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आदिम जनजाति (PVTG) ‘कोदु’ ने अपनी भाषा बचाई, ख़ुद को बचा पाएगा ?

हमें अराकु घाटी के कोदु आदिवासियों से मिलने का मौक़ा मिला. हमने इन आदिवासियों के साथ कई दिन बिताए. इस दौरान उनकी ज़िंदगी की ख़ूबसूरती और संघर्ष को थोड़ा समझने का मौक़ा भी मिला.

आंध्र प्रदेश के (Araku) की खूबसूरत पहाड़ी ढलानों पर बसे कोदु आदिवासियों को कौंध भी कहा जाता है. पहाड़ी जंगल में बसे इन आदिवासी समुदायों के गाँव साफ़ सुथरे मिलते हैं. दरअसल इन गाँवों को छोटी बस्तियाँ कहना सही रहेगा. इनमें से कुछ गाँव सड़कों से जुड़े हैं. लेकिन हमने यह भी पाया कि कई गाँवों तक सड़क नहीं पहुँचती है.

इन गाँवों के लोगों को कहीं जाना होता है तो आमतौर पर पैदल ही निकल पड़ते हैं. उसके अलावा मोटर साइकिल या फिर टुकटुक (Three Wheeler) का इस्तेमाल करते हैं. सार्वजनिक ट्रांसपोर्ट इन बस्तियों तक नहीं पहुंचता है.

कोदु आदिवासियों की एक बस्ती

कोदु आदिवासियों के पास ज़मीन की कमी नहीं है. पहाड़ी ढलानों पर इनके खेत दूर तक फैले होते हैं. लेकिन ये आदिवासी आज भी परंपरागत बीजों का इस्तेमाल करते हैं. खेती की तकनीक आज भी पुरातन ही है. ज़्यादातर आदिवासी परिवार झूम खेती (Podu) ही करते हैं.

इसलिए इन खेतों में फसल का उत्पादन बहुत ज़्यादा नहीं होता है. लेकिन परिवार के खाने भर का इंतज़ाम ज़रूर हो जाता है. अब यहाँ पर ज़्यादातर लोग धान की फसल लगाते हैं. लेकिन उसके अलावा रागी भी यहाँ पर अनिवार्य तौर पर पैदा की जाती है.

घर के पास के खेतों में कई तरह की सब्ज़ियाँ भी उगाई जाती हैं.

एक खेत में काम के बाद सुस्ता रहे आदिवासी किसान

विशाखापट्टनम ज़िले के अराकु क्षेत्र में फूल खूब मिलते हैं. यहाँ के जंगल में ही क़रीब 651 क़िस्म के फूल पाये जाते हैं. इसके अलावा लोग अब अपने खेतों में भी फूल उगाते हैं. इन फूलों को स्थानीय बाज़ार में बेचा जाता है. कई बार स्थानीय बाज़ारों में विशाखापट्टनम जैसे बड़े शहरों से भी फूल ख़रीदने के लिए व्यापारी पहुँचते हैं.

अराकु घाटी में कम से कम फूलों की 651 क़िस्म बताई जाती हैं

कोदु आदिवासियों की भाषा कुई नाम से जानी जाती है. यह भाषा द्रविड़ परिवार की बताई जाती है. अराकु की कोदू बस्तियों में हमने यह पाया कि ये आदिवासी अपनी मातृभाषा में ही बातचीत करते हैं. इन बस्तियों में जो स्कूल हैं उनमें तेलगू में पढ़ाई होती है.

लेकिन स्कूलों में शिक्षा मित्र नियुक्त किए गए हैं जो बच्चों को उनकी भाषा में पढ़ने में मदद करते हैं. यह व्यवस्था कक्षा एक से तीन तक के बच्चों के लिए की गई है. अन्य आदिवासी भाषाओं की तुलना में इस भाषा पर ग़ैर आदिवासी भाषाओं का असर कम देखा जाता है.

मसलन हमने कोंडा दोरा आदिवासियों की भाषा पर उड़िया भाषा का असर देखा था. हालाँकि जब ये आदिवासी बाज़ार जाते हैं तो तेलगू या उड़िया में भी बात कर लतें हैं. लेकिन अपने गाँव या परिवार में अपनी ही भाषा में बात करते हैं.

स्थानीय हाट में एक कोदु महिला

कोदू आदिवासी समुदाय आज की तारीख़ में भी एक ऐसा समुदाय नज़र आता है जो काफ़ी हद तक अपनी ज़रूरत की चीजों के लिए दूसरे समाजों पर कम निर्भर है. उनके लिए बाहर कहीं निकलने का मतलब सप्ताह में एक दिन साप्ताहिक हाट में जाना होता है.

यहाँ पर ये आदिवासी अपने खेतों में उगाई फसल के अलावा जंगल से जमा किये गए उत्पाद बेचते हैं. इन बाज़ारों से अपनी ज़रूरत की चीजें ख़रीद कर ये लोग अपनी बस्तियों को लौट जाते हैं.

साप्ताहिक हाट में व्यापारियों की दुकानों पर आदिवासी को एक दिन काम भी मिल जाता है

कोदु आदिवासी अभी भी काफ़ी हद तक अपनी ही दुनिया में रहता है. उसके आस-पास का परिवेश बेहद खूबसूरत है. लेकिन उसकी ज़िंदगी दूर जितनी खूबसूरत दिखाई देती है उतनी हसीन नहीं है. इस आदिवासी समुदाय की बस्तियों में हमें बड़ी संख्या में कुपोषित नज़र आए.

इसके अलावा कई बस्तियों में पता चला कि वहाँ पर मलेरिया से लोग पीड़ित हैं. यहाँ की आशा नर्स ने बताया कि मलेरिया की जाँच के लिए किट दी गई है. लेकिन दवाइयाँ ख़त्म हो गई हैं. ज़्यादातर बस्तियों में पीने के साफ़ पानी का इंतज़ाम नहीं हो पाया है.

इसलिए लोगों और ख़ासकर बच्चों में पेट की बीमारी बहुत ज़्यादा होती है.

गाँव के पास के जंगल में साग की तलाश में आई दो कोदु लड़कियों से मुलाक़ात हुई थी

देश के कुल बॉक्साइट का एक चौथाई से ज़्यादा भंडार आंध्र प्रदेश में है. इस भंडार को खोदने के लिए सरकार बेताब है. इसका मतलब ये है कि इन आदिवासियों पर विस्थापन की तलवार लटकी है और तब तक लटकी रहेगी जब तक कि ये भंडार उद्योग तक नहीं पहुँचते हैं.

इन आदिवासियों ने संगठित हो कर अभी तक अपनी भाषा और ज़मीन दोनों को बचा कर रखा है इसके लिए उन्होंने लंबा संघर्ष किया है.

एक प्रदर्शन में शामिल कोदु औरतें

लेकिन अराकु से बार-बार इस तरह की ख़बर मिलती है कि वहाँ पर माइनिंग के लिए तरह तरह से आदिवासियों पर दबाव बनाया जा रहा है. आदिवासी लड़ते हैं और सरकार कुछ समय के लिए पीछे हट जाती है.

जो व्यवस्था कोदु आदिवासियों को पीने का साफ़ पानी, सड़क और दवाई नहीं दे पाई वो उनके पहाड़ों के बदले एक आरामदायक और खूबसूरत ज़िंदगी का वादा करती है.

इन हालतों में कोदु आदिवासी कितने दिन ख़ुद को बचा कर रख पाएगा, यह सवाल मन को दुखी कर देता है.

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