फ गुजरात तक सीमित नहीं थी….बल्कि मध्य प्रदेश में अप्रैल 2022 में छपी खबरों के अनुसार राज्य के कम से कम 6 ज़िलों में डिलिस्टिंग के मुद्दे पर बड़े कार्यक्रम आयोजित किये गए थे.

इसके अलावा छत्तीसगढ़, झारखंड और कर्नाटक जैसे राज्यों बीजेपी के बड़े नेता लगातार इस मुद्दे को उठा रहे हैं. करते रहे है. 

बीजेपी के नेता इस माँग को संसद में भी उठा चुके हैं. झारखंड के सांसद निशिकांत दुबे ने संसद में इस बात को काफ़ी ज़ोर शोर से उठाया था.

अक्सर जब धर्म परिवर्तन या लव जिहाद जैसे शब्द सुनने को मिलते हैं तो अक्सर यही माना जाता है कि इन शब्दों का इस्तेमाल हिन्दू मुसलमान के ध्रुवीकरण के लिए किया जाता है.

लेकिन धर्म परिवर्तन संघ परिवार और बीजेपी के लिए आदिवासी इलाक़ों में बड़ा मुद्दा है. इस मामले में उनके निशाने पर ईसाई धर्म प्रचारक और संगठन हैं. 

संघ और उससे जुड़े संगठन जिनमें बीजेपी भी शामिल है जो यह मानते हैं कि विदेशों से आदिवासियों को ईसाई बनाने के लिए बड़ी मात्रा में धन भारत भेजा जाता है.

दिसंबर-जनवरी महीने में छत्तीसगढ़ के बस्तर में ईसाई आदिवासियों और आदिवासियों के बीच तनाव की स्थिति बनी. हालाँकि यहाँ पर प्रशासन ने संयम से काम लिया और हिंसा को फैलने नहीं दिया.

लेकिन यह साफ़ हो गया है कि बीजेपी इस मुद्दे को छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाक़ों में चुनाव का बड़ा मुद्दा बनाने की कोशिश करेगी

जनसंख्या के आँकड़े क्या कहते हैं

जब धर्म परिवर्तन को मुद्दा बनाया जाता है तो अक्सर यह दावा किया जाता है कि जिन धर्मों को अल्पसंख्यक कहा जाता है वे धर्म परिवर्तन के ज़रिए अपनी जनसंख्या को बढ़ाने में लगे हैं. इस मामले में इस्लाम और ईसाई धर्मों पर यह आरोप ज़्यादा लगता है. 

लेकिन जनगणना के आँकड़े इन दावों को सच साबित नहीं करते हैं. भारत की जनसंख्या से जुड़े आँकड़े बताते हैं कि देश की कुल आबादी का लगभग 80 प्रतिशत हिन्दू धर्म को मानते हैं, क़रीब 14 प्रतिशत मुसलमान हैं और बाक़ी 6 प्रतिशत में ईसाई सहित बाक़ी अल्पसंख्यक समुदाय के लोग हैं. 

निष्कर्ष 

भारत का संविधान सभी धर्मों के नागरिकों को एक नज़र से देखता है. धर्म के आधार पर संविधान कोई भेदभाव नहीं करता है. यह बात भी सच है कि भारत में धर्म परिवर्तन होता रहा है.

आदिवासी इलाक़ों में भी धर्म परिवर्तन हुआ है. लेकिन धर्म परिवर्तन से जुड़े जो दो बड़े दावे किये जाते हैं उनके समर्थन में प्रमाण नहीं मिलते हैं.

पहला है दावा कि आदिवासी भारत में लोभ-लालच या डरा धमका कर धर्म परिवर्तन कराया जा रहा है…दूसरा दावा कि एक दिन हिन्दू जनसंख्या भारत में अल्पसंख्यक हो जाएगी.

यह सवाल भी पूछा जाता है कि अगर आदिवासी ईसाई या कोई और धर्म अपनाने पर धर्म परिवर्तन माना जाता है और उससे आरक्षण छीन लेने की माँग की जाती है तो फिर हिन्दू धर्म को मानने वाले आदिवासियों के आरक्षण को कैसे जस्टिफ़ाई किया जा सकता है.

ये सब उलझे हुए सवाल हैं, उससे भी बड़ा उलझा हुआ सवाल है कि कोई व्यक्ति या परिवार धर्म परिवर्तन क्यों करता है…क्योंकि इस बात के प्रमाण तो नहीं मिलते हैं कि भारत में किसी का ज़बरदस्ती धर्म परिवर्तन कराया जा रहा है.

धर्म परिवर्तन का कारण एक बेहतर ज़िंदगी की तलाश….शोषण से मुक्ति …या फिर कुछ और आकांक्षाएँ भी हो सकती हैं.

इन पेचीदा सवालों के जवाब तो समाज शास्त्री ही दे सकते हैं, लेकिन उम्मीद है कि सुप्रीम कोर्ट धर्म परिवर्तन से जुड़े क़ानूनों से जुड़ी बहस को सार्थक तरीक़े से किसी मुक़ाम पर पहुँचा देगा.

हालाँकि सुप्रीम कोर्ट का कोई फ़ैसला धर्मांतरण की बहस को थाम देगा, कहना या मानना मुश्किल है.

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