अरुणाचल प्रदेश के आशिंग (आदि) समुदाय की भाषा और संस्कृति के दस्तावेज़ीकरण (Documentation) के लिए तीन-दिवसीय एक वर्कशॉप राजीव गांधी यूनिवर्सिटी (RGU) में चल रही है.
कार्यक्रम का आयोजन Centre for Endangered Languages (CFEL), Arunachal Institute of Tribal Studies (AITS), और RGU द्वारा किया जा रहा है. इसका मक़सद राज्य के ऐसे आदिवासी समुदायों की भाषाओं, मौखिक कहानियों और संस्कृति का दस्तावेज़ीकरण करना है, जिनके बारे में कम लोग जानते हैं.
आशिंग अरुणाचल प्रदेश की आदि जनजाति समुदाय के तहत आने वाली भाषा है. लेकिन इसका अभी तक बहुत कम दस्तावेज़ीकरण हुआ है, तो इसके बारे में कम ही जानकारी मिलती है. यह भाषा सिर्फ़ 10 लोगों द्वारा ही बोली जाती है. यह लोग कुगिंग गांव, और नगेरेंग गांव में रहते हैं, और ऊपरी सियांग जिले के तुतिंग टाउनशिप में कुछ परिवार के हैं.
यूनेस्को की Language Vitality and Endangerment Framework (2003) के अनुसार आशिंग आषा विलुप्त होने के कगार पर है, क्योंकि इसका पीढ़ी-दर-पीढ़ी प्रसारण बंद हो गया है, और इसे बोलने वाले लोग काफ़ी बूढ़े हो चुके हैं.
RGU के कुलपति प्रोफ़ेसर साकेत कुशवाहा ने आशिंग बोलने वाले लोगों से अनुरोध किया है कि वो अपनी भाषा के पीढ़ी-दर-पीढ़ी प्रसारण के लिए इसे बोलना जारी रखें, नहीं तो वह दुनिया से गायब हो जाएगी.
CFEL से भाषा पर एक वीडियो बनाने के अलावा, पाठ्य और डिजिटल दोनों स्वरूपों में भाषा का दस्तावेज़ीकरण करने को कहा गया है. इसके अलावा भाषा को पुस्तक के रूप में विकसित किया जाए ताकि इसे स्कूलों के अंदर और बाहर सीखा जा सके.
आशिंग समुदाय के गोमंग तमुत, चितुत दावा डांगगेन, नुनी सिबोह और डोंगकोंग सिबोह वर्कशॉप के लिए संसाधन व्यक्ति हैं.
डांगगेन ने RGU की टीम को अपनी भाषा और संस्कृति के संरक्षण और डॉक्यूमेंटेशन में हर संभव मदद देने का आश्वासन दिया है. जबकि तमुत, जो आशिंग के इकलौते सक्षम स्पीकर हैं, ने कहा कि वह अपनी भाषा बोलना जारी रखेंगी.
किसी भी भाषा का संरक्षण एक दो-तरफा प्रक्रिया है. इसमें भाषा के वक्ताओं, और RGU और सरकारों जैसी सहयोगी एजेंसियों दोनों के प्रयास बेहद अहम हैं. फ़िलहाल चल रही वर्कशप का मकसद इन दोनों के बीच की खाई को पाटना है.
(तस्वीर अरुणाचल प्रदेश के निशी समुदाय के बुज़ुर्गों की है.)