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विश्व आदिवासी दिवस: मुख्यधारा में आदिवासी के लिए दरवाज़ा तो क्या खिड़की तक नहीं खुली है

वो आदिवासी को अपनी तरफ़ बुलाता है क्योंकि उसे देश के विकास के लिए आदिवासी के खेतों और जंगल में खाने खोदनी हैं. उस देश के विकास के लिए जिसमें आदिवासी को विकास के सबसे निचले पायदान पर ही रहना होगा. मुख्यधारा में यही उसका स्थान होगा.

9 अगस्त यानि विश्व आदिवासी दिवस का थीम है, “ Leaving no one behind: Indigenous people and the call for a new social contract.

इस थीम के आस-पास रह कर ही कुछ बातें की जाएं, आदिवासी भारत में अपने अनुभव के आधार पर जो मुझे समझ में आया वही कहने की कोशिश होगी.

विश्व आदिवासी दिवस की थीम मोटे तौर पर यह कहती है कि हमें ध्यान रखना है कि कोई पीछे ना छूट जाए. आदिवासी भी साथ-साथ चले समाज ये ज़िम्मेदारी लें.

भारत के संदर्भ में समझें तो हमारे देश में आमतौर पर आदिवासियों को मुख्यधारा में लाने की बात होती है. 

नीति निर्माताओं से लेकर आम आदमी के मुँह से सुनी इन बातों को यूँ तो पिछले कई साल से ज़मीन पर तोलने की कोशिश की है.

लेकिन तीन महीने पहले हमारी टीम ओडिशा गई तो मैं भी भारत का एक एपिसोड अलग से इस मसले पर तैयार करने का फ़ैसला किया. 

भारत में 700 से ज़्यादा आदिवासी समुदाय हैं

इस सिलसिले में हमने बालेश्वर और मयूरभंज ज़िले के आदिवासी नौजवानों से बात की और उनसे कुछ सवाल पूछे थे.

एक सवाल जो हमने इन सभी नौजवानों से पूछा वो था, “ जब आप स्कूल, कॉलेज या फिर काम करने के सिलसिले में ग़ैर आदिवासी लोगों के बीच होते हैं तो कितना सामान्य महसूस करते हैं?” 

इसके अलावा हमने एक और सवाल पूछा था, “ जब आप ग़ैर आदिवासियों के बीच होते हैं, मसलन स्कूल, कॉलेज या फिर किसी बाज़ार में तो उन लोगों का आमतौर पर आपके साथ किस तरह का व्यवहार होता है?”

तीसरा सवाल हमने यहाँ के नौजवानों से पूछा था, “ आदिवासी जीवनशैली और समाज को ग़ैर आदिवासी कितना समझते हैं, आमतौर पर आदिवासियों से किस तरह के सवाल पूछे जाते हैं या उनके बारे में किस तरह की धारणा रहती है?”

हमने कम से 100 आदिवासी नौजवानों से बातचीत की होगी. हालाँकि यह कोई सर्वे नहीं था. बस इतना समझने की कोशिश थी कि जो रात-दिन आदिवासी को मुख्यधारा में लाने की बात करते हैं, जब आदिवासी वहाँ आता है तो उसका नज़रिया क्या होता है. 

छत्तीसगढ़ के गोंड आदिवासी

क्या मुख्यधारा में पहले से ही मौजूद लोग आदिवासी का स्वागत करते हैं, या उसे लगने लगता है कि वो भीड़ बढ़ा रहे हैं?

क्या मुख्यधारा को यह नहीं लगता है कि आदिवासी उनके बीच आएगा तो आदिवासी के पास मुख्यधारा में योगदान देने के लिए कुछ नहीं है?

मुख्यधारा कहे जाने वाले लोग अपने आप-पास मौजूद आदिवासी को बोझ की तरह नहीं देखने लगते हैं जो उनके संसाधनों में हिस्सेदारी चाहता है?

इन सवालों के जवाब को सिलसिलेवार देख लेते हैं. एक जवाब मिला कि जब आदिवासी नौजवान स्कूल, कॉलेज या ऑफ़िस जाता है तो आसानी से बाक़ी लोगों से घुल मिल नहीं पाता है.

कई बार काफ़ी समय तक वो अपनी आदिवासी पहचान को छुपा भी लेता है. 

इसकी एक वजह है भाषा-बोली या उच्चारण, आदिवासी नौजवानों को लगता है कि उनके बोलने के अंदाज़ का मज़ाक़ बनाया जाएगा.

दूसरी जो सबसे बड़ी वजह कि जैसे ही ये नौजवान दूसरों को बताते हैं कि वो आदिवासी हैं, उनसे अजीबोग़रीब सवाल पूछे जाते हैं.

नागालैंड की कोनियाक ट्राइब

एक सवाल जो आमतौर आदिवासियों से पूछा जाता है, आपकी सोसायटी में तो सेक्स फ़्री है ना? आमतौर पर मुख्य धारा कहे जाने वाले समाज को आदिवासी सामाजिक ताने-बाने की या तो बिलकुल जानकारी नहीं होती है या बहुत सतही जानकारी होती है.

उनकी सामाजिक संस्थाओं और धार्मिक विश्वासों के बारे में कई तरह की ग़लत धारणाएँ लिए मुख्यधारा दौड़ती रहती है. 

बीच-बीच में दौड़ती मुख्यधारा पलट कर आदिवासियों से भी कहती है, “चलना है तो तुम भी चलो, कब से कह रहे हैं” और फिर सरपट दौड़ने लगती है, बिना ये देखे की आदिवासी अभी भी वहीं पीछे छूट गया है. 

मेरी नज़र में भारत की मुख्यधारा समुदायों, जातियों और वर्गों का एक ऐसा गठबंधन है, जिसमें आदिवासियों और कमज़ोर तबकों के लिए दरवाज़ा तो छोड़िए कोई खिड़की तक नहीं खुलती है. 

समाज का व्यवहार या उसकी नैतिकता की भर्त्सना मैं नहीं कर रहा हूँ पर वो कह रहा हूँ जो मुझे समझ में आया.

आदिवासियों को ग़ैर आदिवासी समुदाय किस नज़र से देखते हैं और आदिवासियों को मुख्यधारा में लाने के लिए कितनी ज़िम्मेदारी लेने को तैयार है, जब आप इस सवाल का जवाब तलाशते हैं तो घोर निराशा में पड़ जाते हैं.

गुजरात के कोंकणी आदिवासी

भारत में आदिवासियों को मुख्यधारा में लाने के लिए सरकारों को संवैधानिक ज़िम्मेदारी दी गई है. मसलन आदिवासियों की पहचान यानि भाषा, संस्कृति, जीवन शैली और आस्थाओं को बचाने के लिए सरकार को विशेष प्रयास करना है. संविधान आदिवासी समुदायों को इस सिलसिले में कई तरह के अधिकार भी देता है.

सरकार राज्यों में आदिवासी शोध संस्थानों के ज़रिए आदिवासी पहचान को रिकॉर्ड करने का दावा करती है. लेकिन सच्चाई यही है कि ओडिशा या फिर एक-दो और राज्यों को छोड़ दें तो ट्राइबल रिसर्च इंस्टिट्यूट (Tribal Research Institute ) में नाम मात्र का काम भी नहीं हो रहा है.

संविधान की 8 वीं अनूसूचि में अभी तक संथाल और बोड़ो दो ही आदिवासी भाषा शामिल की गई हैं. आदिवासियों को संविधान और कई क़ानूनों के तहत उनके संसाधनों यानि जल, जंगल और ज़मीन की रक्षा का अधिकार मिलता है.

लेकिन आदिवासी जब भी अपने इस अधिकार को हासिल करने की कोशिश करता है तो ख़ुद को जेल में पाता है. 

आदिवासी मसलों पर संसद में अलग अलग मंत्रालयों के जवाब हास्यास्पद होते हैं. दरअसल जो मुख्यधारा का गठबंधन है वो आदिवासी को साथ ले कर चलने का कोई इरादा नहीं रखता है.

वो आदिवासी को अपनी तरफ़ बुलाता है क्योंकि उसे देश के विकास के लिए आदिवासी के खेतों और जंगल में खाने खोदनी हैं. उस देश के विकास के लिए जिसमें आदिवासी को विकास के सबसे निचले पायदान पर ही रहना होगा. मुख्यधारा में यही उसका स्थान होगा. 

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