HomeGround Reportआदिवासी भाषाओं में पढ़ाई, ठोस नीतिगत फ़ैसलों की ज़रूरत

आदिवासी भाषाओं में पढ़ाई, ठोस नीतिगत फ़ैसलों की ज़रूरत

बेशक इस बात पर ज़ोर देना ठीक है कि आदिवासी भाषाओं में पढ़ाई लिखाई होनी चाहिए. लेकिन देश के सभी बच्चों को एक से ज़्यादा भाषा सीखनी ही पड़ती है. इसलिए आदिवासी बच्चों को भी जितना हो सके दूसरी भाषाएँ सीखने का मौक़ा दिया जाना चाहिए.आदिवासी भाषाओं में पढ़ाई लिखाई कराने के लिए जिस तरह की ठोस नीतिगत पहल की ज़रूरत है वो दिखाई नहीं देती है. आदिवासी भाषाओं के संरक्षण और विकास के अलावा अगर आदिवासी भारत में स्कूल ड्रॉप आउट की समस्या से निपटना है तो इस मामले में नीतिगत फ़ैसलों की ज़रूरत है.

केरल के इडुक्की ज़िले में मुत्तुवन आदिवासी समुदाय के बच्चों को उनकी मातृभाषा में पढ़ाने की पहल की गई है. समग्र शिक्षा केरल की तरफ़ से यह पहल की गई है. इस बारे में बताया गया है कि यह महसूस किया जा रहा था कि प्राइमरी स्तर पर मुत्तुवन आदिवासी समुदाय के बच्चों को मलयालम भाषा में पढ़ने में दिक़्क़त हो रही थी.

इसलिए एक परियोजना शुरू की गई है जिसके तहत इस आदिवासी समुदाय के बच्चों को उनकी मातृभाषा में पढ़ाया जाएगा. इसके साथ साथ उन्हें मलयालम भाषा के शब्द भी साथ साथ सिखाए जाएँगे. 

समग्र शिक्षा केरल की से जुड़ी एक अध्यापिका हाल ही में एक ऐसे स्कूल में कई जहां मुत्तुवन आदिवासी समुदाय के बच्चे पढ़ते हैं. इस अध्यापिका के लिए यह रूटीन काम था. लेकिन जब उन्होंने इस स्कूल के बच्चों से उनका नाम पूछा तो उन्हें अहसास हुआ कि बच्चे उनकी बात समझ ही नहीं पा रहे हैं.

इसके बाद स्कूल के बच्चों के माता पिता से बातचीत की गई. इस बातचीत में जो सबसे बड़ा मसला उभरा वो भाषा का था. इन बच्चों के माता पिता में से ज़्यादातर का कहना था कि उनके बच्चे मलयालम नहीं समझ पाते हैं. 

एक बच्चे की माँ ने कहा कि वो यह तो चाहती हैं कि उनका बच्चा पढ़े लिखे, लेकिन वो बच्चे को मजबूर नहीं करना चाहती है. क्योंकि बच्चे को स्कूल में कुछ समझ में नहीं आता है.

मुत्तुवन समुदाय की अपनी भाषा है लेकिन भाषा कि स्क्रिप्ट नहीं है. आदिवासी भाषाओं में से ज़्यादातर के साथ यही मसला है. केरल के इस स्कूल के बच्चों और मात-पिता के साथ बातचीत के बाद यह तय किया गया है कि इन बच्चों को उनकी ही भाषा में पढ़ाया जाएगा.

इसके लिए यह तय किया गया है कि इस स्कूल में तीन में दो अध्यापक वह रखे जाएँगे जिन्हें इन आदिवासियों की भाषा आती है. यह प्रयास एक प्रयोग के तौर पर लागू किया जा रहा है. 

यह बताया गया है कि इस ज़िले के कई स्कूलों में कमोबेश यही हालात हैं कि जहां आदिवासी बच्चे भाषा की समस्या से जूझते हैं. 

आदिवासी भाषाओं में कैसे पढ़ाया जाए

इस बात में कोई दो राय नहीं है कि अगर मातृ भाषा में पढ़ाया जाता है तो बच्चों को आसानी से समझ में आता है. इसके अलावा अपनी मातृभाषा से बच्चे में एक सुरक्षा की भावना भी पैदा होती है. इसलिए वो स्कूल जाने से डरता नहीं है.

लेकिन यह भी सच है कि आदिवासी बच्चों को उनकी मातृ भाषा में पढ़ाना आसान नहीं है. क्योंकि सबसे बड़ी चुनौती आती है कि आदिवासी भाषाओं की स्क्रिप्ट कम ही मिलती है.

इसलिए आदिवासी भाषाओं में किताबें प्रकाशित नहीं होती है. कुछ आदिवासी भाषाओं की स्क्रिप्ट ज़रूर तैयार की गई है. लेकिन ज़्यादातर भाषाओं की स्क्रिप्ट नहीं मिलती है. आदिवासी भाषाओं को समझने वाले ट्रेंड टीचर्स की कमी भी एक बड़ी चुनौती रहती है.

दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ा चुकीं भाषाविद गेल कोलहो (Gail Coelho ) आजकल बेट्टा कुरूंबा आदिवासियों पर काम कर रही हैं. वो कहती हैं कि भारत एक बहु भाषी देश है, यह सच्चाई है और इसे हमें स्वीकार करना चाहिए. 

Gail Coelho लंबे समय से आदिवासी भाषाओं पर काम कर रही हैं

उनका कहना है कि आदिवासी बच्चों को एक से अधिका भाषा सीखनी ही पड़ती है. मसलन तमिलनाडु की भाषा तमिल है और स्कूल की किताबें भी तमिल भाषा में ही छपती हैं. उसी तरह से केरल में किताबें मलयालम में छपती हैं. 

लेकिन आदिवासी बच्चों की दिक़्क़त ये है कि उनकी अपनी भाषा है. कई बार ऐसा होता है कि वे तमिल, मलयालम या फिर दूसरी भाषाओं को समझ नहीं पाते हैं. इसलिए अगर स्कूलों में उनकी भाषा में पढ़ाई होगी तो अच्छा होगा.

वो कहती हैं कि इस नज़र से देखें तो यह फ़ैसला स्वागत योग्य है कि स्कूल में ऐसे अध्यापक लाए जाएँगे जो आदिवासियों की भाषा को जानते हैं. वो आगे कहती हैं कि अगर आदिवासी बच्चे अपनी भाषा के अलावा एक और भाषा सीख लेते हैं तो उनके लिए उसका फ़ायदा होता है.

गेल कहती हैं कि उनका अनुभव बताता है कि आदिवासी बच्चे आसानी से दूसरी भाषाएँ सीख लेते हैं. MBB से एक लंबी बातचीत में उन्होंने कहा कि आदिवासी भाषाओं की स्क्रिप्ट ना होने की वजह से परेशानी होती है.

आदिवासी भाषाओं में पढ़ाने के फ़ैसले के बारे में वो कहती हैं कि ऐसे किसी भी प्रयास का स्वागत होना चाहिए. लेकिन यह ध्यान रखना होगा कि अगर आदिवासी बच्चों को उनकी भाषा में पढ़ाना है तो इसके लिए ठोस नीति बनानी चाहिए.

वो कहती हैं कि कई आदिवासी भाषाओं कि लिपि तैयार हुई है. इसी तरह से बाक़ी आदिवासी भाषाओं की लिपि भी तैयार हो सकती हैं. लेकिन अफ़सोस की आदिवासी भाषाओं के विकास, संरक्षण और शोध पर जितना पैसा ख़र्च करना चाहिए वह नहीं हो रहा है.

वो कहती हैं कि एक ही आदिवासी समुदाय की भाषा को बोलने का लहजा अलग अलग जगहों पर बदल जाता है. कई शब्दों के मायने भी अलग होते हैं. यह एक और चुनौती रहती है.

गेल साथ साथ यह भी कहती हैं कि बेशक इस बात पर ज़ोर देना ठीक है कि आदिवासी भाषाओं में पढ़ाई लिखाई होनी चाहिए. लेकिन देश के सभी बच्चों को एक से ज़्यादा भाषा सीखनी ही पड़ती है. इसलिए आदिवासी बच्चों को भी जितना हो सके दूसरी भाषाएँ सीखने का मौक़ा दिया जाना चाहिए.

गेल कहती हैं कि जब किसी राज्य की सबसे मज़बूत और बड़ी भाषा में ही पढ़ाई और काम काम होता है तो आदिवासी भाषाओं के ख़त्म होने का ख़तरा बढ़ जता है. लेकिन आदिवासी भाषाओं की व्याकरण, शब्दकोश और स्क्रिप्ट अगर तैयार हो जाए तो उस भाषा में भी लोग पढ़ाई लिखाई करेंगे.

ऐसे प्रयासों से आदिवासी इलाक़ों में पढ़ाई लिखाई भी होगी और बच्चे स्कूल से ड्राप आउट नहीं होंगे. 

आधे अधूरे प्रयास, नीति और संकल्प की कमी

मुत्तुवन आदिवासी समुदाय के बच्चों को उनकी भाषा में ही पढ़ाने का जो प्रयोग किया जा रहा है वह एडमालक्कुडी ग्राम पंचायत के गाँवों में किया गया है. इस बारे में रिसर्च के दौरान हमें एक मज़ेदार तथ्य पता चला कि 1999 यानि क़रीब 23 साल पहले इस तरह की कोशिशें शुरू की गई थीं. 

वे कोशिशें भी इसी ग्राम पंचायत से शुरू हुई थीं. यानि पिछले दो दशक से एक आदिवासी भाषा के लोगों को उनकी अपनी भाषा में पढ़ाने का प्रयास चल रहा है. 

1999 में पीके मुरलीधरन को ज़िला प्राइमरी शिक्षा परियोजना में वॉलेंटियर के तौर पर शामिल किया गया. उन्हें एक मल्टिग्रेड लर्निंग सेंटर स्थापित करने का काम सौंपा गया था. दरअसल यह एक ऐसा स्कूल था जिसमें एक ही अध्यापक होना था. पीके मुरलीधरन से MBB की बात हुई लेकिन उम्र की वजह से वो ज़्यादा बातचीत नहीं कर पाते हैं.

लेकिन उन्होंने मुत्तुवन समुदाय की भाषा में स्कूल बनाने और बच्चों को पढ़ाने के अनुभव को अपनी जीवनी में दर्ज किया है. उन्होंने कहा है कि जब उन्हें यह काम सौंपा गया तो ना तो उन्हें किसी तरह का कोई पाठ्य सामग्री दी गई थी और ना ही कोई निश्चित पाठ्यक्रम था.

यह उनकी ज़िम्मेदारी थी कि वो कैसे आदिवासी बच्चों को पढ़ाएँगे. उन्होंने अपने कार्यक्षेत्र के आदिवासी समुदाय की भाषा पर काम करना शुरू किया. उन्होंने इस भाषा की एक स्क्रिप्ट और शब्दकोश तैयार करने में बहुत मेहनत की है.

वो कहते हैं कि तमिल या मलयालम में मुत्तुवन भाषा के भाव को प्रकट करना मुश्किल है. इसलिए यह ज़रूरी है कि इस भाषा कि अपनी स्क्रिप्ट तैयार हो. उन्होंने यह प्रयास किया और इस भाषा के क़रीब 2500 शब्दों का एक कोश तैयार किया है. 

उनके प्रयासों से साल 2018-19 में पहली कक्षा के लिए मुत्तुवन भाषा में एक किताब छापी गई. पीके मुरलीधरन भी कहते हैं कि मुत्तुवन आदिवासी समुदाय में दो समूह हैं और उनकी भाषा में थोड़ा फ़र्क़ है. इसलिए इस समुदाय की भाषा पर बारीकी से काम करने की ज़रूरत है. 

MBB की यात्राओं में हमने पाया है कि आदिवासी इलाक़ों में स्कूल ड्रॉप आउट रेट ज़्यादा होने की एक बड़ी वजह भाषा की अड़चन रही है. हमने भी यह महसूस किया कि सभी आदिवासी भाषाओं में पढ़ाई लिखाई कराना एक मुश्किल काम है. लेकिन यह काम असंभव नहीं है यह भी हमने कई राज्यों और इलाक़ों में देखा.

लेकिन आदिवासी भाषाओं में पढ़ाई लिखाई कराने के लिए जिस तरह की ठोस नीतिगत पहल की ज़रूरत है वो दिखाई नहीं देती है. आदिवासी भाषाओं के संरक्षण और विकास के अलावा अगर आदिवासी भारत में स्कूल ड्रॉप आउट की समस्या से निपटना है तो इस मामले में नीतिगत फ़ैसलों की ज़रूरत है.

इसके अलावा अलग अलग प्रयोग और प्रोजेक्ट के परिणामों के आकलन पर भी ज़ोर दिया जाना चाहिए. जिससे उन कारणों को समझा जा सके जिनकी वजह से दो दशक बाद भी आदिवासी भाषा में पढ़ाई के प्रयास वहीं क़दमताल करते रहते हैं.

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