HomeColumnsचुटका परमाणु परियोजना: ना तो उर्जा स्वच्छ है और ना ही नीयत

चुटका परमाणु परियोजना: ना तो उर्जा स्वच्छ है और ना ही नीयत

मध्य प्रदेश के मंडला ज़िले में आदिवासी चुटका परमाणु बिजली परियोजना से विस्थापित होंगे. इस विस्थापन को टालने के लिए आदिवासी कई साल से संघर्ष कर रहे हैं. लेकिन एक दशक पहले अमरीका के साथ होने वाले जिस परमाणु समझौते को लेकर तब की मनमोहन सिंह सरकर गिरने-गिरने को हो गई थी, आज वही परमाणु ऊर्जा खुल्लम-खुल्ला धंधे में उतर आई हैं. दुनियाभर में गरियाई जा रही यह ऊर्जा भारत की सरकार को लुभा रही है. क्या हैं, इसके निहितार्थ? प्रस्तुत है, इसकी पड़ताल करता राज कुमार सिन्हा का यह लेख

केन्द्र सरकार ‘परमाणु ऊर्जा अधिनियम – 1962’  के तहत ‘परमाणु ऊर्जा केन्द्रों’ का विकास और संचालन करती है. इस अधिनियम के तहत फिलहाल घरेलू निजी कम्पनियों की ऊर्जा क्षेत्र में भागीदारी होती है, परन्तु ‘नीति आयोग’ की ओर से गठित सरकारी समिति ने परमाणु ऊर्जा क्षेत्र में विदेशी निवेश पर लगी पाबंदी हटाने की सिफारिश की है. 

समिति ने परमाणु ऊर्जा के उत्पादन में विदेशी कम्पनियों को शामिल करने के लिए अधिनियम के साथ ‘विदेशी निवेश अधिनियमों’ में भी बदलाव की सिफारिश की है. इसका  संकेत 2022 में भारत – अमेरिका के रक्षा और विदेश मंत्रियों  के बीच वाशिंगटन में हुई द्विपक्षीय वार्ता के समय ही मिल गया था.

इस वार्ता में दोनों देशों के बीच आपसी व्यापार 150 अरब डॉलर तक ले जाने पर सहमति बनी, जो उस समय 113 अरब डॉलर का था. इसी बैठक में परमाणु, क्लाइमेट एवं क्लीन एनर्जी,  अंतरिक्ष अभियान और साईबर सुरक्षा के क्षेत्रों में 30 अरब डॉलर (लगभग 2.28 लाख करोड़ रुपए) के निवेश को लेकर बातचीत हुई थी. 

इसमें अमेरिकी कम्पनी ने भारत में 60 हजार करोड़ रुपए की लागत से छह परमाणु रिएक्टर लगाने और भारत के घरेलू उपयोग और निर्यात के लिए लघु मॉडयूलर परमाणु रिएक्टर टेक्नालॉजी  के विकास पर करीब 10 हजार करोड़ रुपए निवेश की इच्छा जाहिर की थी. इसको लेकर उस समय न्यूक्लियर पावर कार्पोरेशन ऑफ इंडिया और वाशिंगटन इलेक्ट्रिक कंपनी के बीच बातचीत अंतिम चरण में थी.

कुछ दिन पहले परमाणु ऊर्जा विभाग ने बताया है कि वेस्टिंग हाउस इलेक्ट्रिक, जीई हिताची, इलेक्ट्रिक डी फ्रांस (ईडीएफ) समेत कई विदेशी कंपनियां देश के परमाणु ऊर्जा प्रोजेक्ट में भाग लेने में दिलचस्पी दिखा रही हैं. बहुराष्ट्रीय कंपनियां प्रौद्योगिक, आपूर्ति या ठेकेदार के रूप में और सेवा प्रदाता के रूप में अलग-अलग निवेश करने की इच्छुक हैं.

जनवरी 2020 में परमाणु ऊर्जा विभाग (डीएई) ने इस संबंध में प्रधानमंत्री कार्यालय से चर्चा की थी. चर्चा के बाद केन्द्रीय कानून मंत्रालय से कानूनी राय मांगी गई थी कि क्या एफडीआई नीति को संशोधित कर परमाणु विद्युत क्षेत्र को निवेश के लिए खोला जा सकता है? 

परमाणु ऊर्जा विभाग का मत था कि परमाणु ऊर्जा अधिनियम किसी भी रूप में परमाणु विद्युत परियोजनाओं में निजी क्षेत्र की भागीदारी को नहीं रोकता है. भारत सरकार ने अगस्त 2022 में विदेशी निवेश नियम और विनिमयन में संशोधन के लिए अधिसूचित किया था.

भारत और अमेरिका के बीच असैन्य परमाणु सहयोग के लिए 2008 के समझौते के तहत परमाणु प्रौद्योगिकी और सामग्रियों का आयात शुरू करने की अनुमति दी गई थी और निजी कम्पनियों को भारतीय परमाणु बाजार में प्रवेश करने का रास्ता खोला गया था. 

यह समझौता अमेरिका के परमाणु ऊर्जा अधिनियम 1954 की धारा 123 के तहत किया गया था जिसे 123 समझौता कहा गया। इस समझौते को लेकर देश के विषय – विशेषज्ञों ने गंभीर सवाल उठाये थे.

अह सवाल ये है कि परमाणु क्षेत्र में निवेश करने वाली कम्पनी भारत क्यों आना चाहती हैं? दुनिया के 192 देशों में से केवल 30 देश परमाणु बिजली संयंत्र चला रहे हैं. इटली ने  चेर्नोबिल की दुर्घटना के बाद ही अपना परमाणु बिजली कार्यक्रम बंद कर दिया था. 

कजाकिस्तान ने 1999 में और लिथुआनिया ने 2009 में अपने एकमात्र रिएक्टर को बंद कर दिया था. परमाणु ऊर्जा संयंत्रों के इतिहास की तीन भीषण दुर्घटनाओं – थ्री माइल आइस लैंड (अमेरिका), चेर्नोबिल (युक्रेन) और फुकुशिमा (जापान) ने बार – बार यह चेताया है कि यह एक ऐसी तकनीक है जिस पर इंसानी नियंत्रण नहीं है. 

फुकुशिमा में आज भी आसपास के 20 किलोमीटर दायरे में 3 करोड़ टन रेडियोएक्टिव कचरा जमा है. इस कचरे को हटाने में जापान सरकार 94 हजार करोड़ खर्च कर चुकी है फिर भी इस विकिरण को पूरी तरह साफ करने में 30 साल लगेगें.

परमाणु ऊर्जा स्वच्छ नहीं है. इसके विकिरण के खतरे सर्वविदित है. परमाणु संयंत्र से निकलने वाले रेडियोधर्मी कचरे का निस्तारण करने की सुरक्षित विधि विज्ञान के पास भी नहीं है. ऐसी दशा में 2.4 लाख वर्ष तक रेडियोधर्मी कचरा जैवविविधता को नुकसान पहुंचाता रहेगा. 

अमेरिका और ज्यादातर पश्चिम यूरोप के देशों में पिछले 35 वर्षो में रिएक्टर नहीं लगाए गए हैं. जर्मनी ने तो अपने यहां अंतिम परमाणु ऊर्जा संयंत्र को भी इस वर्ष बंद कर दिया है.

साठ और सत्तर के दशकों में परमाणु ऊर्जा का बहुत शोर था, लेकिन अस्सी के दशक तक आते-आते स्पष्ट हो चुका था कि परमाणु बिजली काफी महंगी पड़ती है. विकसित पश्चिमी देश परमाणु बिजली परियोजनाओं पर बजट से ज्यादा खर्चे और ज्यादा समय लगने से पुनर्विचार के लिए बाध्य हुए. 

दूसरे, परमाणु बिजली घरों के संभावित खतरे, ऐसे बिजली घरों को बंद किए जाने पर आने वाली भारी लागतों और परमाणु कचरे के भंडारण की समस्या ने भी सोचने के लिए मजबूर किया है.  

दरअसल परमाणु बिजली उद्योग में जबरदस्त मंदी है, इसलिए अमेरिका, फ्रांस और रूस आदि देशों की कम्पनियां भारत में इसके ठेके और आर्डर पाने के लिए बेचैन हैं.  साल 2017 में जारी ‘विश्व परमाणु उद्योग स्थिति रिपोर्ट’ (वर्ल्ड न्यूक्लियर इंडस्ट्री स्टेटस रिपोर्ट) में बताया गया था कि पिछले चार सालों में दुनियाभर में निर्माणाधीन परमाणु रिएक्टरों की संख्या में गिरावट देखी गई है. 

2013 तक वैश्विक स्तर पर 68 रिएक्टरों का निर्माण कार्य चल रहा था, वहीं 2017 में निर्माणाधीन रिएक्टरों की संख्या 53 हो चुकी है.

दूसरी तरफ, भारत में परमाणु परियोजना के विकास के लिए सबसे बड़े बिजली उत्पादक नेशनल थर्मल पावर कार्पोरेशन (एनटीपीसी) और न्यूक्लियर पावर कार्पोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड (एनपीसीआईएल) के बीच संयुक्त उद्यम अणुशक्ति वि़द्युत निगम लिमिटेड बनाकर 1 मई 2023 को एक समझौता किया गया. 

शुरुआत में संयुक्त उद्यम कंपनी दो प्रेशराइज्ड हेवी वाटर रिएक्टर (दाबित भारी जल रिएक्टर) परियोजनाओ का विकास करेगी- चुटका परमाणु परियोजना मंडला, मध्यप्रदेश (2×700) और माही बांसवाडा, राजस्थान परमाणु परियोजना (4×700) जिसे “फ्लीट मोड” की तरह बनाया जाएगा. 

रिपोर्ट के अनुसार चुटका परमाणु संयंत्र की अनुमानित लागत 25 हजार करोड़ रुपए और माही परमाणु संयंत्र की 50 हजार करोड़ रुपए होगी.

भारत के सबसे बड़े बिजली उत्पादक एनटीपीसी का लक्ष्य 2032 तक 2000 मेगावाट, 2035 तक 4200 मेगावाट और 2050 तक 20 हजार मेगावाट परमाणु ऊर्जा उत्पादन शुरू करना है. 

एनटीपीसी अभी तक ताप विद्युत और सौर ऊर्जा उत्पादन क्षेत्र में ही काम कर रहा था, परमाणु ऊर्जा क्षेत्र में यह उसका पहला प्रयास है. देश के कुल बिजली आपूर्ति में 1964 से गठित परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम की हिस्सेदारी अब तक मात्र 6780 मेगावाट है, जो 2 प्रतिशत है, जबकि पिछले एक दशक में नवीकरणीय ऊर्जा की हिस्सेदारी 1 लाख 19 हजार मेगावाट है.

14 राज्यों में 39 हजार मेगावाट क्षमता वाले 56 सोलर पार्क मंजूर किए गए हैं. 17 पार्कों में 10 हजार मेगावाट से ज्यादा की परियोजनाएं पहले ही शुरू हो चुकी है. इस संदर्भ में ग्लोबल एनर्जी मॉनिटर रिपोर्ट के अनुसार अक्षय ऊर्जा का ज्यादा-से-ज्यादा उपयोग न सिर्फ पर्यावरण, बल्कि आर्थिक रूप से लाभ का सौदा है.  

रिपोर्ट में कहा गया है कि  भारत अपनी योजना के अनुसार 2025 तक अपने सौर और पवन ऊर्जा क्षमता में 76 हजार मेगावाट का इजाफा करता है तो उसे हर साल 1950 करोड़ डॉलर का फायदा होगा। परमाणु संयंत्र से एक मेगावाट बिजली उत्पादन की लागत लगभग 18 करोड़ रुपए आएगी, जबकि सौर ऊर्जा से लगभग 4 करोड़ रुपए आता है.

केन्द्रीय ऊर्जा मंत्री आरके सिंह ने अपने एक आलेख में उल्लेख किया है कि कार्बन मुक्त दुनिया के लिए 110 सदस्यों और हस्ताक्षरकर्ता देशों के साथ अन्तरराष्ट्रीय सौर गठबंधन इस बदलाव के लिए प्रयासरत है. 

नई प्रौद्योगिकियां बाजार में आएंगी, जिनमें सौर – प्लस बैटरी का प्रतिस्पर्धी होना शामिल है. आपूर्ति श्रृखंला के साथ नई सौर फोटोवोल्टेक (पीवी) विनिर्माण सुविधाएं 2030 तक अरबों रुपए के निवेश को आकर्षित कर सकती हैं. 

उन्होने जोर देकर कहा है कि सौर ऊर्जा के अलावा कोई अन्य उपयुक्त तकनीक नहीं है, जो घरों और समुदायों को ऊर्जा मामले में आत्मनिर्भर बना सकता है. परमाणु जैसी घातक और महंगी ऊर्जा परियोजना की जगह सौर एवं पवन ऊर्जा में निवेश करना ही सही निर्णय होगा। नीति निर्धारकों को इस दिशा में विचार करना वर्तमान समय की मांग है. 

 राजकुमार सिन्हा बरगी बांध विस्थापित संघ के वरिष्ठ कार्यकर्त्ता हैं.

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