HomeColumnsतेलंगाना भूमि विवाद: आदिवासी के ज़िंदा रहने (Survival)की लड़ाई को समझना होगा

तेलंगाना भूमि विवाद: आदिवासी के ज़िंदा रहने (Survival)की लड़ाई को समझना होगा

क़ानून की नज़र में इन आदिवासियों को अतिक्रमणकारी के तौर पर देखा जाएगा. लेकिन जब तक इस नज़रिए से इन आदिवासियों को देखा जाएगा, समस्या का समाधान नहीं निकल सकता है. क्योंकि यहाँ जो आदिवासी छत्तीसगढ़ से आ कर बसे हैं वे चाहे ज़मीन की तलाश में आए हैं या फिर हिंसा से बचने के लिए, दोनों ही सूरत में उनके सामने ख़ुद को ज़िंदा रखने का सवाल है.

तेलंगाना में गुट्टी कोया आदिवासियों और वन विभाग के अधिकारियों के बीच राज्य के गठन के समय यानि 2014 से ही संघर्ष होता रहा है. यहाँ इन आदिवासियों पर जंगल काटने और अतिक्रमण का आरोप लगाया जाता है. 

आदिवासियों और वन विभाग के बीच संघर्ष 22 नवंबर को बेहद ख़तरनाक मोड़ पर पहुँच गया. इस दिन आदिवासियों के साथ झगड़े में सी श्रीनिवास राव की मौत हो गई. यह झगड़ा भद्रादी कोठगुडम के येर्राबोदु नाम की एक आदिवासी बस्ती में हुआ था. 

यह झगड़े के बारे में बताया जाता है कि वन विभाग के अधिकारियों और कर्मचारियों ने पहले आदिवासियों को पोडु भूमि पर खेती (shift cultivation) करने से रोक दिया था. अब वन विभाग के कर्मचारी आदिवासियों को जानवर चराने से भी रोक रहे थे.

पोडु भूमि विवाद आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में काफ़ी पुराना है. इस विवाद के बारे में कहा जाता है कि साल 2005-6 में छत्तीसगढ़ में आदिवासी माओवादियों, सलवा जुडुम और सुरक्षा बलों के बीच संघर्ष में फँस गए. उस समय अपनी जान बचाने के लिए बड़ी संख्या में आदिवासी परिवारों ने आंध्र प्रदेश के जंगलों में शरण ली थी. 

वैसे छत्तीसगढ़ से आंध्र प्रदेश के जंगल में आदिवासियों का पलायन साल 1990 से ही बताया जाता है. लेकिन जब छत्तीसगढ़ के बस्तर में सरकार ने आदिवासी नौजवानों को ले कर सलवा जुडुम बनाया तब यह पलायन बहुत ज़्यादा हो गया. 

छत्तीसगढ़ के बस्तर से आए आदिवासियों ने आंध्र प्रदेश के जंगलों में अपने गाँव बसाने शुरू किये. जैसा हमने शुरू में कहा कि आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में छत्तीसगढ़ के बस्तर से आ कर बसे आदिवासियों और वन विभाग के बीच झगड़ा लगातार चल रहा है.

यह झगड़ा हर साल बरसात की शुरूआतें के साथ ही बढ़ जाता है क्योंकि उस समय आदिवासी अपनी पोडु भूमि पर धान लगाना चाहता है और वन विभाग वृक्षारोपण करता है. 

इस पूरे विवाद के दो पक्ष बनते हैं, पहला आदिवासी को जो कहता है कि वह आंध्र प्रदेश और तेलंगाना के जंगल में ख़ुद को ज़िंदा रखने (Survival) की लड़ाई लड़ रहा है. इस विवाद का दूसरा पक्ष है वन विभाग या सरकार, इनका कहना है कि बस्तर से आए आदिवासियों ने ग़ैर क़ानूनी तरीक़े से जंगल की ज़मीन क़ब्ज़ा कर ली है. 

आईए इस विवाद को समझने के लिए आपको छत्तीसगढ़ के बस्तर की एक कहानी बताते हैं. यह कहानी एक गाँव की है जो पिछले महीने बस्तर के आदिवासियों से मिलते हुए मैंने सुनी थी.

नक़्शे पर नहीं मिलेगा लेकिन ज़मीन पर गुड़ियापदर है

गुड़ियापदर, छत्तीसगढ़ के बस्तर क्षेत्र में कांगेर घाटी नैशनल पार्क से सटे घने जंगल में बसा एक छोटा सा गाँव है. गुड़ियापदर 29 घरों का एक छोटा सा गाँव है जो कि जगदलपुर ब्लॉक के चितलगुर पंचायत में आता है. इस गाँव में रहने वाले सभी परिवार कोया (गोंड) जनजाति के हैं . 

अगर आप इस गाँव को सरकार के नक़्शे पर ढूँढेगे तो शायद आपको इस गाँव का वजूद ही ना मिले. क्योंकि इस गाँव को अभी राजस्व गाँव (Revenue Village) नहीं माना गया है. 

लेकिन इस गाँव से जुड़ी कुछ ख़बरें आपको ज़रूर मिल जाएँगी जो स्थानीय अख़बारों या वेबसाइट पर छपी हैं. ये ख़बरें इसलिए छपी थीं कि छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने इसी साल मई महीने में इस गाँव के लोगों को वन अधिकार क़ानून, 2006 के तहत इस गाँव को सामुदायिक वन अधिकार के दस्तावेज़ सौंपे. 

छत्तीसगढ़ का यह गाँव सरकार के रिकॉर्ड या नक़्शे में बेशक ना मिले लेकिन बस्तर में पर्यटन को बढ़ावा देने में जुटे कुछ लोगों ने इस गाँव को टूरिस्ट मैप पर ज़रूर ला दिया है. 

यहाँ के दो नौजवानों शंकर बारसे और विजय बारसे से हमारी मुलाक़ात बस्तर के मशहूर नानगुर आदिवासी हाट में हुई. यहाँ हुई बातचीत में उन्होंने हमें अपने गाँव के बारे में बताया और अपने गाँव आने का न्यौता भी दिया.

अगले ही दिन हम उनके गाँव पहुँचे और यहाँ पर उनके अलावा उनके गाँव के मुखिया कोसा बारसे से लंबी बातचीत हुई.  इस बातचीत में इस गाँव के बसने की कहानी के साथ साथ यह भी अहसास हुआ कि अगर सरकार और प्रशासन किसी मामले को संवेदनशील तरीक़े से सुलझाने की कोशिश करे तो परिणाम बेहतर हो सकते हैं. 

यहाँ के लोगों ने हमें बातचीत में बताया कि अब वन विभाग के आला अधिकारी इस गाँव के लोगों के साथ तालमेल बैठा कर आगे बढ़ रहे हैं. क्योंकि वन विभाग का रवैया अच्छा है इसलिए आदिवासी भी वन विभाग की बात सुनते हैं.

इस गाँव के यहां बस जाने की इस कहानी से आदिवासी जीवनशैली और दर्शन (lifestyle and Philosophy) को समझने में मदद मिलेगी.

इसके साथ ही वन विभाग, सुरक्षा बलों या फिर सरकार के साथ टकराव के कारण और इस टकराव को टालने या इससे बचने के संभावित उपाय भी समझ में आ सकते हैं. 

गाँव बसाने के लिए आदिवासी जान पर खेलते हैं

गुड़ियापदर के मुखिया कोसा बारसे बताते हैं कि उनका गाँव सुकमा ज़िले में है. लेकिन वहाँ पर धीरे धीरे परिवार बढ़ गए और जीवन यापन के लिए पर्याप्त ज़मीन वहाँ पर नहीं बची है. 

वो कहते हैं, “हमने मेहनत मज़दूरी करनी शुरू की, कुली का काम किया, लेकिन गुज़ारा होना मुश्किल होता गया. यह साफ़ हो गया था कि जब तक ज़मीन नहीं मिलेगी तब तक ज़िंदा रहना मुश्किल रहेगा.”

उन्होंने हमें बताया कि कि एक बार जगदलपुर आए तो आज जहां उनका गाँव हैं वहाँ की चितलगुर पंचायत में कुछ लोगों ने उन्हें बताया कि वहाँ के जंगल में एक जगह है जहां पानी भी है और खूब कांदे और फल भी हैं. 

यह ख़बर मिलने के बाद वे जंगल के उस इलाक़े को देखने के लिए गए. यह इलाक़ा उनको पहली नज़र में ही पसंद आया था. फिर भी वो जंगल के इस इलाक़े में कई दिन रहे.

उसके बाद उन्होंने अपने गाँव जा कर लोगों से बातचीत की और उन्हें ज़मीन के बारे में बताया. गाँव में उनके परिवार सहित क़रीब 29 परिवार उनके साथ जंगल के उस हिस्से में बसने को तैयार हो गए.

इन 29 परिवारों ने जंगल के एक हिस्से को साफ़ कर अपने घर बनाए और दूसरे हिस्से में खेती की ज़मीन तैयार की थी. लेकिन यह सब कुछ बिलकुल भी आसान नहीं था. 

कोसा बारसे हमें बताते हैं, “जब हमने यहाँ बसने के बारे में इच्छा जताई और यहाँ की पंचायत के बुजुर्ग और मुखिया लोगों से बातचीत की तो उन्होंने कहा कि तुम लड़ नहीं पाओगे.”

तब उन्होंने जवाब देते हुए कहा था, “लेकिन हमने उन्हें कहा कि हम ज़मीन के बिना तो वैसे भी जी नहीं सकते हैं, हम ज़मीन के लिए मरते दम तक लड़ते रहेंगे.” 

MBB से बात करते हुए वो आगे कहते हैं, “हमारे गाँव के गुनिया (ओझा) ने बताया कि अगर वो गाँव देवी के नाम के चावल ले कर जंगल में सोएगा तो कोई भी ताक़त उसे नुक़सान नहीं पहुँचा सकेगी. तब मैं चावल ले कर कई रात जंगल में अकेला ही रहा था.”

वो बताते हैं कि जब उन्होंने यहाँ पर गाँव बसाना शुरू कर दिया तो तीसरे दिन वन विभाग के बीट वाले पहुँच गए और हम सब को पकड़ लिया. उन्हें जेल भेज दिया गया था. तीन-चार दिन बाद उन्हें ज़मानत मिल गई.

जैसे ही ज़मानत मिली वे फिर जंगल में उसी जगह पर पहुँच गए. वो क़हते हैं, “ जब हम जेल से छूट कर फिर से वहीं पर लौट आए तो दो दिन बाद जंगल में वन विभाग के लोग पहुँच गए. उन्होंने हमें चेतावनी दी कि हम जंगल छोड़ दें नहीं तो हमारी पूरी ज़िंदगी जेल में ही बीतेगी. मैंने उन्हें कहा है कि मैं यहाँ जान देने आया हूँ.”

वे बताते हैं कि उनके लोगों और वन विभाग के बीच यह संघर्ष चलता रहा. इस दौरान कई बार 29 परिवार के ये आदिवासी कई बार जेल गए. वो कहते हैं कि लगातार 10 साल तक वन विभाग आदिवासियों को पकड़ कर जेल में डालता रहा. 

कई बार आदिवासियों के झोंपड़े जला दिये जाते थे. लेकिन ये आदिवासी अपने इरादों के पक्के थे. जब हमने उनसे पूछा कि वो जंगल में ऐसे कैसे कहीं भी गाँव बसा सकते हैं.

वो पलट कर हम से ही सवाल करते हैं, “अगर आदिवासी जंगल नहीं बसेगा तो कहां बसेगा, क्या आप हमें शहर में जगह देंगे. आदिवासी जंगल में सदियों से रहता आया है. हमारी परंपरा तो यही है कि जब परिवार बढ़ जाते हैं तो हम जंगल में कोई अच्छी जगह देख कर वहाँ बैठ जाते हैं.”

गुड़ियापदर गाँव के आदिवासियों और वन विभाग के बीच बरसों तक संघर्ष चलता रहा. अंतत: प्रशासन ने यह मान लिया है कि इन आदिवासियों को यहाँ से हटाया नहीं जा सकता है.

महाराष्ट्र और ओडिशा के अनुभव

इसी साल हमारी टीम को महाराष्ट्र और ओडिशा के आदिवासियों से भी मिलने का मौक़ा मिला था. महाराष्ट्र में हम पालघर और ठाणे ज़िले की कई तहसीलों में आदिवासियों से मिल कर आए.

इसी दौरान हमें तानसा नेशनल पार्क में बसे कुछ वारली आदिवासियों से भी मिलने का मौक़ा मिला. यहाँ के आदिवासियों के गाँव घने जंगल के भीतर बसे हैं. यहाँ पर अब प्रशासन की तरफ़ से छोटी मोटी सुविधाएँ दे दी गई हैं. 

लेकिन वन विभाग अभी भी गाँवों में सड़क नहीं बनाने देता है. इसलिए गाँव के लोगों ने श्रमदान से कई किलोमीटर की पक्की सड़क बनाने का काम यहाँ पर किया था. लेकिन इन गाँवों की असली कहानी ये है कि यहाँ पर आदिवासी पालघर और ठाणे के अलग अलग इलाक़ों से आकर बसे हैं.

यहाँ बसे आदिवासी गाँवों और वन विभाग के बीच काफ़ी लंबा संघर्ष चला. इस संघर्ष में सुरक्षा बलों की तरफ़ से गोली भी चलाई गई थी. लेकिन आदिवासी पीछे नहीं हटे. 

ओडिशा में हमें मल्कानगिरी के कालीमेला ब्लॉक के की गाँवों में जाने का मौक़ा मिला. ओडिशा का यह इलाक़ा छत्तीसगढ़ से सटा है और यहाँ पर माओवाद का असर भी है. यहाँ पर कोया आदिवासियों के कई गाँवों में हमें जाने का मौक़ा मिला.

यहाँ के आदिवासियों ने बातचीत में हमें बताया कि आदिवासी गाँवों में जब मिट्टी के कच्चे घर ढह जाते हैं तो ज़रूरी नहीं है कि नया घर उसी जगह पर बनाया जाए. उसकी जगह पर कोई बेहतर ज़मीन तलाश की जाती है और वहाँ पर घर बना लिया जाता है.

इसके लिए गाँव के मुखिया और दूसरे बुजुर्गों से सलाह ले कर ही काम किया जाता है. 

क़ानून बनाम ज़िंदा रहने की लड़ाई

आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में पोडु भूमि और अपने गाँवों को बचाने कि लड़ाई लड़ने वाले आदिवासी भारत के नागरिक तो हैं, लेकिन उनके पास बताने को कोई जगह नहीं है जिसे वो अपना घर कह सकते हैं. 

छत्तीसगढ़ से तेलंगाना और आंध्र प्रदेश के जंगलों में आकर बस गए आदिवासियों में से अधिकतर वे आदिवासी हैं जो वहाँ हिंसा से मजबूर हो कर भागे थे. लेकिन यह बात भी सही हो सकती है कि कुछ आदिवासी परिवार यहां पर खेती लायक़ ज़मीन की तलाश में भी आ कर बस गए हैं.क्

लेकिन इन दोनों ही सूरत में क़ानून की नज़र में इन आदिवासियों को अतिक्रमणकारी के तौर पर देखा जाएगा. लेकिन जब तक इस नज़रिए से इन आदिवासियों को देखा जाएगा, समस्या का समाधान नहीं निकल सकता है.

क्योंकि यहाँ जो आदिवासी छत्तीसगढ़ से आ कर बसे हैं वे चाहे ज़मीन की तलाश में आए हैं या फिर हिंसा से बचने के लिए, दोनों ही सूरत में उनके सामने ख़ुद को ज़िंदा रखने का सवाल है.

इसलिए ज़मीन छोड़ कर छत्तीसगढ़ के बस्तर लौट जाने का विकल्प तो उसके सामने है ही नहीं. इसलिए सरकार और वन विभाग को इस पूरे मसले को एक मानवीय दृष्टिकोण से देखना होगा.

उसे यह समझना होगा कि यहाँ बसे आदिवासी मुनाफ़े के लिए ज़मीन क़ब्ज़ा नहीं कर रहे हैं. यह उनके लिए ज़िंदा रहने की लड़ाई है. 

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