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द्रोपदी मूर्मु : BJP के लिए प्रतीकात्मक या चुनावी राजनीति से आगे भी लक्ष्य है

द्रोपदी मूर्मु को राष्ट्रपति बना कर बीजेपी बेशक पहचान की राजनीति कर रही है. लेकिन इस संदेश में सिर्फ़ मंशा शायद यह नहीं है कि देश के एक हाशिये के समाज को यह अहसास कराया जाए की आप के बारे में चिंता की जा रही है. यानि इस कदम को केवल एक प्रतीकात्मक कदम राजनीतिक दृष्टि से नहीं कहा जा सकता है. बेशक बीजेपी इस कदम से आदिवासी समुदाय में राजनीतिक यानि चुनावी प्रभाव के साथ साथ कुछ विचारधारत्मक लक्ष्य भी हासिल करना चाहेगी. 

“भारत के सर्वोच्च पद के लिए समाज के उस तबके की औरत को चुनना जो अभी तक हाशिये पर है, निश्चित ही एक बड़ा कदम है. बेशक यह पहचान की राजनीति (Identity Politics) है. लेकिन पहचान की राजनीति तो भारत में लंबे समय से मौजूद रही है. इसके लिए बीजेपी को ही ज़िम्मदेरा नहीं ठहराया जा सकता है.” राजनीतिक मामलों पर पैनी नज़र रखने वाली विश्लेषक और पत्रकार नीरजा चौधरी कहती हैं.

CSDS के प्रोफ़ेसर संजय कुमार कहते हैं, “ द्रोपदी मूर्मु को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाना पहचान की राजनीति तो है. लेकिन शायद आदिवासी पहचान से ज़्यादा इसका कारण जेंडर है. अगर आप पिछले कुछ सालों में भारतीय चुनावी राजनीति में आए बदलाव को देखेंगे तो पाएँगे कि मतदान में औरतों की भागीदारी बढ़ी है. तो बेशक द्रोपदी मूर्मु का आदिवासी होना अतिरिक्त फ़ायदा दे सकता है लेकिन मुझे पहले से ही पहले लग रहा था की बीजेपी एक महिला को औरत को ही राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार बनाएगी.”

वो आगे कहते हैं , “ बीजेपी एक बड़ा संदेश देने की कोशिश कर रही है. उनकी कोशिश है कि वो दिखा सकें कि यह पार्टी अपने नारे के अनुसार यानि सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास को गंभीरता से लेती है. पिछली बार बीजेपी ने एक दलित को राष्ट्रपति पद के लिए चुना था और इस बार एक आदिवासी को चुना है. जब मंत्रिमंडल का विस्तार हुआ था तो भी मोदी सरकार ने यह दावा किया था कि सामाजिक न्याय का मामला हो या फिर जेंडर की बराबरी का, इस सरकार ने कुछ अलग किया है.”

झारखंड की प्रोफ़ेसर नितिशा खलखो कहती हैं, “बेशक एक हाशिये के समाज से किसी को भारत के प्रथम नागरिक के तौर पर चुने जाना स्वागत योग्य कदम है. लेकिन द्रोपदी मूर्मु के राष्ट्रपति बनने से के बाद आम आदिवासी बीजेपी में ज़्यादा भरोसा करने लगेगा, यह नहीं माना जा सकता है.”

भारत की अगली राष्ट्रपति द्रोपदी मूर्मु बन रही हैं अब इस बात में कोई दो राय नहीं हैं. बीजेपी ने उन्हें इस पद के लिए उम्मीदवार बना कर विपक्ष की एकता के प्रयास को तार-तार कर दिया है. इसके साथ ही विपक्ष के कुछ महत्वाकांक्षी नेताओं को भी यह समझा दिया है कि एक राज्य में राजनीति करना और केन्द्र की सत्ता तक पहुँचना दो बिलकुल अलग बातें हैं.

विपक्ष की तरफ़ से राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार तय करने के मामले में पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी सबसे आगे थीं. लेकिन द्रोपदी मूर्मु के उम्मीदवार बनने के बाद वो ख़ुद ही विपक्ष के उम्मीदवार से नज़रें चुराती नज़र आ रही हैं. झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेता हेमंत सोरेन, शिव सेना के नेता उद्धव ठाकरे और यूपी में समाजवादी पार्टी के नेता ओमप्रकाश राजभर द्रोपदी मूर्मु को समर्थन देने की घोषणा कर चुके हैं.

यह बात साबित हो चुकी है कि द्रोपदी मूर्मु को राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार बनाना बीजेपी का एक मास्टर स्ट्रोक साबित है. लेकिन क्या एक आदिवासी महिला को राष्ट्रपति पद के लिए चुने जाने के फ़ैसले के पीछे उद्देश्य सिर्फ़ विपक्षी एकता की धज्जियाँ उड़ाना रहा होगा? अगर सिर्फ़ यह उद्देश्य नहीं है तो फिर क्या उद्देश्य वो सकता है? 

बीजेपी के बारे में राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि उसने बड़ी चतुराई से भारत के कई ऐसे नायकों को अपना लिया है जिनकी पृष्ठभूमि से बीजेपी या आरएसएस का कोई लेना देना नहीं है. मसलन सरदार वल्लभ भाई पटेल जो कांग्रेस के नेता थे और जवाहर लाल नेहरू के कैबिनेट में गृहमंत्री थे, उन्हें बीजेपी ने एक तरह से कांग्रेस पार्टी से छीन लिया है.

बल्कि यह कहिए कि पटेल के नाम पर वो कांग्रेस को बचाव की मुद्रा में धकेलने में कामयाब रहती है. क्या उसी तरह से द्रोपदी मूर्मु को राष्ट्रपति बना कर बीजेपी भारत के एक ऐसे तबके को अपना बनाने की कोशिश में है जहां परंपरागत रूप से उनका आधार नहीं रहा है.

क्या बीजेपी और आरएसएस आदिवासियों को भी उस स्थिति में लाने में कामयाब रहेगी जो उन्होंने पिछड़े वर्ग के साथ किया है. यह माना जाता है कि 2014 के लोकसभा चुनाव और उसके बाद भारत के पिछड़े मतदाता अपनी जातीय पहचान से पहले अपनी धार्मिक यानि ‘हिन्दू’ पहचान को महत्व देते हैं. 

क्या द्रोपदी मूर्मु का राष्ट्रपति के लिए चुनाव वोट की राजनीति से आगे जाता है और यह बीजेपी और आरएसएस के लिए सैद्धांतिक मसला ज़्यादा है. क्योंकि आरएसएस लंबे समय से भारत के आदिवासी इलाक़ों में हिन्दू पहचान को स्थापित करने में लगी है. वहीं उनके लिए आदिवासी इलाक़ों में धर्मांतरण एक बड़ा मुद्दा रहा है.  

इस मसले पर नीतिशा खलखो कहती हैं कि बेशक बीजेपी द्रोपदी मूर्मु के सहारे यह साबित करने पर तुली है कि सभी आदिवासी हिन्दू हैं. वो आगे कहती हैं, “द्रोपदी मूर्मु बेशक आदिवासी सरनेम इस्तेमाल करती हैं. वो आदिवासियों के लिए आरक्षित सीट से चुनाव भी जीती हैं. लेकिन वो आरएसएस और बीजेपी की विचारधारा को मानती हैं. वो मानती है कि आदिवासी दरअसल पिछड़े हुए हिन्दू हैं. वो भी इस बात में विश्वास करती हैं कि सभी आदिवासी हिन्दू ही हैं.”

वो कहती हैं कि आदिवासी समुदाय मानते हैं कि द्रोपदी मूर्मु एक ‘संताल आदिवासी’ होने से पहले एक भाजपाई हैं. यही उनकी पहचान है. 

द्रोपदी मूर्मु ने अपनी उम्मीदवारी की घोषणा के तुरंत बाद अपने गाँव के मंदिर में जाकर झाड़ू लगाया. उनकी इन तस्वीरों पर काफ़ी चर्चा हुई है. क्या इन दृश्यों के ज़रिए द्रोपदी मूर्मु कोई संदेश देने की कोशिश कर रही थीं. 

नीरजा चौधरी कहती हैं, “ बेशक वो एक संदेश दे रही थीं और बीजेपी का भी एक संदेश था. संदेश यह था कि वो एक बेहद साधारण पृष्ठभूमि की आदिवासी महिला हैं. हालाँकि मेरी नज़र में इससे बचा जाता तो अच्छा रहता.”

प्रोफ़ेसर संजय कुमार भी यह नहीं मानते हैं कि एक आदिवासी को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार वोट बैंक की राजनीति के तहत किया गया है. वो कहते हैं, “2009, 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव के आँकड़े यह बताते हैं कि आदिवासी समुदायों और इलाक़ों में बीजेपी का वोट लगातार बढ़ा है. इसलिए यह मानना कि बीजेपी आदिवासी इलाक़ों में वोट घटने के डर में है तो यह ग़लत समझ होगी. “

लेकिन द्रोपदी मूर्मु का मंदिर में झाड़ू लगाना बीजेपी की किसी सोची समझी रणनीति का हिस्सा है, इसके बारे में वो बहुत निश्चित तौर पर कुछ नहीं कहना चाहते हैं. वो कहते हैं कि अगर द्रोपदी मूर्मु पहले भी मंदिर में या अपने घर में झाड़ू लगाती रही हैं तो फिर इस में राजनीतिक मायने तलाश नहीं करने चाहिएँ. लेकिन अगर यह उन्होंने पहली बार किया है तो फिर इसके राजनीतिक मायने या संदेश ज़रूर है.

नितिशा खलखो कहती हैं कि एक आदिवासी महिला को राष्ट्रपति पद पर बैठाने से बीजेपी यह दावा नहीं कर सकती है कि वह आदिवासियों का भला कर रही है. क्योंकि राष्ट्रपति पद पर पहुँचने के बादी भी एक आदिवासी अपने समुदाय के लिए कुछ भी करने की स्थिति में नहीं होता है.

बीजेपी द्रोपदी मूर्मु के बहाने आदिवासी समुदाय का राजनीतिक इस्तेमाल भी करना चाहती है. लेकिन उन्हें लगता है कि आज आदिवासी इस बात को समझता है.ल 

द्रोपदी मूर्मु का राष्ट्रपति पद पर पहुँचना एक प्रतीकात्मक कदम है. राजनीतिक दल, विश्लेषक और काफ़ी हद तक आम लोग भी यह समझते हैं. लेकिन लोकतंत्र में प्रतीकात्मक कदम भी मायने रखते हैं. इस लिहाज़ से द्रोपदी मूर्मु का इस पद के लिए चुनाव कर बीजेपी ने एक बड़ा संदेश तो दिया है. 

लेकिन इस संदेश में सिर्फ़ मंशा शायद यह नहीं है कि देश के एक हाशिये के समाज को यह अहसास कराया जाए की आप के बारे में चिंता की जा रही है. यानि इस कदम को केवल एक प्रतीकात्मक कदम राजनीतिक दृष्टि से नहीं कहा जा सकता है. 

बेशक बीजेपी इस कदम से आदिवासी समुदाय में राजनीतिक यानि चुनावी प्रभाव के साथ साथ कुछ विचारधारत्मक लक्ष्य भी हासिल करना चाहेगी. 

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