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आज़ादी के अमृत महोत्सव में आदिवासी शौर्य के साथ साथ अधिकार की चर्चा भी ज़रूरी है

आदिवासी वीरों को सम्मान देने के साथ साथ उनके संसाधनों और जीविका के साधनों पर उनके अधिकार से जुड़े संवैधानिक प्रावधानों और क़ानूनों पर भी चर्चा ज़रूरी है. आज़ादी के अमृत महोत्सव में यह देखने की ज़रूरत है कि आदिवासियों को मुख्यधारा से जोड़ने के दावे और वादों का क्या हुआ.

भारती की आज़ादी के 75 साल पूरे होने पर देश की सरकार अमृत महोत्सव मना रही है. इस सिलसिले में देश के आज़ादी में भूमिका निभाने वाले आदिवासी नायकों की भी चर्चा हो रही है.

इस बात में कोई दो राय नहीं हो सकती है कि यह एक ज़रूरी चर्चा है. अगर राष्ट्रीय स्तर पर यह चर्चा की जा रही है तो निश्चित ही यह स्वागत योग्य कदम है. इस सिलसिले में दिल्ली विश्वविद्यालय सहित अलग शिक्षण संस्थानों में आयोजित कार्यक्रम निश्चित ही नई पीढ़ी को आदिवासी नायकों से परिचित होने में मदद करेंगे. 

इसके अलावा आदिवासी नायकों के नाम पर रेलवे स्टेशन और स्टेडियम के नामकरण भी हो रहे हैं. गुजरात, राजस्थान और मध्य प्रदेश की सीमा पर स्थिति मानगढ़ धाम को प्रधानमंत्री ने राष्ट्रीय स्मारक घोषित किया है. यह भील आदिवासियों की शहादत का प्रतीक है.

इसके अलावा बिरसा मुंडा की जयंती को जनजातीय गौरव दिवस के तौर पर मनाए जाने की घोषणा की गई है. ये सभी कदम बेशक भारत की आज़ादी की लड़ाई में आदिवासी योगदान का सम्मान है.

इसके साथ साथ ग़ैर आदिवासियों में आदिवासी समुदायों के बारे में और जानने समझने की इच्छा भी पैदा करते हैं. जब आदिवासी समुदाय से जुड़ी चर्चा लगातार होती है तो यह चर्चा आदिवासियों में अपनी संस्कृति और जीवनशैली के प्रति गर्व का कारण भी बनती है.

लेकिन जब देश आज़ादी का अमृत महोत्सव मना रहा है तो यह भी ज़रूरी है कि आदिवासियों के संवैधानिक और क़ानून अधिकारों की भी बात की जाए. देश को थोड़ा ठहर कर यह देखने की ज़रूरत है कि क्या आदिवासियों के लिए संविधान में किये गए विशेष प्रावधानों को लागू किया जा सका है. क्या उनके लिए संसद से बने क़ानून का लाभ उन्हें मिला है.

देश के आदिवासियों को मुख्यधारा में जोड़ने के जो दावे किये जाते हैं उनका क्या हाल है, इसकी समीक्षा भी तो होनी चाहिए. मसलन आदिवासियों को उनकी पहचान, संस्कृति की रक्षा के साथ साथ उनके संसाधनों पर नियंत्रण का अधिकार देने वाले क़ानूनों का क्या हाल है. 

ऐसा ही एक क़ानून 1996 में संसद से पास हुआ था. इस क़ानून को पेसा (PESA) के नाम से जाना जाता है. इस क़ानून को बने 25 साल से ज़्यादा हो चुके हैं. लेकिन अभी भी कई ऐसे राज्य हैं जहां इससे क़ानून से जुड़े नियम तैयार नहीं हुए हैं.

उसके अलावा मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में इसी साल पेसा के नियम तैयार हुए हैं. दोनों ही राज्यों की सरकार इस बात के लिए अपनी छाती ठोंक रही है कि आदिवासियों को स्वशासन का अधिकार देने वाले इस क़ानून को लागू कर, उन्होंने बड़ा काम कर दिया है. 

जबकि सवाल ये होना चाहिए कि आख़िर 25 साल तक उन राज्यों में इस क़ानून से जुड़े नियम क्यों नहीं बनाए गए थे. इसके साथ ही इन राज्यों में जो नियम बने हैं उनकी भी आलोचना हो रही है. 

मज़े की बात ये है कि सरकार एक क़ानून के नियम इतनी देर से बनाती है, उस पर आदिवासियों को ऐसा अहसास दिलाने की कोशिश की जाती है मानों सरकारों ने प्रसन्न हो कर इन समुदायों को विशेष अधिकार दिये हैं.

जबकि सच्चाई ये है कि आदिवासी समुदायों को संविधान और क़ानून में जो भी हक़ दिये गए हैं, उनके पीछे आदिवासियों का संघर्ष और शहादत दोनों है. अगर पेसा की बात करें तो उसके पीछे भी कई राज्यों में हुए आदिवासी आंदोलन की बड़ी भूमिका थी.

पेसा के लिए आदिवासी आंदोलन

पंचायती राज अधिनियम के विरोध में 1992 में महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले में देश के विभिन्न प्रांतों के आदिवासियों का सम्मेलन हुआ, जिसमें आदिवासियों के लिए अलग से कानून बनाने की मांग प्रमुख रही.  इस सम्मेलन में ऑस्ट्रेलिया और श्रीलंका के प्रतिनिधियों नेभी हिस्सा लिया. 1993 में मध्य प्रदेश के बड़वानी जिले के कुंजरी गांव में तीन दिवसीय सम्मेलन का आयोजन किया गया. सम्मेलन में लगभग 25 हजार आदिवासियों ने हिस्सा लिया. 

पेसा लागू करने के लिए आंदोलन

इस सम्मेलन में देश के अन्य राज्यों के प्रतिनिधियों के साथ संयुक्त राष्ट्रसंघ के मानव अधिकार कार्यकर्ता भी शामिल थे. झारखंड(बिहार) में 1993 में संपूर्ण क्रांति मंच और झारखंड मुक्ति आंदोलन के नेतृत्व में चाईबासा से 70 किलोमीटर दूर जंगल में साउथ एशियाई इंटरनेशनल कॉन्फेरेन्स आयोजित की गयी. जिसके संयोजक झारखंड के आदिवासी नेता कुमार चंद्र मार्डी थे. 

पांच दिवसीय इस सम्मेलन में झारखंड, मध्य प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र, राजस्थान, उड़ीसा जैसे राज्यों के प्रतिनिधियों के अलावा ऑस्ट्रेलिया, श्रीलंका, बर्मा, बांग्लादेश के प्रतिनिधि शामिल हुए. सम्मेलन में लगभग 5 हजार आदिवासियों ने हिस्सा लिया. अंतिम दिन जो प्रस्ताव पारित हुआ उसमें निम्नलिखित माँग की गई थीं.

  1. आदिवासी क्षेत्रोंमें प्राकृतिक संसाधनों पर आदिवासियों का सामुदायिक मालिकाना हक हो. 
  2. आदिवासियों केलिए अलग कानून बनाया जाए. 
  3. स्व-शासन व्यवस्थाचलानेवाली हर जगहों पर 50% महिला आरक्षण हो. 
  4. छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम और संथाल परगना काश्तकारी अधिनियम कोकड़ाई सेलागू किया जाये. 
  5. जहां-जहां आदिवासी निवास करतेहैं, उन्हेंपांचवीं अनुसूची में शामिल किया जाए. 
  6. आदिवासियों का विस्थापन बंद किया जाए. 

आदिवासियों द्वारा किए जा रहे आंदोलन के दबावमें मजबूर होकर नरसिम्हाराव की कांग्रेस सरकार को 10 जून 1994 में आदिवासी सांसद दिलीप सिंह भूरिया की अध्यक्षता में 22 सदस्यीय कमेटी का गठन करना पड़ा. 

इस कमेटी को जिम्मेदारी दी गई कि कमेटी पांचवीं अनुसूची के क्षेत्रोंका दौरा करके यह अध्ययन करे कि आदिवासी समुदाय क्यों कह रहे हैं कि पंचायती राज अधिनियम से उनकी पारम्परिक रूढ़िगत स्व-शासन व्यवस्था समाप्त हो जाएगी, आदिवासी समुदाय की यह स्व-शासन व्यवस्था क्या है ? 

भूरिया कमेटी की सिफ़ारिशें

पांचवीं अनुसूची क्षेत्रोंमें पंचायती राज अधिनियम के खिलाफ आदिवासियों के अंदर बढ़ते आक्रोश को देखते हुए भूरिया समिति ने तेजी से काम करते हुए 7 महीनें में 17 जनवरी 1995 को ग्रामीण क्षेत्रों के लिए अपनी रिपोर्ट संसद में प्रस्तुत कर दी. 

15 जुलाई 1995 कोभूरिया कमेटी ने शहरी क्षेत्रों के लिए अपनी दूसरी रिपोरट भी संसद में पेश कर दी. इस रिपोर्ट में समिति नेअनुसूचित क्षेत्रों में नगरपालिका तथा अन्य नगरीय क्षेत्रों की विशेष व्यवस्था के बारे में व्यापक सिफारिशें की. 

इस रिपोर्ट में उद्योग पर समाज की मालिकी के सिद्धांत को स्वीकार करने की अनुशंसा की गई. भूरिया समिति ने जो सिफारिशें दी, उनमें से महत्वपूर्ण सिफारिशें है- 

  1. अनुसूचित क्षेत्र में पंचायत का उद्देश्य जनजातियों के शोषण का विरोध करना, इसे रोकना और जनजातिय समुदायों की राजनैतिक, आर्थिक एवं सामाजिक शक्ति को बढ़ाना होना चाहिए. 
  2. पंचायतों को छठी अनुसूची में जिला परिषदों के पैटर्न पर अधिकार होने चाहिए. इसमें भूमि के प्रयोग, वनों के प्रबंधन, जल संसाधनों के प्रयोग, सम्पत्ति का उत्तराधिकार, सहकारिता और सामाजिक रिवाजों, धन उधार देने के विनियमन और नियंत्रण तथा उत्पाद नीति पर विधान बनाने का अधिकार सम्मलित है. 
  3. ग्राम सभा को जनजातियों के अधिकारों की सुरक्षा के लिए जिम्मेदार प्राकृतिक संसाधनों पर परम्परागत अधिकारों को लागू करने का अधिकार होना चाहिए. उन्हें विकास के छोटे-मोटे काम भी करने चाहिए और नशीली वस्तुओं के निर्माण, बिक्री और उपभोग को भी विनयमित करना चाहिए.
  1. अनुसूचित क्षेत्रों की भूमि कोग् राम सभा की सहमति से अधिग्रहण किया जाना चाहिए और ऐसा उन परिवारों के लिए वैकल्पिक जीविका की व्यवस्था करने के बाद करना चाहिए, जो अपनी भूमि के अधिग्रहण के कारण विस्थापित हो जायेगें. 

  5. जनजातीय भूमि की बिक्री पर प्रतिबंध होना चाहिए और भूमिका अंतरण केवल अनुसूचित जनजातियों के सदस्यों को होना चाहिए, चाहे अंतरणकर्ता अनुसूचित  जनजाति का सदस्य हो या नहीं. 

 6. ग्रामीण पंचायतें और मध्यम पंचायतें, जिला परिषदों द्वारा दिए गये अनुदेशों के अंतर्गत, विकास योजनायें तैयार करेंगी और ग्रामीण विकास के लिए स्कीमों का निष्पादन करेंगी. 

7. पुलिस, खनन, वन जैसे विभाग के पदाधिकारियों की भूमिका न्यूनतम होनी चाहिए.  इन क्षेत्रों में तैनात सरकारी कर्मचारियों को जिला परिषदों के नियंत्रण में रखा जाना चाहिए. 

8. परम्परागत जनजातीय निकायों को कार्य जारी रखने के लिए मान्यता दी जानी चाहिए. जनजातीय निकायों के क्षेत्राधिकार में आने वाले मामलों में कोई हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए. 

9. जब ग्राम सभाएं शिकायतों के लिए संकल्प लेती है, तो केवल ग्राम सभा के क्षेत्राधिकार के भीतर आने वाले मामलों के बारे में इसका संज्ञान पुलिस को लेना चाहिए. इन क्षेत्रों में तैनात व्यावसायिक विधि अधिकारियों को जनजातीय परम्परागत कानूनों में प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए.

10. जनजाति योजना और विभिन्न स्कीमों के अंतर्गत अन्य निधियों का नियंत्रण पंचायतों को सौंपा जाए. 

11. पंचायतों में अनुसूचित जनजातियों का बहुमत सुनिश्चित किया जाना चाहिए. इन निकायों के अध्यक्ष अनुसूचित जनजाति के व्यक्ति होने चाहिए. 

12. स्व-शासन के प्रयोजन से अनुसूचित क्षेत्र में पंचायतों को छठी अनुसूची की तरह जिला परिषद् के शक्तियां मिलनी चाहिए. जब कभी अनुसूचित क्षेत्रोंकी पंचायत को विशेष परिस्थतियों में भंग किया जाना हो तो इन पंचायतों को केवल उस राज्य के राज्यपाल के आदेश से ही भंग किया जा सकता है. 

आदिवासियों के आंदोलनो के दबाव में केंद्र सरकार ने अनुसूचित क्षेत्रों में स्व-शासन व्यवस्था के लिए लोकसभा में 15 दिसंबर 1996 को विधेयक पेश किया. लोकसभा में विधेयक पास होने के बाद 18 दिसंबर 1996 को उसे राज्यसभा में पेश किया गया. 24 दिसंबर 1996 को राष्ट्रपति के अनुमोदन से  पंचायत उपबंध (अनुसूचित जनजातीय क्षेत्रों में विस्तार) अधिनियम 1996 (पेसा) देश के सभी अनुसूचित क्षेत्रों में लागू हो गया. 

अनुसूची 5 के राज्यों में कब कब बने पेसा के नियम

15 साल बाद मार्च 2011 में आंध्र प्रदेश, हिमाचल प्रदेश और नवम्बर 2011 में राजस्थान ने राज्य पेसा नियम अधिसूचित किये. राजस्थान सरकार द्वारा तो जोधपुर उच्च न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद पेसा नियम, 2011 बनाये गये. इसके बाद मार्च 2014 में महाराष्ट्र और जनवरी 2017 में गुजरात ने अपने राज्य में पेसा नियम लागू कर दिए.

25 वर्ष बाद अगस्त 2022 में छत्तीसगढ़ राज्य ने भी अपने पेसा नियम लागू कर दिए. लेकिन एक भी राज्य ने पेसा के मुताबिक पंचायती राज कानून में फिलहाल कोई संशोधन नहीं किया है और न ही राज्यों के कानूनों को पेसा की मूल भावना के अनुपालन में बनाएं गये है. राज्यों ने केंद्रीय पेसा के प्रावधानों का पालन नहीं किया है.

अभी भी ओड़िशा और झारखण्ड ने पेसा नियम नहीं बनाये है.

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