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कर्नाटक में नई सरकार से आदिवासी के लिए कुछ बदेलगा

कुनबी समुदाय के डॉक्टरेट पाने वाले पहले सदस्य जयानंद डेरेकर कहते हैं कि वे पिछले 32 सालों से जनजाति को एसटी सूची में शामिल करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. लेकिन फिर भी उनकी लड़ाई अभी तक सफल नहीं हुई है.

कर्नाटक के हुबली जिले के येल्लापुर तालुक के मनचिकेरी गांव की जादागिनकोप्पा बस्ती के एक किसान जोथाना सोमा सिद्दी (25) पिछले पांच वर्षों में तीसरी बार अपना विधायक चुनने के लिए तैयार हैं.

येल्लापुर सीट पर 2019 में उपचुनाव हुआ था जब शिवराम हेब्बार ने विधायक पद से इस्तीफा दे दिया था और भगवा पार्टी को सरकार बनाने में मदद करने के लिए कांग्रेस से भाजपा में चले गए थे.

हालांकि, सोमा सिद्दी को इस बात की बहुत कम उम्मीद है कि उनके वोट से उनके या उनकी बस्ती की किस्मत पर कोई खास फर्क पड़ेगा. उन्होंने कहा, “न तो चुने हुए प्रतिनिधि और न ही सरकारी योजनाएं हमारे गांव तक पहुंचती हैं. इसलिए हम विधानसभा और लोकसभा चुनाव को गंभीरता से नहीं लेते हैं. हम मतदान करते हैं क्योंकि हमें मतदान करना है.”

वहीं करीब 140 किलोमीटर दूर भीमगढ़ वन्यजीव अभयारण्य में श्रेया और उनके पति शंकर नाइक पिछले चार दशकों से बेलगावी के खानापुर तालुक के कृष्णापुर गांव में तीन नालों पर स्थायी पुल बनाने की मांग कर रहे हैं लेकिन अभी तक कुछ नहीं हुआ है. कृष्णापुर गांव में 200 से अधिक परिवार हैं.

श्रेया कहती हैं, “हर चुनाव के दौरान उम्मीदवार हमारे गांव आते हैं और हमसे पुल का वादा करते हैं. लेकिन अभी तक उनमें से किसी ने भी हमारी मांग पूरी नहीं की है. हमने हर पार्टी और उम्मीदवार को आजमाया है और सभी एक जैसे हैं – हमारी दुर्दशा के प्रति उदासीन.”

वहीं शंकर कहते हैं कि पिछले 10-12 मानसून से हमें सरकार से राशन नहीं मिला है. यहां कोई स्कूल नहीं है और न ही कोई अस्पताल है. हमें चिकित्सा देखभाल के लिए मरीजों को 45 किलोमीटर (खानापुर) तक बाइक पर ले जाना पड़ता है.

बुनियादी सुविधाओं के अलावा पीड़ित समुदायों के सदस्य वन अधिकार अधिनियम 2006 के तहत भूमि अधिकार, एसटी सूची में कुछ समुदायों को शामिल करने और आंतरिक आरक्षण जैसे मुद्दों के लिए भी लड़ रहे हैं.

कर्नाटक में आदिवासी आबादी

2011 की जनगणना के मुताबिक, कर्नाटक 14 जिलों में 50 जनजातियों से संबंधित 42.48 लाख से अधिक आदिवासी लोगों का घर है. जनजातीय समुदायों में राज्य की कुल आबादी का 6.9 प्रतिशत शामिल है.

जानकारों का कहना है कि क्योंकि आदिवासी लोगों की आबादी पूरे राज्य में बंटी हुई है इसलिए वे किसी पार्टी के लिए वोट बैंक नहीं बनाते हैं.

सिर्फ बल्लारी, रायचूर, विजयपुरा और चित्रदुर्ग जिलों के प्रमुख वाल्मीकि नायक समुदाय जो एसटी के लिए आरक्षित 12 विधानसभा सीटों में से 11 पर अहम भूमिका निभाते हैं. इसके अलावा पिछले 70 वर्षों में राज्य में शायद ही किसी अन्य आदिवासी समुदाय का विधानमंडल में प्रतिनिधित्व किया गया हो.

चामराजनगर जिले के बीआर हिल्स के सोलिगा जनजाति के सी मेड गौड़ा कहते हैं, “हमारी मांगें शायद ही विधानसभा या परिषद के हॉल तक पहुंचती हैं क्योंकि एक सुर में आवाज नहीं है और हमारे सदस्य एक संगठित निर्वाचन क्षेत्र नहीं बनाते हैं. सरकार हमारी चिंताओं को ध्यान में रखे बिना कई वन नीतियां और परियोजनाएं बना रही है.”

कागजों पर सरकार गैर-वन क्षेत्रों में वनवासियों के पुनर्वास को प्रोत्साहित कर रही है.

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बिना शिक्षा के विस्थापन

हालांकि, मेड गौड़ा बताते हैं कि समुदायों को बाहरी दुनिया में समायोजित करने में मदद करने के लिए उन्हें जरूरी स्किल और शिक्षा प्रदान किए बिना विस्थापित किया जा रहा है.

उन्होंने कहा, “राज्य में 116 गिरिजना आश्रम शैल में से ज्यादातर में योग्य और स्थायी शिक्षक नहीं हैं. शिक्षा के बिना अगर हम जंगल से बाहर चले गए तो हम जिंदा नहीं रह पाएंगे.”

आंतरिक आरक्षण

गौड़ा कहते हैं कि आदिवासी लोगों के लिए आरक्षण बढ़ाने से तब तक मदद नहीं मिलेगी जब तक कि सभी स्वदेशी समुदायों को शामिल करने के लिए आंतरिक आरक्षण लागू नहीं किया जाता है.

राज्य सरकार ने हाल ही में एसटी समुदायों के लिए आरक्षण 3 प्रतिशत से बढ़ाकर 7.5 प्रतिशत कर दिया है.

कुनबी समुदाय के डॉक्टरेट पाने वाले पहले सदस्य जयानंद डेरेकर कहते हैं कि वे पिछले 32 सालों से जनजाति को एसटी सूची में शामिल करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. लेकिन फिर भी उनकी लड़ाई अभी तक सफल नहीं हुई है.

‘कुंबरी भूमि’ का मुद्दा – वन भूमि का एक टुकड़ा जिस पर समुदाय कई सदियों से खेती कर रहा है. ये मुद्दा भी अभी तक अनसुलझा है. डेरेकर कहते हैं कि भूमि के टाइटल डीड के लिए जनजाति की मांग पूरी नहीं हुई है क्योंकि लगातार सरकारों ने इस मुद्दे को लटका कर रखा है.

येल्लापुर के कल्लेश्वर गांव के एक सामाजिक कार्यकर्ता मोहन सिद्दी कहते हैं, “कई दशकों से जमीन पर खेती करने के बावजूद हम अभी भी इन जमीनों के मालिक नहीं हैं.”

सिद्दी बताते हैं कि भूमि अभिलेखों में इन क्षेत्रों को अभी भी ‘वन’ क्षेत्रों के रूप में पहचाना जाता है. इसके अलावा खेतिहर मजदूर के रूप में हम सब्सिडी और फसल बीमा सहित किसी भी सरकारी योजना के लिए पात्र नहीं हैं.

आदिवासी समुदाय के मन में एक बात साफ है कि जब तक वे राजनीतिक रूप से मजबूत नहीं होंगे तब तक उनकी मांग पूरी नहीं होगी. आरक्षित निर्वाचन क्षेत्रों के बाहर शायद ही कोई पार्टी किसी आदिवासी उम्मीदवार को मैदान में उतारती है और आगे भी संभावनाएं उज्ज्वल नहीं लगती हैं.

भाजपा के शांताराम सिद्दी, जो सिद्दी समुदाय के पहले विधान परिषद के सदस्य हैं, वो कहते हैं कि अगर प्रशासन विकास का एक पहिया है तो दूसरा पहिया लोग हैं.

एमएलसी बनने का अवसर देने के लिए वह भाजपा के आभारी हैं लेकिन कहते हैं, “मुझे अपनी पार्टी में अपनी स्थिति और कुछ मुद्दों पर उसके रुख पर विचार करना होगा. मैं उन रेखाओं को पार नहीं कर सकता. लेकिन मेरी पार्टी ने कई ऐसे कदम उठाए हैं जिससे आदिवासियों को फायदा हुआ है.”

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